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काल चक्र एवं प्रारंभिक सभ्यताएं भाग - 2
3.0 ताम्रपाषाणकालीन कृषि संस्कृति
3.1 ताम्रपाषाणकालीन बस्तियां
नवपाषाणकाल के अंतिम दौर में धातुओं का उपयोग प्रारंभ हो गया था। सबसे पहले उपयोग की जाने वाली धातु ताँबा थी, और कुछ संस्कृतियां पत्थर और ताँबे के संयुक्त उपयोग पर आधारित थी। ऐसी संस्कृतियों को ताम्रपाषाण संस्कृति कहा जाता है। ताम्र अर्थात् ‘‘कॉपर/तांबा‘‘, और पाषाण अर्थात् पत्थर। तकनीकी रूप से, ताम्र-पत्थर दौर हड़प्पा संस्कृति का पूर्ववर्ती माना जाता है। ताम्रपाषाणकाल के लोग सामान्यतः पत्थर और ताँबे से बनी चीजो़ं का उपयोग करते थे, किंतु कभी-कभी वे निम्न स्तर के पीतल का भी इस्तेमाल करते थे। प्रारंभिक रूप से वे ग्रामीण समुदाय थे जो देश के उन हिस्सों में, जहां घाटियां और नदियां उपलब्ध थीं, फैले हुए थे। दूसरी ओर, हड़प्पा के लोग पीतल का उपयोग करते थे और वे शहरों में रहते थे जो सिंधु नदी घाटी के मैदानों से प्राप्त उत्पादों के दम पर बने थे। भारत में, ताम्रपाषाणकाल के निवास स्थल दक्षिणपूर्वी राजस्थान, मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्सों, पश्चिमी महाराष्ट्र और दक्षिणी तथा पूर्वी भारत में पाये जाते हैं। दक्षिणीपूर्वी राजस्थान में दो स्थल, एक अहर में और दूसरे गिलन्ड में खोदा गया है। वे बानस घाटी के शुष्क क्षेत्रों में पाये गये। पश्चिमी मध्यप्रदेश में मालवा, कायथा और एरण नामक स्थल सामने आये हैं। मालवा में, मालवा ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति के विशिष्ट केन्द्र पाये गये हैं तथा पश्चिमी भारत ताम्रपाषाण सिरेमिक बर्तनों के निर्माण में विशिष्ट माना जाता है। इसके बर्तन निर्माण की कला और संस्कृति के कुछ तत्व महाराष्ट्र में भी पाये जाते हैं। सिरेमिक अर्थात् चीनी मिट्टी।
किंतु सबसे सघन खुदाई पश्चिमी महाराष्ट्र में हुई है। कुछ ताम्रपाषाणकालीन स्थल जैसे कि अमहदनगर जिले के जोरवे, नेवासा, तथा दायमाबाद और पुणे जिले के चंदोली, सोनगांव, ईनामगांव आदि में खुदाई की गई है। वे सभी जोरवे संस्कृति के नाम से जाने जाते हैं जो अहमदनगर जिले में गोदावरी नदी की एक सहायक नदी प्रवर के किनारे स्थित जोरवे नामक स्थल के नाम पर रखा गया है। जोरवे संस्कृत, मालवा संस्कृति के लगभग समान है किंतु इसमें कुछ तत्व दक्षिणी नवपाषाण संस्कृति में भी पाये जाते हैं।
1400 ई.पूर्व से 700 ई.पूर्व की जोरवे संस्कृति आधुनिक महाराष्ट्र में फैली हुई है, सिवाय विदर्भ और तटीय कोंकण क्षेत्रों के। हालांकि जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, इसकी कुछ बस्तियां जैसे दायमाबाद और इनामगांव लगभग शहरी हो चुकी थीं। ये भी महाराष्ट्र की बस्तियां अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में भूरी-काली मिट्टी जिसमें बेर व बबूल वनस्पति होती थी, स्थित थीं। इनके अतिरिक्त, हमें नर्मदा स्थित नवड़ाटोली भी मिला है। ताम्रपाषाणयुगीन तत्व दक्षिण भारत के नवपाषाण क्षेत्रों में प्रवेश कर चुके थे।
अनेक ताम्रपाषाणकालीन स्थल अलाहबाद जिले के विंध्य क्षेत्र में भी पाये गये हैं।
पूर्वी भारत में, गंगा के किनारे चिरंद के अतिरिक्त, बुर्दवान जिले के पंडुराजरधीबी और पश्चिम बंगाल के बीरभुम जिले में महिषादल का भी उल्लेख किया जा सकता है । कुछ अन्य स्थलों की खुदाई की गई है जिनमें बिहार के सेंवार, सोनपुर, तारीदिह तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश में खैतादिह और नरहान प्रमुख हैं।
इस संस्कृति के निवासी छोटे औजारों और हथियारों का इस्तेमाल करते थे जो पत्थर से बने होते थे और जिसके बाहरी छोर धारदार होने के कारण महत्वपूर्ण हुआ करते थे । कई स्थानों पर, विशेषकर दक्षिण भारत में, पत्थर से बने धारदार हथियारों को बनाने का उद्योग फला-फूला और पत्थर से बनी कुल्हाड़ियों का उपयोग जारी रहा। यह स्पष्ट है कि ऐसे क्षेत्र पहाड़ियों से दूर नहीं बसे थे। कुछ निवास स्थलों पर तांबे के बर्तन और औजार बड़ी मात्रा में मिलते हैं। ऐसा अहर और गिलन्ड में दिखाई पड़ता है जो राजस्थान की बानस नदी घाटी के शुष्क क्षेत्रों में बसे हैं। समकालीन नवपाषाण बस्तियों के विपरीत, कृषि संस्कृति में सूक्ष्म पत्थर औज़ारों का ना तो उपयोग होता था और ना ही बनाये जाते थे; पत्थर की कुल्हाड़ियों और धारदार औजारों का भी स्पष्ट अभाव दिखाई देता है। यहाँ पाई जाने वाली वस्तुओं में तांबे से बने हुए सपाट कुल्हाड़ी, चूड़ियाँ आदि हैं, हालांकि कहीं-कहीं पीतल की वस्तुएं पाई गई हैं। ताँबा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध था। अहर के लोगों को प्रारंभ से ही धातु कला का ज्ञान था। अहर का प्राचीन नाम तांबावती था जिसका अर्थ होता है ताँबे प्रसंस्करण का स्थल। अहर संस्कृति का कालखण्ड 2100 ई.पू. से 1500 ई.पू. था और गिलन्ड अहर संस्कृति का क्षेत्रीय केन्द्र माना जाता है। गिलन्ड में ताँब की वस्तुएं केवल कुछ ही मात्रा में पाई गई हैं। यहाँ हमें पत्थर का औजारों का पूरा उद्योग देखने को मिलता है। सपाट, आयताकार तांबे की कुल्हाड़ियां जोरवे व चांदोली में पाई जाती हैं तथा तांबे की छैनी चंदोली महाराष्ट्र में पाई गई हैं।
नवपाषाण युग के निवासी विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन उपयोग करते थे जिनमें से एक काला और लाल कहा जाता है जो 2000 ई.पू के बाद विस्तृत रूप से क्षेत्रों में उपयोग किया जाता था। इसे पहिये पर बनाया जाता था और अक्सर इसे सफेद रेखीय आकृतियां से रंगा जाता था। यह न केवल राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के निवास स्थलों के लिए सही है बल्कि बिहार और पश्चिम बंगाल के निवासी भी इसका उपयोग करते थे। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और बिहार के निवासी टोटी वाले बर्तन, थाली और प्याले नुमा बर्तन बना लेते थे। किंतु केवल मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करने से ही सभी संस्कृतियों को समान नही कहा जा सकता वरन् इन विभिन्न संस्कृतियों में अंतर उनके द्वारा बर्तनां के निर्माण तथा उनके विभिन्न रूपों से स्पष्ट हैं।
ताम्रपाषाण युग में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्यप्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्य स्थानों पर कृषि उत्पादन एवं पशुपालन किया गया। वे लोग भेड़, बकरी, भैंस तथा सुअर पालते थे एवं हिरणों का शिकार करते थे। इन स्थानों पर मृत ऊँटों के अवशेष भी पाए गए हैं किंतु वे लोग घोड़ां की प्रजाति से परिचित थे या नहीं इसका कोई संकेत नही है। कुछ अवशेष जो प्राप्त हुए, वे घोडे के हैं या गधे के, या जंगली गधे के, ये अभी स्पष्ट नही हो सका है। तत्कालीन लोग मांसाहारी थे, परंतु उनके द्वारा सुअर के माँस के सेवन की पुष्टि नही हुई है। यहाँ उल्लेखनीय यह है कि इन लोगों द्वारा गेंहू, चावल जैसी बुनियादी फसलें, बाजरा आदि के साथ साथ विभिन्न दालों जैसे-मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर आदि का उत्पादन भी किया गया। ये सभी खाद्यान्न महाराष्ट्र के नेवदाटोली के नन्नदा तट पर पाए गए हैं। भारत में अन्य कोई ऐसा स्थान नही है जहां खुदाई के परिणामस्वरूप इतने सारे अनाजों का उत्पादन हुआ पाया गया है। नेवदाटोली के लोगों द्वारा अलसी इत्यादि का उत्पादन भी किया जाता था। इसी प्रकार दक्कन की काली मिट्टी में कपास, रागी, बाजरा तथा निम्नवर्ती दक्कन के क्षेत्रों मे कई तरह के अनाजां का उत्पादन प्रचलित था। वहीं पूर्वी-भारत, जैसे-बिहार और पश्चिम बंगाल में, मछली पकड़ना, चावल उत्पादन आदि पाया गया। ताम्रपाषाण युग में पूर्वी क्षेत्र के लोगां का आहार मछली अैर चावल था, जो कि आज भी इस क्षेत्र का प्रचलित भोजन है। मुख्यतया राजस्थान की बनास घाटी, की बस्तियां छोटी हैं, किंतु अहार और गिलन्ड का क्षेत्र लगभग चार हेक्टेयर में फैला है।
ताम्रपाषाणयुगीन लोग, मुख्यतया गिलन्ड के लोग 1500 ई.पू. के आसपास शायद जली ईंटां के इस्तेमाल से परिचित नहीं थे क्योंकि उनके घर कभी-कभी मिट्टी की ईंटों के बने थे। ज्यादातर घरों का लीप कर निर्माण किया गया है और वे श्रृंखलित आपस मे सटे हुए घर थे। हालांकि अहर में लोग पत्थर निर्मित मकानों में रहते थे। अब तक की प्रमुख खोज में वे 200 दर्शनीय स्थल हैं, जो की दायमाबाद में गोदावरी घाटी के समीप हैं। यहां लगभग 4000 लोग 20 हेक्टेयर के फैलाव में रहे होंगे। यह क्षेत्र लगभग 20 हेक्टेयर है, व यहां मिट्टी की दीवार तथा मंजिलनुमा भवन होने के तथ्य पाये गये हैं। डायमाबाद, पीतल के सामान की एक बड़ी संख्या मे खोज के लिए, जिनमें से कुछ हड़प्पा संस्कृति से प्रभावित थे, प्रसिद्ध है।
इनामगाँव में, पश्चिमी महाराष्ट्र में पहले ताम्रपाषाणयुग में, गोल और घुमावदार मिट्टी के घरों की खोज की गई है। तत्पश्चात् (1300-1000 ईसा पूर्व) में पांच कमरे, (चार आयताकार और एक गोलाकार) के साथ एक घर था, जो इन बस्तियों के केंद्र में स्थित था। यह किसी एक प्रमुख का घर हो सकता है। इसे इनामगाँव में अन्न भंडारण के लिए भी इस्तेमाल किया गया हो सकता है। यहां सौ से अधिक घरों के पाये जाने की भी पुष्टि हुई है तथा यह क्षेत्र कई खाईयों एवं ढ़लानों से भी घिरा हुआ था। इनामगांव एक बड़ी ताम्रपाषाणयुगीन बस्ती थी।
ताम्रपाषाणयुग के लोगों को कला और शिल्प के बारे में ज्ञान था। वे स्पष्ट रूप से पत्थर एवं तांबा कारीगरी मे विशेषज्ञ थे। वहाँ उपकरण, हथियार और तांबे की चूडीयाँ पाई गई हैं व साथ ही क्वार्ट्ज क्रिस्टल, कीमती पत्थरों की निर्मित माला आदि भी पाई गइंर्। मालवा में लोग कताई और बुनाई की कला जानते थे। रेशम (कपास पेड़) की कपास रेशम से बने कपास, सन, रेशम और धागे का उपयोग महाराष्ट्र में पाया गया है। यह लोग अच्छी तरह से कपड़े के निर्माण से परिचित थे, ऐसा पता चलता है। विभिन्न स्थलों पर इन कलाओं के अलावा हम इनामगाँव में कुम्हारों, कारीगारों, हाथीदांत, चूना निर्माताओं और मृणमूर्ति कारीगरां की झलक भी पाते हैं।
अनाज, मिट्टी के बर्तन की संरचना के संबंध में क्षेत्रीय अंतर ताम्रपाषाणयुग चरण में दिखाई देते हैं। पूर्वी भारत में चावल का उत्पादन, तो पश्चिमी भारत में जौ और गेहूं का उत्पादन किया गया। मालवा और केंद्रीय भारत, जिनमें कायथा और एरण काफी पूर्व ही बस चुके थे, जबकि पश्चिमी महाराष्ट्र और पूर्वी भारत के लिए यह समय काफी समय बाद आया।
हम दफन अवशेषां की प्रथाओं और इन लोगों के धार्मिक संप्रदायों के बारे में कुछ विचार बना सकते हैं। महाराष्ट्र के लोगां के व मृत अवशेष उनके घर के फर्श के नीचे कलशों में उत्तर-से-दक्षिण दिशा में दफन पाए गए। यह हड़प्पा सभ्यता जैसा ही मामला था क्योंकि वे भी इस उद्देश्य के लिए अलग कब्रिस्तान का उपयोग नहीं करते थे। बर्तन और कुछ तांबे की वस्तुएं भी इन मृत लोगों के अवशेषों के साथ पाई गईं।
महिलाओं की मृणमूर्ति से बनी आकृतियां दर्शाती हैं, कि ताम्रपाषाणयुग के लोग किसी देवी मां की पूजा अर्चना करते थे। कुछ नग्न मिट्टी की छोटी मूर्तियाँ भी पूजा के लिए इस्तेमाल की गईं। पश्चिमी एशिया में भी इसी तरह की देवी माँ की आकृतियों को पाया गया है। मालवा और राजस्थान में बैल की मृणमूर्ति की आकृतियां जो शायद उनका धार्मिक प्रतीक थीं, पाई गई।
दोनों प्रथाएं सामाजिक असमानता की शुरुआत का संकेत देती हैं। संगीकार चरण महाराष्ट्र में पायी कई जोरवे बस्तियों में प्रकट होता है। उनमें से कुछ बीस हेक्टेयर में प्रवासित थे, लेकिन दूसरे केवल पांच हेक्टेयर में प्रवासित थे। यह दो स्तरीय बस्तियों के अंतर का मतलब है कि बड़ी बस्तियों का छोटी बस्ती के लोगों पर प्रभुत्व था हालांकि बड़ी और छोटी दोनों बस्तियों में आयताकार घरों में रहा जाता था। प्रमुख व्यक्ति और उनके सहचर आयताकार झोपडियों में रहते थे जबकि अन्य लोग छोटे गोलाकार घरां मे रहते थे। इनामगाँव में कारीगरों के घर पश्चिमी किनारे पर थे जबकि शायद केंद्र में प्रमुख का घर होता था। इन निवासियों के बीच सामाजिक दूरी का पता इस बात से चलता है, कि बच्चों के जो मृत कंकाल पाए गए उनमें कुछ की कब्र में केवल बर्तन मिले जबकि पश्चिमी महाराष्ट्र के चंदौली अैर नेवासा मे बच्चों की कब्र में उनका गर्दन के चारों ओर तांबा आधारित हार के साथ दफनाया गया पाया गया। इनामगाँव में एक वयस्क को बर्तनों और कुछ तांबे के साथ दफनाया गया था। कायथा के एक घर में, 29 तांबे की चूडीयां और दो अद्वितीय कुल्हाडीयों को पाया गया। वहीं मोती तथा कीमती पत्थरों का हार व बर्तन पाए गए। यह वस्तुए उनके पास थी, जो कि उन व्यक्तियों के धनी होने का संकेत है।
कालक्रम के अनुसार राजस्थान के सीकर व झुंझुनु के ज्ञानेश्वर का भी वर्णन उचित होगा, जो कि खेतड़ी कि तांबे की खानां से समृद्ध क्षेत्र के करीब स्थित है। इस क्षेत्र से खुदाई के दौरान तांबा वस्तुओं में तीर, जाल, मत्स्य संबधित किताबें, चूडीयाँ, छैनी आदि मिले हैं। सिंधु-घाटी सभ्यता में देखी गई मृणमूर्ति सबंधित सामग्री भी पाई गई है। यह भी ताम्रपाषाण संस्कृति के प्रतीक हैं। यहां काले और मुख्य रूप से फूलदान रूपी चित्रित लाल बर्तन मिले, जो कि ओसीपी के बर्तन हैं। ज्ञानेश्वर क्षेत्र 2200-2800 ई.पू. की परिपक्व हड़प्पा संस्कृति के रूप में देखा जाता है। मुख्य रूप से ज्ञानेश्वर क्षेत्र ने हड़प्पा के लिए तांबे की वस्तुओं की आपूर्ति की किंतु उससे कुछ प्राप्ति नहीं हुई। ज्ञानेश्वर क्षेत्र के लोग आंशिक रूप से कृषि और बड़े पैमाने पर शिकार पर आश्रित थे। उनका प्रमुख शिल्पकार्य तांबा वस्तुओं का निर्माण था हालांकि हड़प्पा अर्थव्यवस्था के समान शहरी विकास नहीं कर पाए। ज्ञानेश्वर क्षेत्र इसलिए क्षेत्रतः ओसीपी एवं ताम्र संस्कृति के रूप में नहीं माना जा सकता। अतः ज्ञानेश्वर क्षेत्र को पत्थर के औजार आदि के उपयोग के कारण ज्यादा परिपक्व हड़प्पा संस्कृति के निर्माण में योगदान देने वाली एक ताम्रपाषाण संस्कृति के रूप में माना जा सकता है।
कालक्रमानुसार भारत में ताम्रपाषाण बस्तियों की कई श्रृंखला रही हैं। कुछ हड़प्पा के पूर्व की हैं, व कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं, और अन्य हड़प्पा के पश्चात् की हैं। हड़प्पा क्षेत्र के कुछ स्थानों को परिपक्व शहरी सिंधु सभ्यता से अलग करने के क्रम में पूर्वकालीन हड़प्पा कहा जाता है। इसी प्रकार, हरियाणा के बनावली और राजस्थान के कालीबंगन क्षेत्र को पूर्व हड़प्पा का ताम्रपाषाण चरण कहेंगे। ऐसा ही पाकिस्तान के सिंध के कोटदीजी भी कहेंगे। एक कनिष्ठ समकालीन कायथा संस्कृति (1880-2000 ई.पू.) की है, और यह मिट्टी के बर्तन बनाते थे। यह पूर्व हड़प्पा प्रभाव को दर्शाता है व सभी क्षेत्र हड़प्पा शहरी संस्कृतियों के विकास से प्रभावित थे।
कई अन्य ताम्रपाषाण संस्कृतियां, जो परिपक्व हड़प्पा संस्कृति से अल्पावस्था की तो थीं, किंतु वे सिंधु सभ्यता के साथ नहीं जुडी थीं। नावदाटोली, ब्रान और नागदा में मालवा संस्कृति (1700-1200 ई.पू.) पाई गई, जिसे गैर हड़प्पा माना जाता है। वहीं विदर्भ और कोंकण के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे महाराष्ट्र मे जोरवे संस्कृति (1400-700 ई.पू.) की पाई गई। देश के दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों में ताम्रपाषाण संस्कृतियां बस्तियों स्वतंत्र रूप से हड़प्पा संस्कृति से अलग में विद्यमान थीं। दक्षिण भारत में वे नवपाषाण बस्तियों की निरंतरता में सदा ही पाई जाती हैं। विंध्य क्षेत्र, बिहार और पश्चिम बंगाल की ताम्रपाषाण संस्कृतियां भी हड़प्पा संस्कृति से संबंधित नहीं हैं।
पूर्व हड़प्पा ताम्रपाषाण संस्कृतियों के विभिन्न प्रकारों से सिंध, बलूचिस्तान, राजस्थान में कृषि के समुदायों के प्रसार को बढ़ावा मिला और हड़प्पा की शहरी सभ्यता के उदय के लिए स्थितियां पैदा हुईं। इसमें राजस्थान के ज्ञानेश्वर, कालीबंगा एवं सिंध के आमरी व कोटदीजी शामिल हैं। कुछ ताम्रपाषाण कृषि संस्कृतियों के कृषि समुदायों ने सिंधु घाटी के बाढ़ इलाकों में जाकर बस्तियां बनाईं व कांस्य तकनीक सीखी। वे वहां शहर बनाने में सफल रहे।
मध्य और पश्चिमी भारत के सभी ताम्रपाषाण संस्कृतियों में केवल जोरवे संस्कृति 700 ईसा पूर्व तक जारी रही। हालांकि देश के कई हिस्सों मे ताम्रपाषाण संस्कृतियों के काले और लाल रंग के बर्तनों का उपयोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक ऐतिहासिक समय में भी जारी रहा, लेकिन कुल मिलाकर लगभग 4-6 शताब्दियों का अंतर मध्य और पश्चिमी भारत के कायथा, प्रभास, प्रकाश, नासिक व में उपजे पूर्व एतिहासिक युग एवं ताम्रपाषाण युग में दिखाई देता है। ताम्रपाषाण बस्तियों के विनाश 1200 ई.पू. में शुरू हुई वर्षा में गिरावट की वज़ह से हुआ। वास्तव में ताम्रपाषाण युग के लोगों का जीवन शुष्क मौसम में काली मिट्टी क्षेत्र में लंबे समय के लिए खुदाई व कृषि द्वारा जारी नहीं रह सका। लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में, विशेष रूप से पूर्वी भारत में, ताम्रपाषाण युग चरण तुरंत लौह चरण में परिवर्तित हो गया, जो धीरे-धीरे संपूर्ण कृषि में तब्दील हो गया। इसी तरह दक्षिण भारत में ताम्रपाषाण युग कई स्थलों पर लोहे के उपयोग से पाषाण संस्कृति में तब्दील हो गया था।
3.2 ताम्रपाषाण युग का महत्व
जलोढ़ मैदानों और घने वनाच्छादित क्षेत्रों को छोड़कर, ताम्रपाषाण युग संस्कृतियों के निशानां की लगभग पूरे देश में खोज की गई है। इस चरण में लोग नदी तट पर ज्यादातर स्थापित थे। ये ग्रामीण बस्तियां पहाड़ीयां से भी ज्यादा दूर नहीं थीं। जैसा कि पहले कहा, ये तांबे के कुछ उपकरणों एवं अन्य पत्थर के औजार का इस्तेमाल करते थे। उनमें से ज्यादातर तांबा गलाने की कला भी जानते थे, ऐसा लगता है। लगभग सभी ताम्रपाषाण युग के समुदाय पहिये पर लाल काले और बर्तन बनाने की कला जानते थे। उनके विकास के पूर्व के कांस्य चरण को देखते हुए, ज्ञात होता है कि वे चित्रित मिट्टी के बर्तनों का उपयोग खाना पकाने, खाने, पीने और भंडारण के लिए करते थे। वे लोटा और थाली का भी इस्तेमाल करते थे। दक्षिण भारत में, नवपाषाण चरण ताम्रपाषाण चरण में मिल गया और इसलिए इन संस्कृतियों को नवपाषाण-ताम्रपाषाण कहा जाता है। पश्चिमी महाराष्ट्र और राजस्थान के अन्य भागों में ताम्रपाषाण लोगां को उपनिवेशवादि देखा गया है। मालवा और मध्य भारत के कायथा और एरण में इसका प्रभाव दिखाई देता है। पश्चिमी महाराष्ट्र में यह बाद में दिखाई दिया व पश्चिम बंगाल में काफी बाद में उभरा।
ताम्रपाषाण युग समुदायों द्वारा प्रायद्वीपीय भारत में पहली बार बड़े गांवों की स्थापना की गई। नवपाषाण समुदायों के मुकाबले ताम्रपाषाण युग के लोगां ने कहीं अधिक अनाज की खेती की। विशेष रूप से वे जौ, गेहूं और मसूर की पश्चिमी भारत में, व दक्षिणी भारत और पूर्वी भारत में चावल की खेती करते थे।
उनके खाद्यान्न की पूर्ति मांसाहार से की जाती थी। पश्चिमी भारत में मांसाहारी भोजन की अधिकता है, जबकि मछली और चावल पूर्वी भारत के आहार का महत्वपूर्ण तत्व है। संरचनाओं के गठन के अधिक अवशेष पश्चिमी महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में पाए गए हैं। मध्य प्रदेश में कायथा और एरण में, तथा पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगाँव की बस्तियां गढ़-रूपी थीं। दूसरी ओर, पूर्वी भारत में चिरंद और पांडु रजर दलिबी में घरां की संरचनाओं के अवशेष कमजोर हैं, जो छेदवाले और गोल घरां का संकेत हैं। वे लोग गरीब थे। दफनाने की प्रथाएं भी अलग थीं। महाराष्ट्र में मृतकों को उत्तर-दक्षिण स्थिति में रखा गया था। लेकिन दक्षिण भारत में पूर्व-पश्चिम की स्थिति में। लगभग पूर्ण विस्तारित दफन प्रक्रिया पश्चिमी भारत में प्रचलित थी, लेकिन आंशिक दफन पूर्वी भारत में प्रबल था।
3.3 ताम्रपाषाण संस्कृतियों की सीमाएं
ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग भेड़ व बकरी पालन तक सीमित थे। शायद वे पालतू जानवरों की भोजन के लिए बलि देते थे, पर पेय और डेयरी उत्पादों के लिए उनका उपयोग नहीं करते थे। ऐसे ही बस्तर की गोंड जनजाति में आदिवासी दूध का सेवन नही करते हैं, क्योंकि उनका सोचना है कि दूध पशुओं के बच्चां को पिलाने के लिए है। इसलिए ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग जानवरों का पूरा उपयोग नहीं कर पाते थे। इसके अलावा, मध्य और पश्चिमी भारत के काली कपास मिट्टी क्षेत्र में रहने वाले ताम्रपाषाण संस्कृति के लोगों द्वारा गहन या व्यापक पैमाने पर खेती का अभ्यास नहीं किया गया। न हल, ना ही कुदाल के चिन्हों को ताम्रपाषाण स्थलों पर पाया गया। केवल छिद्रित पाषाण डिस्क पाए गए जिनका खेती में इस्तेमाल किया जा सकता था, जो खुदाई बोवनी में काम आते थे। काली मिट्टी पर गहन या व्यापक खेती का ताम्रपाषाण संस्कृति में कोई स्थान नहीं था क्योंकि इसमें लोहे के औजार के उपयोग की आवश्यकता थी। वहीं पूर्वी भारत के लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में रहने वाले ताम्रपाषाण संस्कृति के लोगां को भी इसी कठिनाई का सामना करना पड़ा।
ताम्रपाषाण संस्कृति की कमजोरी, पश्चिमी महाराष्ट्र में बच्चों के मृत शरीरों का एक बड़ी संख्या में गड़े पाये जाने से स्पष्ट है। खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था के बावजूद तब शिशु मृत्यु की दर बहुत अधिक थी। यहां पोषण की कमी, चिकित्सा ज्ञान का अभाव या महामारी के फैलने को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ताम्रपाषाण संस्कृतियों की सामाजिक और आर्थिक दर ने दीर्घायु को बढ़ावा नहीं दिया था।
ताम्रपाषाण संस्कृति प्रमुख रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि की थी। इसके प्रथम चरण के दौरान तांबे की आपूर्ति सीमित थी और एक धातु के रूप में, तांबे की अपनी सीमाएं थीं। स्वयं तांबा कठोर पदार्थ-नहीं होता। तांबे के साथ लोहे के मिश्रण और इस तरह पीतल का निर्माण करना वे नहीं जानते थे। जिसने मिस्र और मेसोपोटामिया में, और सिंधु घाटी में प्रथम सभ्यताओं के उत्थान में मदद की।
ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग लिखने की कला नहीं जानते थे और न ही कांस्य युग के लोगों की तरह वे शहरों में रहते थे। हम भारतीय उपमहाद्वीप के सिंधु क्षेत्र में सभ्यता के इन सभी तत्वों को प्रथम बार देख सकते हैं। देश के बड़े हिस्से मे मौजूद ताम्रपाषाण संस्कृतियां जो सिंधु घाटी सभ्यता से बाद की थीं, वे सिंधु लोगों के उन्नत तकनीकी ज्ञान से किसी भी तरह पर्याप्त लाभ प्राप्त नहीं कर पाईं।
3.4 ताम्र कृतियां और गेरूवर्णी पात्र का चरण
अंगूठियां, तलवारें और मानव की तरह आकृतियां आदि ऐसी कुल चालीस से अधिक तांबे की कृतियों के भंड़ार पश्चिम बंगाल और उड़ीसा से लेकर पूर्वी गुजरात और हरियाणा, एवं आंध्र से लेकर उत्तर प्रदेश के व्यापक क्षेत्रों में पाये गये हैं। सबसे ज्यादा ताम्र अवशेष मध्य प्रदेश के गंगेरिया मे पाए गए। यहां 424 तांबा उपकरणों, हथियारों और चांदी की वस्तुओं में 102 पतली शीट शामिल हैं। लेकिन तांबा की लगभग आधे भंड़ार सामग्री गंगा यमुना तट में केंद्रित रहे है। अन्य क्षेत्रों में हम तांबे के एंटीने, तलवारें और मानवरूपी आंकृतिया पाते हैं, जो न केवल मछली पकड़ने, शिकार और लड़ाई के लिए बल्कि कृषि उपयोग के लिए भी बनाए गए थे। उनमें अच्छा तकनीकी कौशल और ज्ञान लगाया जाता है। ऐसा अंदेशा है कि ये लोग खानाबदोश नहीं हो सकते। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो स्थानों पर खुदाई में इन वस्तुओं में से कुछ गेरूवर्णी पात्र और कुछ मिट्टी की संरचनाओं की खोज की गई है। एक स्थान पर पक्की ईंट के टुकड़े, व पत्थर के औजार भी खुदाई में पाए गए हैं। यह सब उन लोगों के खुशहाल जीवन का वर्णन करते हैं। ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग किसान और कारीगर हुआ करते थे, ऐसा पता चलता है। अधिकांश गेरूवर्णी पात्र ऊपरी भाग में पाए गए लेकिन तांबे की कृतियां बिहार के पठार क्षेत्रों और अन्य क्षेत्रों में पाई जाती हैं। कई तांबे की कृतियां राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र में पाई गई हैं।
गेरूवर्णी पात्र वाली संस्कृति की अवधि को मोटे तौर पर 2000 ईसा पूर्व से 1500 ई.पू. के बीच रखा जा सकता है, जो अष्ट वैज्ञानिक गणना के आधार पर है। खाड़ी का अध्ययन गेरूवर्णी बस्तियों के बारे में 1000 ई.पू. तक ही बता पाता है क्योंकि इसके बाद ये बस्तीयां थी या नही इसका अनुमान नही हैं। हम काले और लाल रंग के मृदभांड का उपयोग करने वाले लोगों के पुरावशेषों से उनके सांस्कृतिक उपकरणों की एक स्पष्ट और विशिष्ट विचार के रूप में पहचान नहीं कर सकते हैं। राजस्थान और हरियाणा की सीमा पर 1.1 मीटर की मात्रा मे ओसीपी की परत जमा मिली है। वे एक बहुत विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए थे तथा पिछले एक या दो सदी से भी अधिक के लिए इन बस्तियों का वहां रहवास रहा हालांकि ये बस्तियां कब स्थपित हुई व इन बस्तियों का अंत क्यों हो गया, यह स्पष्ट नहीं है। एक सुझाव यह रहा कि एक व्यापक क्षेत्र में पानी के प्रवेश द्वारा सैलाब की स्थिति निर्मित होने से मानव बस्तियों का विनाश हो गया होगा। गेरूवर्णी मृदभांड वर्तमान मुलायम बनावट, कुछ विद्वानों के अनुसार काफी अवधि के लिए पानी में रहने के परिणामस्वरूप है। ओसीपी के बर्तन उपयोग करने वाले लोग हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थे, जहां गेरूवर्णी पात्र वाले क्षेत्र में व हड़प्पा सभ्यता के मघ्य शायद ओसीपी और पीतल की सामग्रियां का वस्तु-विनिमय हुआ करता होगा।
4.0 मानव क्रम-विकास के सिद्धांत
पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों ने आधुनिक मानव की उत्पत्ति की व्याख्या करने के लिए 3 मुख्य मॉडल बनाए, जिनमें बाह्य अफ्रीकी मॉडल, आत्मसात मॉडल और बहुक्षेत्रीय मॉडल हैं। जीवाश्म, पुरातात्विक और आनुवंशिक सबूत, इस सदी की शुरुआत से ही नव अफ्रीकी मूल मॉडल को प्रमुखता देने की ओर इंगित करता है।
नव अफ्रीकी मूल मॉडलः वैज्ञानिक पत्रिका नेचर मे डीएनए और मानव विकास पर एक लेख 1987 मे प्रकाशित हुआ, जिसने मानव विकास में सूत्रकणिका के महत्व की ओर स्पष्ट इशारा कर दुनिया को हिलाकर रख दिया। यह हमारे जीनां के समूह का हिस्सा है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि यह सुत्रकणिका 200.000 वर्ष पूर्व एक अफ्रीकी पूर्वज से व्युत्पन्न, केवल मां और बेटियों के माध्यम से विरासत में मिला है। इस महिला पूर्वज को सुत्रकणिका ईव के रूप में जाना जाता है।
प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के मानव मूल के विशेषज्ञ क्रिस स्ट्रिंगर और दूसरे वैज्ञानिकों ने भी हम तत्कालीन अफ्रीकी मूल थे इन विचारों का समर्थन किया। अगले दशक में, तत्कालीन मानव से और नवपाषाण जीवाश्मों, दोनों से आनुवंशिक आंकडे एकत्र किये गये जो तत्कालीन अफ्रीकी मूल मॉडल का समर्थन करते हैं। आधुनिक मनुष्य ने 60,000 साल पहले अफ्रीका छोड़ना शुरू किया और पूरी तरह से महाद्वीप के बाहर, बस गया। यहां अन्य पुरातन मानव प्रजाति के भी प्रमाण हैं।
बहुक्षेत्रीय मॉडलः बहुक्षेत्रीय मॉडल में मानव श्रृंखला को संकरण द्वारा एक साथ अफ्रीका, यूरोप, एशिया और आस्ट्रेलिया के प्रत्येक बसे हुए क्षेत्र में विकास के समानांतर रखा।
मानव जाति में विशिष्ट ठोड़ी और ऊंचे मस्तक वाले आधुनिक मानव (होमो सेपियंस) खोपड़ी पुनर्निर्माणः इस मॉडल के तहत, होमो सेपियंस के आधुनिक रूप के लिए कोई वास्तविक उत्पत्ति प्रतीत नहीं होती, किंतु ठोड़ी और हमारे उच्च माथे की बनावट अफ्रीका क्षेत्र में संकरण के माध्यम से फैला है।
आत्मसात मॉडलः आत्मसात मॉडल वैज्ञानिकों के एक अन्य समूह का एक तीसरा सिद्धांत है। तत्कालीन अफ्रीकी मूल मॉडल की तरह इसमें अफ्रीका आधुनिक मानव की विशेषताएं व विकास की महत्वपूर्ण भूमिका दी गई हैं, लेकिन यहा क्रमिक प्रसार की कल्पना की गई। इस दृश्य के तहत, नवपाषाण और उनके जैसे पुरातन लोग बड़े पैमाने पर संकरण के माध्यम से आत्मसात कर रहे थे। इस आधुनिक मानव की स्थापना तेजी से बदलने के माध्यम के बजाय आबादी के सम्मिश्रण के माध्यम से हुई थी।
डीएनए साक्ष्य से नई अंतर्दृष्टिः डीएनए साक्ष्य से नई अंतर्दृष्टि हाल ही के वर्षों में मिली है। प्राचीन डीएनए की प्राप्ति और विश्लेषण के लिए तकनीक में अग्रिम क्रांति ने हमारे मानव विकासवादी वंश-वृक्ष के बारे में नए रहस्यों को खोला है। विशेष रूप से इन दो अध्ययनों ने हमारी प्रजाति के विकास के बारे में हमारी सोच को काफी प्रभावित किया है।
निअंडरथल जीनां का समूहः 2010 में, कई नवपाषाण जीवाश्मों की आनुवंशिकी के बारे में 60 प्रतिशत तक प्रथम बार पता चला था और हमें अपनी प्रजाति के विकास में आश्चर्यजनक अंतर्दृष्टि मिलना शुरू हुई। नवपाषाण जीनों के समूह की जब अलग महाद्वीपों के आधुनिक मानवां के साथ तुलना की गई, तो उनमें यूरोप, एशिया और न्यू गिनी से आधुनिक आबादी की आनुवंशिक साझेदारी वर्तमान अफ्रीकियों के मुकाबले अधिक पाई गई।
इसका सबसे बेहतर विशलेषण यह होगा कि थोड़े से निअंडरथल लोगों ने आज के यूरोपीय, एशियाई और न्यूगिनी के लोगों के पूर्वजों के साथ विवाह/मिलन किया होगा, 60,000 वर्ष पूर्व जब उन्होंने अफ्रीका छोड़ा ही होगा। साईबेरिया की डेनीसोवा गुफा से मिले जीवाश्म दाढ़ दांत से निकाले गये डी.एन.ए. से वर्तमान मानव समूहों के साथ उनके संबंधों का पता चलता है।
उसी वर्ष, एक जीवाश्म उंगली और जीवाश्म दाढ़ दांत साईबेरिया के डेनीसोवा गुफा में पाये गये थे, जीनों के आकड़ों ने यह बताया कि वे एक भूतपूर्व रूप से गैर पहचानी गई निअंडरथल रेखा का प्रतिनिधित्व करते थे जो एशिया से निकली थी। किन्तु, आंकड़ों ने कुछ आर्श्यजनक चीज भी दिखाई। उन्होंने बताया कि आज के दक्षिण-पूर्वी एशिया के मेलानेशीय लोग डेनीसोवन से संबंधित है, क्योंकि उनका अनुवांशिक कोड 5 प्रतिशत तक मिलता-जुलता है, और यही खोज हम ऑस्ट्रेलिया में पाये जाने वाले मूल निवासियों पर भी लागू कर सकते हैं। यह सब मिलकर प्रजातियों के अन्तर्मिलन के स्पष्ट सबूत पेश करते है। निअंडरथल और डेनीसोवा के अनुवांशिक अध्ययनों ने हमारे प्राचीन अस्तित्व को एक रोमांचक मोड़ दे दिया है। दोनों से ही यह पता चलता है कि आधुनिक मानवों ने अन्य मानवीय प्रजातियों को पूरी तरह से हटा दिया, ऐसा नही है। दरअसल कुछ हद तक अन्तर्मिलन रहा। इसी मॉडल को अब प्रतिस्थापन संकरण के रूप में जाना जाता है या 'mostly out of Africa' के रूप में भी जाना जाता है।
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