यूपीएससी तैयारी - भारत में प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण मुद्दे - व्याख्यान - 5

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पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन

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1.0 प्रस्तावना

तेज गति के औद्योगीकरण और इसके परिणामस्वरूप निर्मित होने वाली संबंधित समस्याओं के लिए परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों के मूल्यांकन के लिए व्यवस्थित पद्धतियों की आवश्यकता है। यह आवश्यकता पिछले अनेक वर्षों से निर्मित हुई है। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन या ईआईए की शुरुआत 1970 के दशक में अमेरिका में इस कार्य की पूर्ति के लिए की गई थी। उस समय के बाद से ईआईए समूचे विश्व में प्रसारित हुई है और इसके लिए पद्धति का विकास किया गया है और उसे उद्यमों और समाज के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न उद्देश्यों का निर्णय करने के लिए के लिए अपनाया भी गया है। 

समय गुजरने के साथ ईआईए का अनुप्रयोग विभिन्न आकृति, आकारों और पैमानों की परियोजनाओं और योजनाओं के लिए किया गया है। इसका उपयोग न केवल स्थानीय परियोजनाओं और विकास के लिए किया गया है, बल्कि क्षेत्रीय, और यहां तक कि वैश्विक समस्याओं के संबंध में भी किया गया है। 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रबंधन उद्यमों में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया था। इस संबंध में पर्यावरणीय समस्याओं के कारणों की पहचान करने के लिए तकनीकी व्यवस्थाओं में व्यवस्थित साधनों और विश्लेषक पद्धतियों की आवश्यकता बढ़ गई है, और इसीलिए ईआईए का उपयोग भी बढ़ गया है। इसका मूल उद्देश्य यह है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हम जो कार्य कर रहे हैं उसके कारण जिस पर्यावरण में हम रह रहे हैं उसका विनाश नहीं होने पाये। 

पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन प्रस्तावित परियोजनाओं के संभावित पर्यावरणीय सामाजिक और आर्थिक पहलुओं के प्रभावों का मूल्यांकन है। ईआईए पद्धति का उपयोग किसी भी महत्वपूर्ण परियोजना या गतिविधि की शुरुआत करने से पहले यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाना चाहिए कि प्रस्तावित परियोजना या गतिविधि किसी भी प्रकार से पर्यावरण को अल्पकालिक या दीर्घकालीन हानि नहीं पहुंचाएगी। किसी भी विकासात्मक कार्य के लिए न केवल ऐसी परियोजना की आवश्यकता, इसमें शामिल वित्तीय लागतों और लाभों के विश्लेषण की आवश्यकता होती है बल्कि अधिक महत्वपूर्ण रूप से इसके लिए प्रस्तावित विकास के पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों के विस्तृत मूल्यांकन की भी आवश्यकता होती है। 

मूल्यांकन का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि परियोजना का निर्णय लेने वाले निर्णयकर्ता निर्णय लेते समय प्रस्तावित परियोजना से होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का भी विचार करें। अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव मूल्यांकन संगठन पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (environmental impact assessment) को निम्नानुसार परिभाषित करता हैः ‘‘महत्वपूर्ण निर्णय लेने या प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने से पहले विकास प्रस्तावों के प्रासंगिक जैवभौतिक, सामाजिक और अन्य प्रभावों की पहचान आकलन, मूल्यांकन और शमन की प्रक्रिया।‘‘

किसी देश का आर्थिक विकास उस देश की उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की कुशलता पर निर्भर होता है। कई बार देश को आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच से एक को चुनना पड़ता है, जो एक दूसरे के विरोधी हैं। भारत में, यह चयन हमेशा काफी कठिन रहा है। भारत में अनेक परियोजनाएं केवल पर्यावरणीय चिंताओं के कारण शुरू नहीं की जा सकी हैं। असम का पोक्सो अनुभव और गोवा में खनन पर प्रतिबंध इसके उदाहरण हैं। भारत में पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के कार्य की शुरुआत 1987-79 में नदी घाटी परियोजनाओं के किये गए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन से हुई। उस समय के बाद से से इसकी व्याप्ति को बढ़ा कर इसमें पनबिज़ली परियोजनाओं, खनन परियोजनाओं इत्यादि जैसे अन्य उद्योगों को भी शामिल किया गया है। इसके लिए दिशानिर्देश विकसित किये गए हैं जिन्हें विभिन्न राज्यों और केंद्रीय सरकार के विभिन्न विभागों में परिचालित किया गया है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत 50 करोड़ से अधिक निवेश वाली 29 श्रेणियों की विकास गतिविधियों के लिए ईआईए को अनिवार्य बनाया गया है। इस कार्य के लिए प्रमुख अभिकरण पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को बनाया गया है।


2.0 पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन के उद्देश्य और पद्धतियाँ 

पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन में पद्धति का चयन और अध्ययन की व्याप्ति प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों से प्रभावित होती है। उद्देश्य इस बात पर निर्भर होता है कि उपयोग करने वाला कौन है, साथ ही परिणाम का उपयोग क्या है। इसके कुछ उद्देश्य निम्नानुसार हैंः

परियोजना विकासः परियोजना विकास में ईआईए के उपयोग को इस रूप में समझा जा सकता है कि परियोजना के जहां तक संभव हो प्रारंभिक चरणों में ही पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन का उपयोग करना ताकि इससे होने वाले संभावित पर्यावरणीय प्रभावों से बचा जा सके। यह इन प्रभावों से बढ़ने वाली लागतों से बचने का भी एक उपाय है। इसका उपयोग विभिन्न परियोजनाओं के लिए किया जा सकता है, उदाहरणार्थ औद्योगिक संयंत्रों का निर्माण, सड़कों का निर्माण, नगरपालिका अपशिष्ट या जल शुद्धिकरण संयंत्रों का निर्माण इत्यादि। उपयोगकर्ताओं को कंपनी के निर्णयकर्ताओं में पाया जा सकता है, और निष्पादनकर्ता आमतौर पर परियोजना टीम या सलाहकार होते हैं। 

विकास नियंत्रण (अनुज्ञप्ति, अनुज्ञा पत्र इत्यादि): यहां ईआईए प्राधिकारियों के लिए उपरोल्लिखित परियोजनाओं के पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने का एक उपकरण बन सकता है। इस प्रकार के ईआईए की शुरुआत राष्ट्रीय कानून में भी की गई है। निष्पादनकर्ता प्राधिकरण हो सकता है परंतु यह निष्पादन करने वाली कंपनी का भी कार्य हो सकता है। यहां इस कार्य में सलाहकारों का भी उपयोग किया जा सकता है। 

योजना विकासः यह ईआईए संसाधनों या भूमि उपयोग, सड़कों, रेलवे इत्यादि जैसी अधोसंरचनाओं का नियोजन करने वाले प्राधिकारियों के लिए एक हथियार बन सकता है। इस प्रकार के ईआईए को आमतौर पर रणनीतिक पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन कहा जाता है। यदि योग्यता उपलब्ध है तो प्राधिकरण निष्पादन करने वाला हो सकता है, अन्यथा सलाहकारों का उपयोग किया जाता है। 

नीति विकासः ईआईए का एक अन्य उपयोग नीति विकास में भी होता है जहां किसी नीति के परिणामों का मूल्यांकन सरकार द्वारा किया जा। उदाहरण के रूप में सरकार किसी विशिष्ट प्रकार के उद्योग (वन उद्योग या सूचना प्रौद्योगिकी) को एक प्रमुख मूलभूत उद्योग के रूप में प्रोत्साहित करने के परिणामों का मूल्यांकन कर सकती है। यहां भी कार्य आतंरिक दृष्टि से भी किया जा सकता है या सलाहकारों द्वारा भी कराया जा सकता है। 

मॉर्गन द्वारा ईआईए के उद्देश्यों को निम्न प्रकार से वर्णित किया गया हैः (मॉर्गन 1998)

  1. इसका मूलभूत उद्देश्य है प्रस्तावित गतिविधियों के महत्वपूर्ण संभाव्य प्रभावों का प्राकृतिक व्यवस्थाओं (जल, मृदा, वायु, जैविक व्यवस्थाओं) पर, मानवजनित व्यवस्थाओं (बस्तियों और अधोसंरचना) पर, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं (काम, शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य सेवाओं) पर और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं (विश्वासों, कला, साहित्य) पर पूर्व आकलन करना
  2. प्रक्रिया को राष्ट्रीय और स्थानीय नीति संदर्भ में गठित कानूनी या नौकरशाही रूपरेखा द्वारा मंजूरी प्रदान की जाती है। ये नीतियां एक दिए गए देश में या दिए गए परिदृश्य में ईआईए प्रक्रिया के चरित्र दिशा को प्रभावित करती हैं। 

ईआईए यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती है कि सम्भाव्य प्रभावों की पहचान की जाए और परियोजनाओं के नियोजन और रचना के प्रारंभिक चरण के दौरान ही उनका निवारण किया जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मूल्यांकन के निष्कर्ष ऐसे सभी संबंधित समूहों को सूचित किये जाते हैं जो प्रस्तावित परियोजनाओं के विषय में निर्णय करने वाले हैं, साथ ही इन निष्कर्षों की सूचना परियोजना का विकास करने वालों, और उनके निवेशकों के साथ-साथ नियामकों, योजनाकारों और राजनीतिज्ञों को भी प्रदान की जाती है। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के परिणामों को समझने के बाद परियोजना के नियोजनकर्ता और अभियंता परियोजना का आकार इस प्रकार परिवर्तित कर सकते हैं ताकि पर्यावरण को किसी भी प्रकार से प्रतिकूल प्रभावित किये बिना इसके लाभ प्राप्त किये जा सकें। 

सामान्य और उद्योग विशिष्ट मूल्यांकन पद्धतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें निम्न पद्धतियाँ शामिल हैंः

औद्योगिक उत्पादः औद्योगिक उत्पादों के पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों की पहचान करने के लिए और इन्हें नापने के लिए उत्पाद पर्यावरण जीवन चक्र विश्लेषण का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के ईआईए उन गतिविधियों का विचार करते हैं जो कच्चे माल, सहयोगी सामग्री और उपकरणों के उत्खनन; उत्पादन, उपयोग, और निपटान से संबंधित हैं 

आनुवांशिक रूप से परिष्कृत पौधेः आनुवांशिक रूप से परिष्कृत पौधों के ईआईए के निष्पादन के लिए विशिष्ट पद्धतियाँ उपलब्ध हैं जिनमें जी एम पी-आर ए एम और इनोवा शामिल हैं 

अस्पष्ट तर्कः प्रभाव संकेतकों के मूल्यों के आकलन के लिए ईआईए पद्धतियों को मापन आंकड़ों की आवश्यकता होती है। हालांकि अनेक पर्यावरण प्रभावों को संख्यात्मक रूप से प्रदर्शित नहीं किया जा सकता, उदाहरणार्थ परिदृश्य की गुणवत्ता, जीवन शैली की गुणवत्ता और सामाजिक स्वीकार्यता। इसके बजाय इसी प्रकार की ईआईए जानकारी, विशेषज्ञ राय और सामुदायिक संवेदनाओं का उपयोग किया जाता है। इसके लिए अस्पष्ट तर्क नामक अनुमानित तर्क पद्धतियों का उपयोग किया जा सकता है।


3.0 भारत में ईआईए का विकास

1992 में रियो डी जनेरियो में हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन की भूमिका और महत्त्व को औपचारिक रूप से पहचाना गया। रियो डी जनेरियो शिखर सम्मेलन का सिद्धांत 17 कहता है कि 

‘‘एक राष्ट्रीय साधन के रूप में ईआईए का उपयोग पर्यावरण पर अपेक्षाकृत अधिक प्रतिकूल प्रभाव करने वाली सभी संभावित गतिविधियों के लिए किया जायेगा, और इन पर निर्णय का निर्धारण एक सुयोग्य राष्ट्रीय प्राधिकरण द्वारा किया जायेगा।‘‘

1980 के दशक तक भारत की अनेक परियोजनाएं पर्यावरणीय चिंताओं के किसी भी प्रकार के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन के बिना शुरू की गई थीं। पर्यावरणीय मुद्दों पर तब ध्यान दिया जाने लगा जब चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-1978) के दौरान पर्यावरणीय नियोजन एवं समन्वय समिति का गठन किया गया। 1980 तक पर्यावरण और वनों के मुद्दे क्रमशः विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग और कृषि मंत्रालय के विषय थे। 1980 में पर्यावरण विभाग का गठन किया गया था, जिसका 1985 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के रूप में उन्नयन किया गया। 

1980 में यह अनिवार्य किया गया कि विशाल परियोजनाओं की मंजूरी पर्यावरणीय दृष्टि से प्राप्त की जाए। यह एक प्रशासनिक अनिवार्यता बन गई, और वित्तीय मंजूरी प्रदान करने से पहले योजना आयोग और केंद्रीय निवेश बोर्ड़ इसके प्रमाणपत्र की मांग करने लगे। 

1985 में भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन विभाग ने नदी घाटी परियोजनाओं के पर्यावरणीय मूल्यांकन के लिए दिशानिर्देश जारी किये। इन दिशानिर्देशों के लिए जलमग्न क्षेत्रों में वनों और वन्यजीवों, जल जमाव की संभावना, ऊर्ध्वप्रवाह और अनुप्रवाह के जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों और मत्स्यपालन क्षेत्रों, जल जनित रोगों, जलवायु परिवर्तनों और भूकंपों की आवृत्ति के प्रभावों जैसे विभिन्न अध्ययनों की आवश्यकता थी। 

पर्यावरणीय मंजूरी के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण कानूनी उपाय 1994 में किया गया जब पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुच्छेद 3 और नियम 5 के तहत एक विशिष्ट अधिसूचना जारी की गई, जिसका नाम था ‘‘पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना 1994‘‘।

विकास परियोजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त करने का पहला चरण यह निर्धारण करना है कि उस विशिष्ट परियोजना के लिए कौन सा सांविधिक कानून लागू हो रहा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने विशिष्ट पारिस्थितिकी दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में औद्योगिक विकास को प्रतिबंधित करने के लिए अनेक अधिसूचनाएं जारी की हैं। इसीके साथ उद्योगों की स्थापना के लिए अनेक मसौदा नियमों की रूप रेखा भी निर्मित की गई है। 

परियोजना की विशेषताओं से संबंधित कुछ मानदंड़ों के आधार पर पर्यावरणीय मंजूरी या तो राज्य स्तर पर प्राप्त की जा सकती है या केंद्रीय स्तर पर प्राप्त की जा सकती है। हालांकि (चाहे जिस स्तर पर भी पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त की गई हो), अधिकांश परियोजनाओं के लिए सबसे पहले राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या केंद्र शासित प्रदेशों के संदर्भ में प्रदूषण नियंत्रण समितियों से मंजूरी प्राप्त करना अनिवार्य होगा। 

4.0 ईआईए की प्रक्रिया 

किसी भी परियोजना का संपूर्ण ईआईए करने से पहले परियोजना पर अनुवीक्षण और प्राथमिक मूल्यांकन का अनुप्रयोग करना, ये दो प्रारंभिक चरण हैं। मूल्यांकन के पहले दो चरण एक नियामक अनिवार्यता है, और परियोजना का विकास करने वाली संस्था आमतौर पर यह कार्य करती है, अपने निष्कर्ष नियामक अभिकरण को प्रस्तुत करती है। फिर नियामक अभिकरण निर्णय करता है कि चिंता का कोई कारण नहीं है, या मूल्यांकन को अगले चरण के लिए जाने दिया जाए। 

ईआईए अधिसूचना के तहत पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त करने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण चरण है परियोजना प्रस्तावक द्वारा परियोजना का पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन करना। इस कार्य के लिए परियोजना प्रस्तावक ईआईए रिपोर्ट तैयार करने के लिए पर्यावरण सलाहकार की सेवाएं प्राप्त करता है। ईआईए रिपोर्ट वर्ष के सभी चारों मौसमों के आंकड़ों को शामिल करके तैयार की जानी चाहिए, परंतु यह कार्य मानसून के दौरान नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार की ईआईए रिपोर्ट को ‘‘त्वरित ईआईए‘‘ कहा जाता है।

4.1 अनुवीक्षण

अनुवीक्षण परियोजना मूल्यांकन का सबसे पहला और सबसे आसान चरण होता है। अनुवीक्षण के माध्यम से उन प्रकारों की परियोजनाओं के लिए मंजूरी प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होती है जिनके पिछले अनुभव से ऐसा प्रतीत होता है कि इनके कारण कोई महत्वपूर्ण पर्यावरणीय समस्याएं निर्माण नहीं होंगी। यह गतिविधि निम्न में से एक प्रकार से की जा सकती हैः

  1. आकार या स्थान जैसे सामान्य मानदंड़ों का उपयोग करके मापन। 
  2. प्रस्ताव की उन परियोजनाओं की सूची के साथ तुलना करना जिनके लिए ईआईए की आवश्यकता अभाव से ही होती है (उदाहरणार्थ विद्यालय), या जिनके लिए अनिवार्य रूप से ईआईए की आवश्यकता है (उदाहरणार्थ कोयला खदान)
  3. सामान्य प्रभावों का आकलन (उदाहरणार्थ अधोसंरचना में आवश्यक वृद्धि) और इन प्रभावों की निर्धारित मानकों के साथ तुलना करना। 
  4. जटिल विश्लेषण करना, परंतु उपलब्ध आंकड़ों का उपयोग करते हुए। 

इस प्रक्रिया की मुख्य चुनौतियां निम्नानुसार हैंः

  1. हालांकि सांविधिक मानदंड़ों के अनुसार कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठापनों के लिए ईआईए की आवश्यकता नहीं है, फिर भी उनमें कुछ ऐसी प्रौद्योगिकी प्रक्रियाएं शामिल हो सकती हैं जो पर्यावरण के लिए घातक हो सकती हैं, जिसके कारण ऐसे सूचीबद्ध उद्योगों के पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर संभाव्य प्रभाव हो सकते हैं। 
  2. विशिष्ट परियोजना के निवेश मूल्य के आधार पर उद्योगों को ईआईए की अनिवार्यता से छूट देना स्वीकार्य नहीं है। अभी तक ऐसे कोई विशिष्ट अध्ययन नहीं किये गए हैं जो यह दर्शाते हैं कि पर्यावरणीय प्रभाव हमेशा दिए गए मूल्य के तहत ही परियोजनाओं से असंगत होते हैं। यह एक स्थापित तथ्य है प्रमुख उद्योगों की तुलना में लघु उद्योग प्रदूषण की दिशा में अधिक योगदान प्रदान कर रहे हैं। 

 4.2 प्राथमिक मूल्यांकन 

यदि अनुवीक्षण किसी परियोजना को मंजूर नहीं करता, तो परियोजना प्रस्तावक एक प्राथमिक मूल्यांकन करवा सकता है। इसके लिए उपलब्ध आंकड़ों के पर्याप्त अनुसंधान और विशेषज्ञ परामर्श की आवश्यकता होती है ताकि पर्यावरण पर परियोजना के मुख्य प्रभावों की पहचान की जा सके, प्रभावों की क्षमता का पूर्वानुमान लगाया जा सके और निर्णयकर्ताओं के लिए संक्षेप में उनके महत्त्व का मूल्यांकन किया जा सके। प्राथमिक मूल्यांकन का उपयोग प्रारंभिक परियोजना नियोजन की सहायता के लिए किया जा सकता है (उदाहरणार्थ संभावित स्थानों पर चर्चा को संकुचित करने के लिए), और साथ ही परियोजना के कारण भविष्य में होने वाले गंभीर पर्यावरणीय प्रभावों की चेतावनी के लिए भी इसका उपयोग किया जा सकता है। यह परियोजना प्रस्तावक के हित में है की वह परियोजना का प्राथमिक मूल्यांकन करे, क्योंकि व्यवहार में यह कदम परियोजनाओं को संपूर्ण ईआईए की आवश्यकता से मुक्त कर सकता है। 

4.3 ईआईए टीम का गठन 

यदि प्राथमिक मूल्यांकन की समीक्षा करने के बाद सक्षम प्राधिकारी को लगता है कि संपूर्ण ईआईए आवश्यक है, तो परियोजना प्रस्तावक के लिए अगला कदम होता है ईआईए रिपोर्ट तैयार करना। इसके लिए आवश्यक है 

  1. एक स्वतंत्र समन्वयक और विशेषज्ञ अध्ययन दल का गठन करना और उसे परियोजना की संक्षिप्त रूपरेखा से अवगत कराना। 
  2. मुख्य निर्णायकों की पहचान करना जो प्रस्तावित परियोजना का नियोजन, वित्तपोषण, मंजूरी और नियंत्रण करेगा, ताकि श्रोताओं को ईआईए की विशेषताओं के लिए तैयार किया जा सके। 
  3. ऐसे कानूनों और विनियमों पर अनुसंधान करना जो इन निर्णयों को प्रभावित करेंगे। 
  4. विभिन्न निर्णायकों में से प्रत्येक के साथ संपर्क स्थापित करना। 
  5. यह निर्धारित करना कि ईआईए के निष्कर्षों को कब और कैसे सूचित करना है। 

इस प्रक्रिया में मुख्य चुनौती यह है, कि ऐसा देखा गया है कि ईआईए अध्ययन के लिए गठित किये दलों में विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता का अभाव होता है, जैसे मानव-विज्ञानियों और सामाजिक वैज्ञानिकों का (परियोजना के सामाजिक प्रभाव का अध्ययन करने के लिए), और यहां तक कि वन्यजीव विशेषज्ञों का भी अभाव होता है।

4.3.1 क्षेत्र निर्धारण 

ईआईए अध्ययन दल का पहला कार्य होता है ईआईए का क्षेत्र निर्धारण करना। क्षेत्र निर्धारण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि उनका अध्ययन निर्णायकों की दृष्टि से महत्वपूर्ण सभी मुद्दों पर विचार करे। सबसे पहले दल के दृष्टिकोण में चर्चाओं (परियोजना प्रस्तावकों के साथ, निर्णायकों के साथ, नियामक अभिकरण के साथ, वैज्ञानिक संस्थाओं के साथ, स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ और अन्य लोगों के साथ) के माध्यम से विस्तार  है, ताकि विभिन्न समूहों द्वारा उठाये गए सभी संभावित मुद्दों और चिंताओं को शामिल किया जा सके। फिर अध्ययन दल ईआईए का ध्यान केंद्रित करने के लिए प्राथमिक प्रभावों का चयन करता है जो निर्णायकों के लिए परिमाण, भौगोलिक क्षेत्र, या महत्त्व पर निर्भर हो सकता है या इसलिए, क्योंकि संबंधित क्षेत्र स्थानीय दृष्टि से विशेष है (उदाहरणार्थ मृदा अपक्षरण, क्षेत्र में किसी लुप्तप्राय प्रजाति की उपस्थिति है, या क्षेत्र किसी ऐतिहासिक स्थल के निकट है) या यह क्षेत्र पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है।

हालांकि क्षेत्र निर्धारण की प्रक्रिया को निम्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैः

  1. प्रभाव मूल्यांकन के लिए विस्तृत पारिस्थितिकी और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों का अभाव। 
  2. प्रारंभिक चरण में जनता की टिप्पणियों पर ध्यान नहीं दिया जाता, जिनके कारण बाद के चरणों में परियोजना मंजूरी में विवाद पैदा होते हैं। 

4.3.2 मुख्य ईआईए

क्षेत्र निर्धारण का कार्य पूर्ण होने के बाद ईआईए की वास्तविक प्रक्रिया शुरू होती है। ईआईए मुख्य रूप से निम्न प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करती हैः

  1. इस परियोजना के परिणामस्वरूप क्या होने वाला है?
  2. परिवर्तनों की व्याप्ति कितनी होगी?
  3. क्या ये परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं?
  4. उनके विषय में क्या किया जा सकता है?
  5. क्या किया जाना चाहिए यह निर्णायकों तक किस प्रकार पहुंचाया जाए? 

ईआईए उपरोक्त पहले चार प्रश्न एक के बाद एक, और उसके बाद फिर, इस प्रकार बार-बार पूछे जाने की एक चक्रीय प्रक्रिया बन जाती है, यह तब तक जारी रहता है जब तक आप निर्णायकों को व्यायहारिक समाधान नहीं प्रदान कर देते। 

4.3.3 चिन्हीकरण (Identification)  

चिन्हीकरण अध्ययन मुख्य रूप से परियोजना शुरू होने के बाद होने वाले परिवर्तनों को समझने पर केंद्रित होते हैं। यही एक प्राथमिक मूल्यांकन किया गया है, तो वह भी परियोजना प्रभावों की मोटे तौर पर ही समीक्षा कर पायेगा, साथ ही क्षेत्र निर्धारण ने दृष्टि से महत्वपूर्ण विषयों और मुद्दों पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया होगा। इन निष्कर्षों को ध्यान में रखते हुए संपूर्ण ईआईए अध्ययन अब औपचारिक रूप से उन प्रभावों को चिन्हित करता है जिनका विस्तृत मूल्यांकन करना आवश्यक है। अध्ययन के इस चिन्हीकरण चरण में निम्न चरण शामिल हैं 

  1. म्रमुख प्रभावों को सूचीबद्ध करना (उदाहरणार्थ हवा की गुणवत्ता, ध्वनि के स्तर, वन्यजीव प्राकृतिक वासों, प्रजाति विविधता, भूआकघ्ति परिदृश्य, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं, बस्ती पद्धतियों और इसी प्रकार की परियोजनाओं के ईआईए से होने वाले रोजगार स्तरों में होने वाले परिवर्तन)
  2. प्रश्नावलियों की जांचसूची का उपयोग करते हुए प्रभाव डालने वाले सभी स्रोतों के नाम बताना (उदाहरणार्थ धुआं उत्सर्जन, पानी का उपभोग, निर्माण रोजगार), उसके पश्चात विद्यमान पर्यावरण का सर्वेक्षण करके और संबंधित हितधारकों के साथ सलाह मशविरा करके पर्यावरण को होने वाली संभावित प्राप्तियों की सूची बनाना (उदाहरणार्थ फसलें, समुदायों द्वारा उसी पानी का पीने के लिए उपयोग करना, श्रमिकों का उत्प्रवासन) 
  3. जांच सूचियों, आव्यूह, संलालों, उपरिशायी, मॉडल्स और सतत अनुकरण के उपयोग के माध्यम से स्वयं प्रभावों को चिन्हित करना। 

इस चरण की प्रमुख बाधाओं में विश्वसनीय आकड़ों स्रोतों का अभाव, अप्रधान डेटा की अनुपलब्धता, स्थानीय लोगों के ज्ञान को नजरअंदाज करना शामिल है। ये कारक आंकडे एकत्रित करने वाले की विश्वसनीयता को कमजोर करते हैं।

4.3.4 पूर्वानुमान 

पूर्वानुमान नामक अगला कदम ईआईए के दूसरे प्रश्न का उत्तर देता है ‘‘परिवर्तनों का स्तर क्या रहेगा‘‘ जहां तक व्यवहार्य हो, पूर्वानुमान प्रभावों के कारणों और प्रभावों और पर्यावरण और स्थानीय समुदाय पर इसके अप्रधान और सहक्रियाशील परिणामों को प्रदर्शित करता है। पूर्वानुमान एक इकलौते पर्यावरणीय मानदंड़ के अंदर के प्रभाव का (उदाहरणार्थ विषैले द्रव्य अपशिष्ट) अनेक संकायों में इसके बाद के प्रभावों का अनुसरण करता है (उदाहरणार्थ कम हुई पानी की गुणवत्ता, मत्स्य क्षेत्र पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव, मत्स्यपालन करने वाले गावों में होने वाले आर्थिक प्रभाव, और इनके परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन) पूर्वानुमान भौतिक, जीववैज्ञानिक, सामाजिक आर्थिक और मानवशास्त्रीय डेटा तकनीकों पर कार्य करता है। प्रभावों का परिमाण निर्धारित करने के लिए पूर्वानुमान गणितीय मॉडल्स, भौतिक मॉडल्स, सामाजिक सांस्कृतिक मॉडल्स, आर्थिक मॉडल्स, प्रयोगों या विशेषज्ञ निष्कर्षों का उपयोग कर सकता है। 

सभी पूर्वानुमान तकनीकों में इनके स्वाभाव के अनुसार कुछ हद तक अनिश्चितता होती है। अतः किसी प्रभाव के परिमाण का निर्धारण करने के प्रत्येक प्रयास के साथ अध्ययन दल को सम्भाव्यताओं या त्रुटि की संभावनाओं की दृष्टि से पूर्वानुमान की अनिश्चितता का परिमाण निर्धारण भी करना चाहिए। 

इस चरण की मुख्य बाधाएं निम्नानुसार हैंः

  1. परियोजना के पूर्वानुमान और मूल्यांकन के लिए उपयोग की गई विस्तृत पद्धतियों का उल्लेख रिपोर्ट में नहीं किया जाता। प्रभाव की तीव्रता के परिमाणात्मक पूर्वानुमान और प्रभावों के मूल्यांकन के लिए उपयोग किये गए अनुमानों और धारणाओं, दोनों का सीमित स्पष्टीकरण दिया जाता है। 
  2. पूर्वानुमान की सीमित व्याप्ति केवल प्रत्यक्ष प्रभावों तक ही सीमित है। 

4.3.5 मूल्यांकन 

मूल्यांकन अगले मुद्दे को संबोधित करता है, अर्थात क्या परिवर्तनों का स्तर और स्वरुप इतना पर्याप्त है कि इसका कोई प्रभाव पडेगा। इसे मूल्यांकन इसलिए कहते हैं क्योंकि यह प्रतिकूल प्रभावों का मूल्यांकन करता है और यह निर्धारित करता है कि क्या ये प्रभाव इतने अधिक हैं कि इनके शमन के लिए कार्यवाही की जाए। परिवर्तनों के महत्त्व को निम्न पृष्ठभूमि पर परखा जाता है 

  1. कानून, विनियमन या स्वीकृत मानक। 
  2. प्रासंगिक निर्णायक। 
  3. पूर्व स्थापित मानदंड़ जैसे प्रजातियों की विशेषताओं वाले संरक्षित स्थल। 
  4. सामान्य जनता या स्थानीय समुदाय द्वारा स्वीकृति। 

4.3.6 शमन (Mitigation) 

इस चरण में अध्ययन दल औपचारिक रूप से शमन का विश्लेषण करता है। महत्वपूर्ण के रूप में विश्लेषित किये गए प्रत्येक प्रतिकूल प्रभाव को रोकना, कम करने, इसका उपचार करने, या इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए विस्तृत उपायों की श्रृंखला सुझाई जाती है। संभावित शमन उपायों में निम्न उपाय शामिल हैंः

  1. परियोजना स्थलों, मार्गों, प्रक्रियाओं, कच्चे माल, परिचालन पद्धतियों, निपटान पद्धतियों, निपटान मार्गों या स्थानों, इसके समय या अभियांत्रिकी रचना को परिवर्तित करना। 
  2. प्रदूषण नियंत्रण, अपशिष्ट उपचार की निगरानी, चरणबद्ध क्रियान्वयन, भूआकृतिकरण, व्याकगत प्रशिक्षण, विशेष सामाजिक सेवाएं या जनशिक्षा की शुरुआत करना। 
  3. (क्षतिपूर्ति के रूप में) नष्ट हुए संसाधन प्रदान करना, प्रभावित व्यक्तियों को धनराशि प्रदान करना, अन्य मुद्दों  रियायत प्रदान करना या स्थान से दूर अन्यंत्र कार्यक्रम प्रदान करना, ताकि पर्यावरण के कुछ अन्य पहलुओं या समुदाय के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके। 

सभी शमन उपायों की कुछ न कुछ लागत होती है, और इस लागत को मात्रात्मक बनाना अनिवार्य है। फिर इन विभिन्न उपायों की वैकल्पिक उपायों के साथ तुलना की जाती है और इनके प्रभार की जांच की जाती है, और ईआईए दाल एक या एक से अधिक कार्ययोजनाएं प्रस्तावित करता है, आमतौर पर वह कई उपाय संयुक्त रूप से सुझाता है। कार्य योजना में तकनीक नियंत्रण उपाय, या एकीकृत प्रबंधन योजना (एक महत्वपूर्ण परियोजना के लिए) निगरानी, आकस्मिक योजना, परिचालन पद्धतियाँ, परियोजना समयबद्धन, या संयुक्त प्रबंधन (प्रभावित समूहों के साथ) भी शामिल हो सकते हैं। अध्ययन दल को विभिन्न विकल्प अपनाने के लिए स्पष्ट प्रभावों का विश्लेषण करना चाहिए, ताकि निर्णायकों के लिए विकल्प स्पष्ट रूप से उपलब्ध हों। 

इस उद्देश्य के लिए उपलब्ध कुछ विश्लेषणात्मक तकनीकें निम्नानुसार हैंः

  1. लागत-लाभ विश्लेषण जिसमें सभी मात्रात्मक कारकों को मौद्रिक मूल्यों में परिवर्तित किया जाता है, और कार्यों का मूल्यांकन परियोजना पर उनकी लागतों और लाभों के प्रभाव के अनुसार किया जाता है 
  2. विभिन्न व्यापक ‘‘मूल्य निर्णयों‘‘ के कारण कौन सा कार्य साध्य होगा इसका स्पष्टीकरण दिया जाता है (उदाहरणार्थ सामाजिक प्रभाव संसाधनों से अधिक महत्वपूर्ण हैं)
  3. पर्यावरणीय मानदंड़ों का सरल मैट्रिक्स बनाम शमन उपाय में प्रत्येक उपाय के प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन दिया जाता है। 
  4. जोडे़ द्वारा तुलना जिसके माध्यम से एक एक जोड़ा लेकर एक कार्य के प्रभाव की संक्षिप्त तुलना प्रत्येक वैकल्पिक कार्य के प्रभावों के साथ की जाती है।

इस चरण की प्रमुख बाधाएं निम्नानुसार हैंः

  1. आमतौर पर शमन उपायों की प्रभाविता और क्रियान्वयन का विस्तृत वर्णन प्रदान नहीं किया जाता। 
  2. आमतौर पर, और परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं जैसे रणनीतिक उद्योगों के बारे में विशेष रूप से, ईएमपी को राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से गोपनीय रखा जाता है। 
  3. आपात्कालीन तैयारी योजनाओं की चर्चा पर्याप्त विस्तार की जाती और यह जानकारी समुदायों को नहीं दी जाती। 

4.3.7 दस्तावेजीकरण 

यह ईआईए प्रक्रिया का अंतिम चरण है, जिसमें यह समझने का प्रयास किया जाता है कि ईआईए के परिणामों को निर्णायकों के समक्ष किस रूप में प्रस्तुत किया जाना है। ईआईए के दस्तावेजीकरण में इसका अर्थ होता है मुख्य निर्णायकों चिन्हित करना, वे कौन से प्रश्न पूछ सकते हैं इसका आकलन करना, और उन्हें उनके प्रश्नों के सरल स्पष्ट उत्तर प्रदान करना, जिनकी रचना उनके निर्णय की दृष्टि से सरल व्याख्या की दृष्टि से की जाती है (उदाहरणार्थ तालिकाओं, आलेखों, सरांशों, बिंदुओं के माध्यम से) यदि श्रोता और उनकी आवश्यकताएं प्रारंभ में ही स्थापित हो जाती हैं तो सफल ईआईए दस्तावेजीकरण अधिक प्रस्तुत किया जाता है, और फिर उसका प्रभाव बताया जाता हैं कि किस प्रकार अनुसंधान केंद्रित है और इसे किस प्रकार रिपोर्ट किया गया है। ऐसा करने लिए यह कार्य अध्ययन दल के सूचना विशेषज्ञ का होता है। आदर्श रूप से एक ईआईए रिपोर्ट में निम्न विषयों का उल्लेख किया जाना चाहिएः

  1. ईआईए निष्कर्षों का कार्यकारी सारांश। 
  2. प्रस्तावित विकास परियोजना का वर्णन। 
  3. जिन पर्यावरणीय और प्राकृतिक संसाधन मुद्दों का स्पष्टीकरण और विस्तार प्रदान करना आवश्यक है वे मुद्दे। 
  4. परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव (जहां आधार रेखा के साथ चिन्हित किये गए थे और पूर्वानुमानित किये गए थे, उनकी तुलना)
  5. प्रतिकूल प्रभावों के शमन के लिए और परियोजना की रचना उसके प्रस्तावित पर्यावरण के साथ सुसंगत बनाने के लिए गए विकल्पों की चर्चा, और वैकल्पिक कार्यों के बीच चयन के कारण होने वाले परिवर्तन। 
  6. जानकारी में विद्यमान अंतरालों या अनिश्चितताओं पर एक सिंहावलोकन। 
  7. सामान्य जनता के लिए ईआईए का सारांश। 

परंतु भारत में ईआईए रिपोर्ट्स की गुणवत्ता में कुछ समस्याएं हैं।

  1. पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया की सबसे बड़ी चिंता तैयार की जाने वाली ईआईए रिपोर्ट्स की गुणवत्ता से संबंधित है। आमतौर पर ये रिपोर्टें अपूर्ण होती हैं और इनमें प्रदान की जाने वाली जानकारी गलत होती है। ईआईए रिपोर्टें मूल्यांकन करते समय कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज करती हैं और जानकारियां छोड़ दी जाती हैं। अनेक ईआईए रिपोर्टें केवल एक मौसम के आंकड़ों पर आधारित होती हैं और ये आंकडे़ भी यह निर्धारित करने की दृष्टि से अपर्याप्त होते हैं कि पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान की जाए अथवा नहीं। यह सब मिलकर इस संपूर्ण कार्य को इसके प्रयोजन और उद्देश्य के विरोधाभासी बना देता है। 
  2. वास्तव में ईआईए का वित्तपोषण एक अभिकरण या एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है जिसका मूल उद्देश्य प्रस्तावित परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करना है। इस बात की बहुत कम संभावना होती है कि प्रस्तुत किया गया अंतिम मूल्यांकन अपक्षपाती हो। 
  3. कई बार यह देखा गया है कि परियोजना क्षेत्र में कार्य करने वाली सलाहकारी संस्था को संबंधित विषय में कोई विशेषज्ञता प्राप्त नहीं होती। उदाहरणार्थ रिलायंस समूह द्वारा ओडिशा के तटीय क्षेत्र में तेल उत्खनन करने वाली परियोजना के संबंध में ईआईए रिपोर्ट तैयार करने का कार्य बेहरामपुर विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान विभाग को सौंपा गया था जिसे कछुओं के अध्ययन और उनके जीवन चक्र के विषय में किसी भी प्रकार की विशेषज्ञता प्राप्त नहीं थी। ईआईए दस्तावेज अपने आप में इतने भारी-भरकम और तकनीकी होते हैं कि वास्तव में निर्णय प्रक्रिया में मददगार होने की दृष्टि से इनका अर्थ समझना अत्यंत कठिन होता है। 

5.0 पर्यावरण मूल्यांकन प्रक्रिया

पर्यावरणीय मंजूरी के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय केंद्रीय अभिकरण है। वन भूमि के परिवर्तन या वन्यजीवों पर होने वाले प्रभावों से संबंधित परियोजनाओं में वन एवं वन्यजीव प्रभाग के साथ सलाह के बाद पर्यावरणीय प्रभाग परियोजना को मंजूरी प्रदान करना है अथवा नहीं इसका निर्णय करता है। नई परियोजनाओं के प्रस्तावकों को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, नई दिल्ली के सचिव को ईआईए अधिसूचना में निर्दिष्ट प्रारूप में आवेदन करना अनिवार्य है। आवेदन के साथ व्यवहार्यता/परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य है जिसमें निम्न बातों का समावेश होना चाहिएः

  1.  वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा विकसित की गई पर्यावरणीय मूल्यांकन प्रश्नावली 
  2.  पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट 
  3.  पर्यावरण प्रबंधन योजना और आपदा प्रबंधन योजना 
  4.  अधिसूचना की अनुसूची 4 के अनुसरण में सार्वजनिक सुनवाई का विवरण (जहां लागू हो)
  5.  पुनर्वसन योजनाएं (जहां आवश्यक हों)
  6.  बन मंजूरी प्रमाणपत्र (जहां आवश्यक हो)
  7.  राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से प्राप्त अनापत्ति प्रमाणपत्र। 

इस आवेदन का प्रभाव मूल्यांकन अभिकरण द्वारा मूल्यांकन और आकलन किया जाता है। यदि आवश्यक हुआ तो प्रभाव मूल्यांकन अभिकरण उसके द्वारा गठित या उसके द्वारा अधिकृत समिति से इस संबंध में सलाह मशविरा भी कर सकती है।

इस समिति को परियोजना के शुरू होने से पहले, उसके दौरान या शुरू होने के बाद कारखाने के स्थल पर प्रवेश और निरीक्षण करने के संपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं। प्रभाव मूल्यांकन अभिकरण परियोजना प्राधिकारियों द्वारा प्रस्तुत किये गए या परियोजना स्थल के दौरे के दौरान और सार्वजनिक सुनवाई के दौरान उसके द्वारा इकट्ठा किये गए दस्तावेजों और आंकड़ों के तकनीकी मूल्यांकन के आधार पर सिफारिशों का एक समुच्चय तैयार करता है। 

परियोजना प्राधिकारियों द्वारा प्रस्तुत किये गए दस्तावेजों और आंकड़ों के प्रस्तुत किये जाने के बाद और सार्वजनिक सुनवाई पूर्ण होने के बाद मूल्यांकन का कार्य 90 दिन के अंदर पूर्ण करना होता है और इसका निर्णय उसके बाद तीस दिन के अंदर बताना होता है। 

एक बार मंजूरी प्रदान कर देने के बाद यह मंजूरी परियोजना के निर्माण या परिचालन के पांच वर्ष तक वैध रहती है। 

हालांकि परियोजनाओं की मंजूरी प्रदान करने के संदर्भ में कुछ चिंताएं होती हैं 

  1. जिन परियोजनाओं के लिए स्थान मंजूरी आवश्यक है, ऐसे मामलों में परियोजना प्रस्तावकों द्वारा यह मान लिया जाता है कि यदि स्थान मंजूरी प्रदान कर दी जाती है तो पर्यावरण मंजूरी भी प्रदान कर दी जाएगी। इसके परिणामस्वरूप कई परियोजना प्रस्तावक इस दौरान पर्यावरण मंजूरी मिलने से पहले ही परियोजना घटकों का निर्माण कार्य शुरू कर देते हैं (जैसे आवासीय क्षेत्र, सड़कें इत्यादि)  जबकि ईआईए अधिसूचना में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया है कि पर्यावरण मंजूरी मिलने से पहले ऐसे कार्य शुरू नहीं किये जाने चाहियें, इसके बावजूद यह कार्य शुरू कर दिए जाते हैं। 
  2. जब पर्यावरण मंजूरी सार्वजनिक आपत्ति/सार्वजनिक अस्वीकार्यता के बावजूद प्रदान की जाती है तो जिन लोगों ने लिखित में अपनी आपत्तियां प्रस्तुत की थीं, या जो लोग सार्वजनिक सुनवाई के दौरान उपस्थित थे उन्हें ऐसा करने के कारणों की जानकारी मंजूरी प्रदान करने के तुरंत बाद प्रदान नहीं की जाती। परियोजना मंजूरी के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के बहुत थोडे मार्ग उपलब्ध हैं। जिन लोगों की इंटरनेट तक पहुँच है उन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट से कुछ मदद अवश्य मिल सकती है। हालांकि वेबसाइट पर निर्णय हो जाने के काफी बाद भी जानकारी अद्यतन नहीं की जाती। अतः जिन नागरिकों और समुदायों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं है, उन्हें यह जानकारी उपलब्ध ही नहीं हो पाती। जबकि यदि इस मंजूरी को राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण के समक्ष चुनौती देनी है तो पर्यावरण मंजूरी का निर्णय होने के तुरंत बाद इस जानकारी की उपलब्धता अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक है। 
  3. जहां तक जनता का प्रश्न है, सार्वजनिक सुनवाई के बाद की पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया एक बंद कमरे में की गई गोपनीय प्रक्रिया प्रतीत होती है। जिन मामलों में पर्यावरण मंजूरी प्रदान की जाती है जनता की उस तर्क तक पहुंच नहीं होती जिसके तहत मंजूरी प्रदान की गई है। मंत्रालय की ओर से जो कुछ भी बाहर आता है वह केवल वे शर्तें और सिफारिशें होती हैं जिनके आधार पर मंजूरी प्रदान की गई है, जो आमतौर पर अधिकांश मामलों में जन सुनवाई के दौरान उठाई गई चिंताओं और आपत्तियों को संबोधित नहीं करती। 

समग्र रूप से देखा जाए तो भारत जैसे देश में ईआईए और इससे संबंधित मुद्दे आने वाले लंबे समय तक हमेशा राष्ट्रीय विकास और नीति निर्धारण की बहस के केंद्र में रहेंगे। इनके कोई आसान उत्तर उपलब्ध नहीं हैं, और बीच का रास्ता निकालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य साबित होगा।

6.0 राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT - National Green Tribunal)

पर्यावरणीय सुरक्षा और वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी और शीघ्र निपटान के उद्देश्य से राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की स्थापना राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम, 2010 के तहत 18 अक्टूबर 2010 को की गई थी। इसे पर्यावरण से संबंधित किसी भी प्रकार के कानूनी अधिकार का प्रवर्तन करने और लोगों और संपत्ति को होने वाली क्षति के लिए राहत और क्षतिपूर्ति प्रदान करने का अधिकार भी प्रदान किया गया है। यह एक विशेषज्ञ निकाय है जो बहु संकाय मुद्दों से संबंधित पर्यावरणीय विवादों को सुलझाने की दृष्टि से आवश्यक संसाधनों से सुसज्ज है। यह न्यायाधिकरण नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निर्दिष्ट प्रक्रियाओं के अधीन नहीं होगा, परंतु यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होगा। 

हरित न्यायाधिकरण में सरकार ने 10 विशेषज्ञ सदस्यों और 6 न्यायिक सदस्यों की नियुक्ति की है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के नियम 3 (न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया, न्यायाधिकरण के अध्यक्ष एवं अन्य सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं अन्य सेवा शर्तें और जांच की प्रक्रिया) नियम, 2010 दिनांक 26 नवंबर 2010 जिनका गठन राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम, 2010 के तहत एक चयन समिति का गठन किया गया है। 

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को पर्यावरणीय मामलों से संबंधित सभी दीवानी मामलों, और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम की अनुसूची 1 में सूचीबद्ध किये गए कानूनों के क्रियान्वयन से संबंधित सभी प्रश्नों की सुनवाई के अधिकार प्रदान किये गए हैं। इनमें निम्न अधिनियम शामिल हैंः

जल (प्रदूषण निरोधक एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
जल (प्रदूषण निरोधक एवं नियंत्रण) उपकार अधिनियम, 1977
वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980
वायु (प्रदूषण निरोधक एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम, 1991
जैव विविधता अधिनियम, 2002

इसका अर्थ है कि केवल इन्हीं कानूनों, या इन कानूनों के तहत सरकार द्वारा जारी आदेशों या निर्णयों के उल्लंघन से संबंधित मामलों को ही राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वनों एवं वनस्पति संरक्षण इत्यादि से संबंधित विभिन्न राज्यों द्वारा पारित अधिनियमों से संबंधित मामलों की सुनवाई करने का अधिकार प्रदान नहीं किया गया है। अतः इन कानूनों से संबंधित विशिष्ट एवं व्यापक मुद्दों को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के समक्ष नहीं उठाया जा सकता। अतः यदि आप अपने स्थानीय क्षेत्र में शुरू होने वाली किसी परियोजना को चुनौती देना चाहते हैं तो आपको राज्य के उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में एक समादेश याचिका के माध्यम से, संबंधित तालुके के सक्षम दीवानी न्यायाधीश के समक्ष एक मूल याचिका के माध्यम से जाना पडे़गा। 

नवंबर 2014 में भारतीय सतत् विकास संस्थान के आवेदन के आधार पर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने भारत भर में वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिए है। हरित पीठ ने ‘‘सक्षम प्राधिकारी से अनुज्ञप्ति प्राप्त किये बिना, या वन एवं पर्यावरण मंत्रालय या एसईआईएए से पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त किये बिना देश के किसी भी भाग के वनों से किसी भी व्यक्ति, कंपनी, या प्राधिकरण द्वारा वृक्षों की कटाई से प्रतिबद्ध करने‘‘ के निर्देश जारी कर दिए हैं। उसी वर्ष राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के पैनल के न्यायाधीशों ने तमिलनाडु के 3.6 जी डब्लू क्षमता वाले कोयला जनित विद्युत संयंत्र को प्रदान की गई पर्यावरणीय मंजूरी को खारिज़ कर दिया। उनके विचार से न्यायाधीशों ने पाया कि परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन में अपनाया गया ‘‘लापरवाह दृष्टिकोण‘‘ कतई स्वीकार्य नहीं है। अधिक स्पष्ट रूप से न्यायाधिकरण ने यह दर्शाया कि ईआईए ‘‘अपर्याप्त एवं त्रुटिपूर्ण‘‘ था क्योंकि इसमें त्रुटिपूर्ण पद्धति को अपनाया गया था और यह अपर्याप्त और अविश्वसनीय आंकड़ा संकलन पर आधारित था। यह निर्णय इस तथ्य को रेखांकित करता है कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा ईआईए रिपोर्ट की सावधानीपूर्वक जांच भी ईआईए प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण भाग है। न्यायाधिकरण विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति के ‘‘लापरवाह दृष्टिकोण‘‘ के प्रति गंभीर रूप से आलोचनात्मक था। 

इस निर्णय को भारत में पर्यावरणीय मुकदमेबाजी की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। यह निर्णय विभिन्न स्तरों पर व्यवस्था की विफलता को उजागर करता है - जिसका मूल्य हम विभिन्न पर्यावरणीय अवक्रमण के रूप में चुका रहे हैं। यह निर्णय बेहतर गुणवत्ता वाले ईआईए और नियामक प्राधिकारियों द्वारा ईआईए की गहन जांच की पृष्ठभूमि तैयार करता है। 

पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन की प्रभाविता को पर्यावरणीय मापदंड़ों के अनुसार विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव और समय पर इनकी उपलब्धता के कारण सबसे अधिक खतरा पैदा हुआ है। चूंकि पर्यावरण एक बहु संकाय विषय है, अतः पर्यावरणीय आंकड़ों के संकलन से विभिन्न अभिकरण जुडे हुए हैं। भारत में ऐसा कोई केंद्रीय संगठन नहीं है जो पर्यावरणीय आंकडों को संकलित करता है और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन करने वाली विभिन्न संस्थाओं को एक स्थान पर इन्हें उपलब्ध कराता है। यह परियोजना प्रस्तावकों को पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन करने में, साथ ही नियामकों को पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने में लगने वाले समय और प्रयासों को प्रतिकूल प्रभावित करता है।

7.0 ऊर्जा क्षेत्रों के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन 

दिसंबर 2014 में कंजर्वेशन एक्शन ट्रस्ट (इंडिया) और एक स्वतंत्र अनुसंधान समूह, अर्बन एम्मिशंस (प्राइवेट लिमिटेड) द्वारा तैयार की गई एक अध्ययन रिपोर्ट ‘‘कोयला जानलेवा हैः भारतीय कोयला विद्युत से होने वाले स्वास्थ्य प्रभाव‘‘ प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार 2014 और 2030 के दौरान कोयला उत्पादन क्षमता 300 प्रतिशत से बढ़ जाएगी, और कोयले का उपभोग 200 से 300 प्रतिशत बढ़ जायेगा। हालांकि इसका यह भी अर्थ होगा कि वायु उत्सर्जन कम से कम दुगने हो जायेंगे, और स्वास्थ्य प्रभावों में 100 प्रतिशत की वृद्धि होगी, जिसके कारण 2030 में 186,500 से 229,500 व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु होने का अनुमान है। इसमें सिफारिश की गई है कि सभी संयंत्रों में कठोर उत्सर्जन मानक निर्धारित करना और ईंधन गैस का गैर सल्फरीकरण अनिवार्य करना, निरंतर कठोर निगरानी, पारदर्शिता, और पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन क्रमाचार में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है। इस रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष निम्नानुसार हैं 

1.कोयले का उपभोग 200 से 300 प्रतिशत बढ़ता है - कुल कोयले के उपभोग में 2 से 3 गुना वृद्धि होगी जो वर्तमान 660 मिलियन टन प्रति वर्ष से 1800 मिलियन टन प्रति वर्ष तक होने का अनुमान है। तदनुसार कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 1590 मिलियन टन प्रति वर्ष से बढ़ कर 4320 मिलियन टन प्रति वर्ष हो जायेगा।

2.कोयला उत्पादन क्षमता में 300 प्रतिशत वृद्धि होती है - ऐसा अनुमान है कि कुल स्थापित क्षमता में तीन गुना वृद्धि होगी, जो 2014 की 159 जी डब्लू से 2030 में बढ़ कर 450 जी डब्लू हो जाएगी। विद्युत संयंत्र परियोजना की प्रस्तावित सूची के तहत 

सर्वाधिक विस्तार (तीन गुना) आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड़ राज्यों में प्रस्तावित हैं, जिन सभी राज्यों में कोयला भंड़ार उपलब्ध हैं। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में दुगना विस्तार प्रस्तावित है।

3.2030 तक वायु उत्सर्जन कम से कम दुगना हो जायेगा - पी एम, एस ओ 2, और एनओ एक्स उत्सर्जन इसी अवधि के दौरान कम से कम दुगने हो जायेंगे। अधिकांश नियोजित संयंत्र सुपरक्रिटिकल - और अल्ट्रा - टीपीपी हैं जिनमें प्रति एम डब्लू एच विद्युत उत्पादन में कम कोयले का उपयोग होता है। एस ओ 2, और एनओ एक्स उत्सर्जन के लिए कोई उत्सर्जन विनियम नहीं होने के कारण इन्हें अनियंत्रित माना गया है और इन्हें ऊंचाई वाले स्टैक्स से प्रवाहित करने की अनुमति है।

4.विद्युत संयंत्रों के लिए सीमित उत्सर्जन मानक - भारत में वर्तमान में एस ओ 2 या एन ओ एक्स के लिए कोई मानक नहीं हैं, जो दोनों ही इस प्रकार के स्वास्थ्य प्रभावों के कारण हैं - अप्रधान सल्फेट्स और अप्रधान नाइट्रेट्स प्रौद्योगिकी सुधारों के रूप में विश्व भर में बिज़ली उत्पादन को काफी कुशल बनाया गया है, अतः वह अब पर्यावरण के लिए अधिक स्वच्छ और अधिक सुरक्षित बन गया है। अमेरिका, यूरोपीयन यूनियन और चीन में अपनाये जाने वाले मानकों के समकक्ष मानकों की स्थापना, विशेष रूप से एस ओ 2 और एन ओ एक्स के लिए, और ईंधन गैस के लिए गैर सल्फरीकरण व्यवस्थाएं अनिवार्य बनाना, जैसे ज्वलन प्रक्रिया के दौरान चूना पत्थर का उपयोग, चूना पत्थर की स्क्रबिंग के उपयोग के साथ गीला एफजीडी, और उच्च कुशलता वाला पुनरुत्पादन, शायद वार्षिक असामयिक मृत्यु दर को प्रति वर्ष लगभग 50 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

5.स्वास्थ्य प्रभावों में 100 वृद्धि - कोयला जनित टीपीपी के उत्सर्जन से होने वाली कुल असामयिक मृत्युओं में 2 से 3 गुना वृद्धि होने का अनुमान है, जो 2030 में प्रति वर्ष बढ़ कर 186500 से 229500 तक पहुंच जाएँगी। कोयला जनित टीपीपी के उत्सर्जन से होने वाले दमे के मामलों में 2030 तक 42.7 मिलियन तक की वृद्धि होने की संभावना है।

पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील स्थानों की सूची

  • धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थान
  • पुरातात्विक स्मारक/स्थल
  • दर्शनीय क्षेत्र
  • पहाड़ी सैरगाह/पहाड़/पहाड़ियाँ
  • समुद्र तट रिसॉर्ट्स
  • स्वास्थ्य रिसॉर्ट्स
  • मूंगों, मैंग्रोव, विशिष्ट प्रजातियों के प्रजनन आधार में समृद्ध तटीय क्षेत्र
  • विशिष्ट प्रजातियों के प्रजनन भूमि, मैंग्रोव में समृद्ध नदीजलमुख
  • खाड़ी क्षेत्र
  • बायोस्फीयर रिजर्व
  • राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभयारण्य
  • प्राकृतिक झीलों, दलदली जोन आदिवासी बस्तियों
  • वैज्ञानिक एवं भूवैज्ञानिक हितों के क्षेत्र
  • रक्षा प्रतिष्ठान, विशेष रूप से सुरक्षा महत्व एवं प्रदूषण के प्रति संवेदनशील
  • सीमा क्षेत्र (अंतर्राष्ट्रीय)
  • हवाई अड्डा
  • टाइगर रिजर्व/हाथी आरक्षित/कछुआ घोंसला मैदान
  • प्रवासी पक्षियों के लिए आवास
  • झीलें, जलाशय, बांध
  • नदियों/नदियों/मुहाना/समुद्र
  • रेलवे लाइन
  • राजमार्ग
  • शहरी समूह

पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ई.पी.आई.) 2018 

  • 2018 पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) में पाया गया है कि वायु गुणवत्ता सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए प्रमुख पर्यावरणीय खतरा है। अब इसके बीसवें वर्ष में, द्विवार्षिक रिपोर्ट विश्व आर्थिक मंच के सहयोग से येल एवं कोलंबिया विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई है। दसवीं ईपीआई रिपोर्ट में पर्यावरणीय स्वास्थ्य एवं पारिस्थितिक तंत्र जीवन शक्ति को कवर करने वाली 10 मुद्दों की श्रेणियों में 24 प्रदर्शन संकेतकों पर 180 देशों को रैंक किया गया है। स्विट्जरलैंड स्थिरता में विश्व में पहला स्थान रखता है, इसके बाद फ्रांस, डेनमार्क, माल्टा एवं स्वीडन हैं।
  • इस प्रकार, ईपीआई किसी राज्य की नीतियों के पर्यावरणीय प्रदर्शन को आंकने एवं आंकने का एक तरीका है। यह सूचकांक पायलट पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक से विकसित किया गया था, जिसे पहली बार 2002 में प्रकाशित किया गया था, एवं इसे संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में निर्धारित पर्यावरण लक्ष्यों को पूरा करने के लिए डिजाइन किया गया था। 1999 एवं 2005 के बीच प्रकाशित पर्यावरणीय स्थिरता सूचकांक (ईएसआई) से पहले ईपीआई था।
  • स्विट्जरलैंड की शीर्ष रैंकिंग अधिकांश मुद्दों, विशेष रूप से वायु गुणवत्ता एवं जलवायु संरक्षण में मजबूत प्रदर्शन को दर्शाती है। सामान्य तौर पर, उच्च स्कोरर सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा, प्रा.तिक संसाधनों को संरक्षित करने एवं आर्थिक गतिविधि से ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन को कम करने के लिए लंबे समय से प्रतिबद्धताओं का प्रदर्शन करते हैं।
  • भारत एवं बांग्लादेश रैंकिंग के निचले हिस्से के पास आते हैं, बुरुंडी, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य एवं नेपाल निचले पाँच स्थनों पर है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ईपीआई पर कम स्कोर कई मोर्चों पर राष्ट्रीय धारणीय प्रयासों, विशेष रूप से हवा की गुणवत्ता, जैव विविधता की रक्षा एवं जीएचजी उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता का संकेत है। सबसे कम रैंकिंग वाले देशों में से कुछ व्यापक चुनौतियों जैसे कि नागरिक अशांति या सीमा संबंधी मुद्धों का सामना कर रहे हैं लेकिन बाकि देशो में कम स्कोर के लिए कमजोर शासन को लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, वे ध्यान दें।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका 2018 ईपीआई में कुछ मुद्दों पर मजबूत स्कोर, जैसे स्वच्छता एवं वायु गुणवत्ता, लेकिन वनों की कटाई एवं ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन सहित अन्य पर कमजोर प्रदर्शन के साथ, 27 वें स्थान पर है। यह रैंकिंग संयुक्त राज्य अमेरिका को औद्योगिक राष्ट्रों, फ्रांस (2 वें), यूनाइटेड किंगडम (6 वें), जर्मनी (13 वें), इटली (16 वें), जापान (20 वें), एवं कनाडा (25 वें) से पीछे रखती है।
  • शोधकर्ताओं ने पाया कि बड़ी आबादी तथा तेज आर्थिक विकास के पर्यावरण पर पड़ रहे दबाव को दर्शाते हुए, उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से, चीन एवं भारत क्रमशः 120 वें एवं 177 वें स्थान पर हैं। ब्राजील 69 वें स्थान पर है।
  • अल सल्वाडोर, पापुआ न्यू गिनी एवं पुर्तगाल में महत्वपूर्ण समस्याओं के कारण मत्स्य पालन का ह्वास रहा। भारत, चीन एवं पाकिस्तान में अभा भी एब बड़ी आबादी अभी भी खराब वायु गुणवत्ता से ग्रस्त है। एवं कुछ मुद्दों पर, थोड़े देश गंभीर समस्याओं का समाधान करने में विफल हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया, मलेशिया एवं कंबोडिया ने व्यापक नीतिगत विफलताओं को दर्शाते हुए पिछले पांच वर्षों में वनों की काफी कटाई की।
  • शोधकर्ताओं ने 2018 ईपीआई रैंकिंग के आधार पर नीति चालकों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आय पर्यावरणीय सफलता का एक प्रमुख निर्धारक है, शोधकर्ताओं का कहना है कि सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता में निवेश, विशेष रूप से, बेहतर पर्यावरणीय स्वास्थ्य परिणामों में बदलते हैं।
  • 2014 की ईपीआई रैंकिंग में, शीर्ष पांच देश स्विट्जरलैंड, लक्समबर्ग, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर एवं चेक गणराज्य थे। 2014 में सबसे निचले पांच देश सोमालिया, माली, हैती, लेसोथो एवं अफगानिस्तान थे। यूनाइटेड किंगडम 12 वें स्थान पर, जापान 26 वें स्थान पर, संयुक्त राज्य अमेरिका 33 वें, ब्राजील 77 वें, चीन 118 वें एवं भारत 155 वें स्थान पर आया। उनके 2012 पायलट ट्रेंड ईपीआई पर आधारित शीर्ष पांच देश एस्टोनिया, कुवैत, अल सल्वाडोर, नामीबिया एवं कांगो थे।
  • EPI (एवं पहले ESI) बनाने का काम किया है (a) पर्यावरण कानून एवं नीति के लिए येल सेंटर, (b) कोलंबिया सेंटर फॉर इंटरनेशनल अर्थ साइंस इंफॉर्मेशन नेटवर्क एवं (c) वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने।





परिवेश - त्वरित अनुमति प्रणाली 
  • परिवेश (PARIVESH)  एक वेब आधारित, भूमिका आधारित वर्कलो अनुप्रयोग है जो केंद्रीय, राज्य एवं जिला स्तर के अधिकारियों से पर्यावरण, वन, वन्यजीव एवं CRZ मंजूरी के लिए प्रस्तावकों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों की ऑनलाइन प्रस्तुतिकरण एवं निगरानी के लिए विकसित किया गया है। यह प्रस्तावों के संपूर्ण ट्रैकिंग को स्वचालित करता है जिसमें नए प्रस्ताव को ऑनलाइन प्रस्तुत करना, प्रस्तावों के विवरण को संपादित करना/अपडेट करना एवं वर्कलो के प्रत्येक चरण में प्रस्तावों की स्थिति प्रदर्शित करता है।
  • प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने विश्व जैव ईंधन दिवस के अवसर पर परिवेश (प्रो-एक्टिव एवं उत्तरदायी, इंटरएक्टिव, पर्यावरण के अनुकूल एवं एकल खिड़की हब) की शुरूआत की। परिवेश एक एकल-खिड़की एकीकृत पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली है, जिसे प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए इंडिया डिजिटल इंडिया ’की भावना के अनुसरण में विकसित किया गया है एवं जो न्यूनतम सरकार एवं अधिकतम शासन के सार को दिखाता है।
  • परिवेश के मुख्य आकर्षणों में - सभी प्रकार की मंजूरी के लिए एकल पंजीकरण एवं एकल साइन-इन (पर्यावरण, वन, वन्य जीवन एवं CRZ), एक विशेष परियोजना के लिए आवश्यक सभी प्रकार की मंजूरी के लिए अद्वितीय-आईडी एवं एक एकल विंडो इंटरफेस के लिए प्रस्तावक सभी प्रकार के क्लीयरेंस (अर्थात पर्यावरण, वन, वन्यजीव एवं CRZ क्लीयरेंस) प्राप्त करने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना इत्यादि शामिल हैं। परिवेश आर्थिक विकास उत्पन्न करने के लिए एक ढाँचा प्रदान करता है एवं ई-गर्वनेंस के माध्यम से सतत विकास को मजबूत करता है। 
  • इसमें सेंट्रल, स्टेट एवं डिस्ट्रिक्ट लेवल क्लीयरेंस, ऑटो-जेनरेशन ऑफ एजेंडा (पहले आओ, पहले पाओ के सिद्धांत पर), मीटिंग्स के मिनट्स एवं ऑनलाइन लेटर ऑफ अप्रूवल लेटर्स के लिए सिंगल विंडो सिस्टम है, जिससे क्लीयरेंस एप्लिकेशन की प्रोसेसिंग में आसानी एवं एकरूपता आती है, नियामक निकायों /इंस्पेक्टिंग ऑफिसरों द्वारा कॉम्प्लायंस रिर्पोटे जिसमें जीओ-टैग्ड इमेजेस भी शामिल है की मॉनीटरिंग एवं ऑनलाईन तथा मोबाईल एप द्वारा गहरी कॉम्प्लायंस मॉनिटरिंग (अनुपालन परीवीक्षण) भी शामिल है। 
  • एकमात्र चिंता यह है कि इन सब के बावजूद भारत पर्यावरण के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन नही कर पा रहा है - हम पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) में रैंकिंग में सबसे नीचे हैं।

सरकार के दृष्टिकोण की आलोचना

  • केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 4 जनवरी, 2019 को दो क्षेत्रों जिनमें वर्तमान में उच्चतम निवेश हैं - आधारभूत संरचनाओं एवं भवन/निर्माण, क्षेत्र विकास परियोजनाओं - के लिए मानक पर्यावरण मंजूरी की शर्तों को लागू करने वाला दस्तावेज लाया।
  • यह मंत्रालय द्वारा 9 अगस्त 2018 को 25 प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों के लिए इसी तरह के एक ज्ञापन जारी किए जाने के बाद किया गया।
  • सरकार का विकास एजेंडा 2014 में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ एवं ‘फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर-बेस्ट से बेहतर’ पर किए गए वादों के अनुसार है।
  • 10 अगस्त, 2019 को इंटरैक्टिव, वर्चुअस एवं पर्यावरणीय एकल-खिड़की हब द्वारा, PARIVESH - प्रो-एक्टिव एवं अनुक्रियाशील सुविधा का शुभारंभ पर्यावरणीय अनुमतियां तेजी से प्राप्त करने का माध्यम बना। यह एक ऑनलाइन पोर्टल है जो विभिन्न प्रकार की अनुमतियों के लिए परियोजना के प्रस्तावकों द्वारा मंत्रालय को प्रस्तुत प्रस्तावों को जमा करने, निगरानी एवं प्रबंधन करने के लिए बनाया गया है।
  • मार्च 2017 में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘सरकार ने महत्वपूर्ण पर्यावरण अनुमति को 600 से 190 करने के लिए दिनों की संख्या को घटा दिया है एवं इसे जल्द ही 100 के नीचे लाया जाएगा।’
  • इन कदमों ने चुनाव आयोग को अनुदान देने के समय को कम करके, प्रक्रिया में स्पष्टता की कमी को दूर करने एवं एकरूपता लाने में मदद की। परिणाम - जुलाई 2014 से 1,500 से अधिक परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है।
  • ये कदम परियोजना चालकों एवं सलाहकारों के लिए भी फायदेमंद साबित हुए क्योंकि वे उन्हें ईआईए रिपोर्ट तैयार करने में स्पष्टता प्रदान करते हैं।
  • पर्यावरण पर प्रभाव स्वस्थ नहीं रहा है। सरकार की नई नीतियों एवं प्रथाओं में पर्यावरण एवं लोगों के प्रति अत्यधिक उपेक्षा बार-बार विभिन्न निकायों द्वारा उजागर की जाती है। नवीनतम पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) में, भारत को निचले पांच देशों में शामिल किया गया है। यह 2016 में 141 से 2018 में 180 देशों में से 177 पर चला गया। यह पर्याप्त सबूत है।
  • भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की मार्च 2017 की रिपोर्ट में पर्यावरण मंजूरी एवं पोस्ट-क्लीयरेंस मॉनिटरिंग पर रिपोर्ट में कहा गया है कि निकासी प्रक्रिया को बड़ी प्रक्रियात्मक कमियों के साथ जोड़ा गया था। कुछ प्रमुख गड़बड़ियाँ ईआईए को ले जाने में देरी, ईआईए में संचयी प्रभाव का कोई विचार नहीं, सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित पूरी प्रक्रिया की देखरेख के लिए एक राष्ट्रीय नियामक की नियुक्ति न करना, अनुपालन की जांच किए बिना मंजूरी देना आदि थे।
  • अन्य कमियां जो सीएजी ने बताई हैं, वे सार्वजनिक सुनवाई के ठीक से ना होने एवं महत्व की हानि, एवं ग्राम सभाओं की बातो को ना मानने की थी।
  • सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972, राष्ट्रीय वन नीति, 2018, भारतीय वन अधिनियम, 1927, एवं तटीय विनियमन क्षेत्र, 2018 सहित पर्यावरणीय कानूनों में बदलाव या उन्हें कमजोर करने की कोशिश की है।
  • भूमि संघर्ष वॉच जो एक राष्ट्रीय प्रहरी है एवं भारत भर में चल रहे भूमि संघर्षों को ट्रैक करता है, नक्शे एकत्र करता है, एवं उनका विश्लेषण करता है, के अनुसार, 665 परियोजनाएं हैं, जिसमें 24 लाख हेक्टेयर क्षेत्र एवं 13 लाख करोड़ रुपये का अनुमानित निवेश है, जिससे 73 लाख लोग प्रभावित हैं। सरकार ने पर्यावरण एवं सामुदायिक हितों की रक्षा के लिए हरित निकासी प्रक्रिया में सुधार के लिए आवश्यक सुधारों का आयोजन नहीं किया है एवं संस्थतागत मजबूती के लिए चुना है।
  • फिर भी, बावजूद इसके कि, दो ज्ञापनों में सूचीबद्ध सभी प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों की मानक पर्यावरण मंजूरी की स्थिति स्पष्टता ला सकती है, इसकी 14 मार्च, 2017 के मंत्रालय की अधिसूचना, जो परियोजनाओं के बाद के तथ्यात्मक मंजूरी की अनुमति (पोस्ट फैक्टो) देती है, जिसमें CRZ क्लीयरेंस भी शामिल हैं के कारण कोई मूल्य नहीं रहेगा। इसके अनुसार, ऐसी परियोजनाओं के प्रस्तावकों को जो ईसी प्राप्त किए बिना काम कर रहे हैं, को ईसी के आवेदन के लिए छह महीने का समय दिया जाना चाहिए। चुनाव आयोग के उल्लंघन के सभी आवेदन, उसके आकार एवं क्षमता के बावजूद, संबंधित क्षेत्र के विशिष्ट ईएसी द्वारा केंद्रीय स्तर पर केवल मूल्यांकित किए जाएगे एवं केंद्र से मंजूरी दे दी जाएगी।
  • इसलिए ऐसा लगता है कि पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया एक औपचारिकता बन गई है। मूल्यांकन की गुणवत्ता, निकासी की शर्तों का अनुपालन एवं सार्वजनिक सुनवाई के माध्यम से स्थानीय समुदाय की भागीदारी को इन परिवर्तनों को पेश करके निकासी प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए कमजोर किया जा रहा है।

पर्यावरण मेट्रिक्स का तर्क 
  • अक्षय विकास ने डेटा-चालित पर्यावरण नीति निर्माण के एक नए युग में प्रवेश किया है। संयुक्त राष्ट्र के 2015 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) एवं पेरिस जलवायु समझौते में उल्लिखित महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, देशों को प्रदूषण नियंत्रण एवं प्राकृतिक संसाधनों के लक्ष्य की एक सीमा में पर्यावरण प्रदर्शन मैट्रिक्स (अर्थात सूचकांकां) को एकीकृत करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण के लिए एक अधिक अनुभवजन्य दृष्टिकोण समस्याओं को ट्रैक करना, रुझानों को ट्रैक करना, नीतिगत सफलताओं एवं विफलताओं को उजागर करना, सर्वोत्तम प्रथाओं की पहचान करना एवं पर्यावरण प्रबंधन में निवेश से लाभ का अनुकूलन करना आसान बनाता है।
  • 2018 पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) पर्यावरणीय स्वास्थ्य एवं पारिस्थितिकी तंत्र जीवन शक्ति को कवर करने वाले दस अंक श्रेणियों में 24 प्रदर्शन संकेतकों पर 180 देशों का स्कोर करता है। ये मेट्रिक्स राष्ट्रीय स्तर पर एक दृश्टि प्रदान करते हैं कि पर्यावरण नीति लक्ष्यों को स्थापित करने के लिए देश कैसे हैं। ईपीआई दुनिया भर में स्थिरता की स्थिति का एक शक्तिशाली सारांश बनाने के लिए दुनिया भर में डेटासेट के साथ पर्यावरण विज्ञान में नवीनतम प्रगति को बदल देता है।
  • दुनिया भर के देशों ने पर्यावरण की रक्षा एवं संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं पर काम किया है। प्रजातियों, पारिस्थितिक तंत्र एवं मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए, सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय समझौते बनाए हैं जो प्रदूषण को विनियमित करने एवं संरक्षण का प्रबंधन करने के लिए उनके राष्ट्रीय व्यवहार को निर्देशित करते हैं। उदाहरण के लिए, स्टॉकहोम कन्वेंशन एवं बेसल कन्वेंशन जैसे अंतर्राष्ट्रीय समझौते, लगातार जैविक प्रदूषकों एवं खतरनाक कचरे को विनियमित करते हैं। कई परंपराएँ विशिष्ट पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा करके या विशिष्ट समस्याओं से प्रजातियों की रक्षा करके जैव विविधता की रक्षा करती हैं, जैसे कि आर्द्रभूमि पर रामसर सम्मेलन या लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (CITIEZ) इत्यादि।




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सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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