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भारत में जैव-विविधता भाग - 2
7.0 भारत में जैव-विविधता का संरक्षण
जैसा कि अब तक हम सब जान चुके हैं कि जैवविविधता पारिस्थितिकी तंत्रों के कार्यों की दृष्टि से, जिसमें जल चक्र का स्थिरीकरण भी शामिल है, इसके रखरखाव और मृदा की उर्वरकता के पुनर्भरण की दृष्टि से, फसलों और अन्य वनस्पति के परागण और पार-निशेचन (cross-fertilisation) के लिए, मृदा अपक्षरण से संरक्षण और खाद्य उत्पादन और अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की स्थिरता के लिए अत्यंत आवश्यक है। जैविक विविधता के संरक्षण का परिणाम अनिवार्य पारिस्थितिकी विविधता के संरक्षण में होता है ताकि खाद्य श्रृंखलाओं की निरंतरता का संरक्षण किया जा सके। जैवविविधता करोड़ों लोगों के जीवन निर्वाह, संस्कृतियों, और अर्थव्यवस्थाओं के लिए आधार प्रदान करती है, जिनमें कृषक, मछुआरे, वनवासी और कारीगर शामिल हैं। यह विभिन्न औषधि और स्वास्थ्य सेवा कार्यों के लिए कच्चा माल प्रदान करती है। साथ ही यह कृषि, मत्स्यपालन, और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक, औद्योगिक और अन्य क्षेत्रों की खोजों के निरंतर उन्नयन के लिए आनुवंशिक आधार भी प्रदान करती है। पिछले कुछ दशकों के दौरान जैवविविधता में हुए तेज गति के अपक्षरण का भूमि, जलाशयों और लोगों के स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ा है।
जैवविविधता एक ऐसी संपदा है जिसका कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता। अंतिम विश्लेषण में, मानव जाति का अस्तित्व मात्र ही जैव-विविधता के संरक्षण पर निर्भर है। यह स्पष्ट है कि विभिन्न कारणों से इस बहुमूल्य विरासत का अत्यंत तीव्र गति से विनाश किया जा रहा है। इस मुद्दे के निराकरण के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकविध उपाय किये जा रहे हैं। पृथ्वी शिखर सम्मेलन ने अनेक मुद्दों पर एक कार्य योजना विकसित की है (कार्यसूची 21) जिसमें 21 वीं सदी में जैवविविधता का संरक्षण भी शामिल है। स्थानीय ज्ञान व्यवस्थाओं और प्रथाओं पर आधारित जैविक संसाधनों का संरक्षण और धारणीय उपयोग भारतीय लोकनीति में समाहित है। हमारे देश में अनेक वैकल्पिक औषधियां हैं जैसे आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथिक व्यवस्थाएं जिनकी औषधि निर्मिति में वनस्पति आधारित कच्चे माल की अत्यंत प्रभावी भूमिका है। विभिन्न प्रयोजनों के लिए वनस्पति निर्मितियां, जिनमें औषधि और सौंदर्य प्रसाधन भी शामिल है, भारत में जैवविविधता के उपयोग का एक महत्वपूर्ण भाग हैं।
जैव-विविधता के संरक्षण के अनेक रणनीतियां अपनायी गई हैं। इनमें से कुछ निम्नानुसार हैंः
कानूनः जैवविविधता के संरक्षण और धारणीय उपयोग की औपचारिक नीतियां और कार्यक्रम अनेक दशक पुराने हैं। संरक्षण की संकल्पना भारत के संविधान के अनुच्छेद 48ए और 51ए (जी) में समाहित की गई हैं। जैवविविधता के संबंध में बनाये गए प्रासंगिक केंद्रीय अधिनियमों में निम्न अधिनियम शामिल हैंः
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986
- मत्स्यपालन अधिनियम, 1897
- वन अधिनियम, 1927
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 और वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 1991
विभिन्न केंद्रीय अधिनियमों की सहायता वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित अनेक राज्य अधिनियम और कानून भी करते हैं। जैवविविधता से सीधे संबंधित नीतियों और रणनीतियों में 1988 में संशोधित की गई राष्ट्रीय वन नीति, पर्यावरण और धारणीय विकास के लिए राष्ट्रीय संरक्षण एवं नीति प्रतिवेदन, राष्ट्रीय कृषि नीति, राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति, राष्ट्रीय मत्स्यपालन नीति, जैवविविधता पर राष्ट्रीय नीति एवं कार्य रणनीति, राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना और पर्यावरणीय कार्य योजना शामिल हैं।
स्वस्थानी संरक्षण (In-situ conservation): पशुओं और वनस्पति के उनके प्राकृतिक वासों में संरक्षण को स्वस्थानी संरक्षण कहा जाता है। स्थापित प्राकृतिक वास निम्नानुसार हैंः
- राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य
- जीवमंडल संरक्षित (रिजर्व)
- प्राकृतिक संरक्षित
- संरक्षित (रिजर्व) और संरक्षित वन
- संरक्षित भूखंड
- आरक्षित वन
इस प्रकार की पहली पहल 1936 में कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना के रूप में की गई थी। राष्ट्रीय उद्यानों की कानून द्वारा उच्च सुरक्षा की जाती है। राष्ट्रीय उद्यान के अंदर किसी भी प्रकार के मानवी निवास, निजी भूमि स्वामित्व या जलाऊ लकड़ी का संग्रह या पशु चराई जैसी पारंपरिक मानवी गतिविधियों की अनुमति नहीं है। अभयारण्य भी संरक्षित क्षेत्र हैं परंतु इनमें कुछ प्रकार की गतिविधियों की अनुमति प्रदान की गई है। जीवमंडल संरक्षित भी एक अन्य श्रेणी के संरक्षित क्षेत्र माने जाते हैं। इनके तहत एक विशाल क्षेत्र को जीवमंडल संरक्षित के रूप में घोषित कर दिया जाता है, जहां वन्यजीवों का संरक्षण किया जाता है, परंतु इन क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों को रहने और पारंपरिक गतिविधियाँ जारी रखने की अनुमति प्रदान की जाती है। भारत सरकार ने सात जीवमंडल संरक्षितों की स्थापना की हैः नोकरेक (मेघालय), नीलगिरि (कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु), नमदाफा (अरुणाचल प्रदेश), नंदादेवी (उत्तर प्रदेश), सुंदरबन (पश्चिम बंगाल) ग्रेट निकोबार (अंडमान एवं निकोबार द्वीप), और मन्नार की खाडी (तमिलनाडु)।
कुछ पशु प्रजातियों के संरक्षण के लिए विशेष परियोजनाएं भी शुरू की गई हैं, जिन्हें निरंतर संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता के रूप में निरूपित किया गया है। इन परियोजनाओं की निर्मिति इन प्रजातियों के प्रा.तिक वासों के संरक्षण के माध्यम से स्वस्थानी संरक्षण की दृष्टि से की गई है। बाघ परियोजना, हाथी परियोजना, बारहसिंगा बचाओ अभियान इत्यादि इन पहलों के उदाहरण हैं। अन्य रणनीतियों में ईंधन लकड़ी और चारे के वैकल्पिक उपायों के माध्यम से आरक्षित वनों के दबावों को कम करना शामिल है, जिनकी पूर्ति के लिए अपघटित और बंजर क्षेत्रों में वनीकरण की आवश्यकता है।
स्थानीय समुदायों को शामिल करके स्वस्थानी संरक्षण के ‘‘पारिस्थितिकी विकास‘‘ नामक कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी। यह कार्यक्रम पारिस्थितिकी तंत्रों के धारणीय संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी और आर्थिक मानदंड़ों को एकीकृत करता है, जिसमें संरक्षित क्षेत्रों के आसपास के चिन्हित क्षेत्रों के रखरखाव के साथ स्थानीय समुदायों को भी शामिल किया जाता है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से 4.2 प्रतिशत क्षेत्र को प्राकृतिक वासों और पारिस्थितिकी तंत्र के सघन स्वस्थानी संरक्षण के लिए चिन्हित किया गया है। 85 राष्ट्रीय उद्यानों और 448 वन्यजीव अभयारण्यों के संरक्षित क्षेत्र संजाल का निर्माण किया गया है। बाघ, शेर, गेंडे, घड़ियालों और हाथियों जैसे विशाल स्तनधारियों की व्यवहार्य संख्या के पुनरुज्जीवन की दृष्टि से इस संजाल के परिणाम काफी महत्वपूर्ण साबित हुए हैं।
बाह्य स्थानी संरक्षणः वनस्पतियों और पशुओं के बाह्य स्थानी संरक्षण उनके प्राकृतिक वासों से बाहर उनका संरक्षण करते हैं। यह प्राणी उद्यान या वनस्पति उद्यान हो सकता है, या यह कार्य वनीय संस्थाओं या कृषि अनुसंधान केंद्रों के माध्यम से भी किया जा सकता है। फसलों, पशुओं, पक्षियों और मछली प्रजातियों की आनुवंशिक सामग्री को संग्रहित और संरक्षित करने की दिशा में काफी प्रयास किये जा रहे हैं। यह कार्य वनस्पति आनुवंशिक संसाधन राष्ट्रीय ब्यूरो, नई दिल्ली, पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो इत्यादि द्वारा किया जा रहा है। जहां से कोई वनस्पति या पशु लुप्त हुआ है उन वासों में ऐसी वनस्पतियों या पशुओं का पुनः प्रवेश भी बाह्य स्थानी संरक्षण का एक प्रकार है। उदाहरणार्थ गंगा के घड़ियाल का उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की उन नदियों में पुनः प्रवेश किया गया है, जहां से वे विलुप्त हुए थे। बीज बैंक, वनस्पति उद्यान, बागवानी उद्यान और मनोरंजन उद्यान बाह्य स्थानी संरक्षण के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। बाह्य स्थानी संरक्षण उपाय स्वस्थानी संरक्षण के पूरक होते हैं।
स्वदेशी ज्ञान को दर्ज करनाः स्थानीय समुदायों का जीवन उनके पर्यावरण के साथ काफी निकट से जुडा होता है, और वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनके पर्यावरण के तत्काल संसाधनों पर निर्भर रहते हैं। इन समुदायों को स्थानीय वनस्पतियों और पशुओं के विषय में काफी ज्ञान होता है, जो जैवविविधता के संरक्षण की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान में से अधिकांश ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मौखिक रूप से प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के स्वदेशी ज्ञान को नष्ट होने से पहले दर्ज करना और संरक्षित करना अत्यंत आवश्यक और महत्वपूर्ण है। अनेक संगठनों ने इन आवश्यकताओं को मान्य किया है, और ये संगठन इस ज्ञान को दर्ज करने और इसे भविष्य की खुशहाली के लिए इसका संरक्षण करने के कार्य में लगे हुए हैं।
जैवविविधता के संरक्षण में समुदायों की भागीदारीः यह मान्य किया जा रहा है कि कोई भी कानूनी प्रावधान तब तक प्रभावी साबित नहीं हो सकते जब तक संरक्षण कार्यक्रमों के नियोजन, प्रबंधन और निगरानी में स्थानीय समुदायों को सहभागी नहीं किया जाता। यह कार्य करने के लिए सरकार और गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनेक पहलें की जा सकती हैं। उदाहरणार्थ संयुक्त वन प्रबंधन का दर्शन गांवों के आसपास की अपघटित वनभूमि के संरक्षण और उसके पुनरुज्जीवन में ग्रामीण समुदायों की भागीदारी पर जोर देता है। सफल संरक्षण रणनीतियों के लिए स्थानीय समुदायों का विश्वास और उनकी भागीदारी होना अनिवार्य है।
अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण रणनीतियांः जैवविविधता का संरक्षण ऐसा मुद्दा नहीं है जो किसी एक समुदाय या देश की प्रादेशिक सीमा तक ही सीमित है। यह एक महत्वपूर्ण वैश्विक विषय है। जैवविविधता के संरक्षण की दिशा में भागीदारी और प्रतिबद्धता को सशक्त बनाने के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ विद्यमान हैं। इनमें से कुछ निम्नानुसार हैंः
- जैविक विविधता पर सम्मेलनः इस संधि पर 1992 के पृथ्वी शिखर परिषद के दौरान हस्ताक्षर किये गए थे। इसका केंद्रबिंदु न केवल जैवविविधता का संरक्षण है, बल्कि इसका जोर जैविक संसाधनों के धारणीय उपयोग और इसके उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों के समान वितरण पर भी है।
- वन्य वनस्पतियों और पशुओं की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलनः यह एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका निर्माण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से प्रभावित होने वाली वन्य वनस्पति और पशु प्रजातियों के संरक्षण के लिए किया गया है। 1975 से प्रभावी हुई यह संधि लुप्तप्राय और भेद्य वन्यजीवों के निर्यात, आयात और पुनर्निर्यात को नियंत्रित करती है।
- अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों पर सम्मेलनः इस सम्मेलन पर, जिसे रामसर सम्मेलन भी कहा जाता है, 1971 में रामसर (ईरान) में हस्ताक्षर किये गए थे, और यह दिसंबर 1975 से प्रभावी हुई। यह संधि उन आर्द्र भूमि प्राकृतिक वासों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की रूपरेखा प्रदान करती है, जिन्हें ‘‘अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों की सूची‘‘ में समाविष्ट किया गया है।
जैवविविधता का संरक्षण - जीवन का संरक्षणः नीचे कुछ संरक्षण उपाय दिए गए हैं जिन्हें हम क्रियान्वित कर सकते हैंः
- वनस्पति वृक्षः जहां भी संभव हो वनस्पति की स्वदेशी प्रजातियों का रोपण कीजिये (वृक्षों, झाड़ियों और बेलों का), इसके कारण स्थानीय पक्षियों, तितलियों और अन्य कीटों जैसे वन्य जीव इनकी ओर आकर्षित होंगे।
- अपने विद्यालय के उद्यानों में ऐसी स्थानीय सब्जियां पैदा कीजिये जो आमतौर पर बाजार में उपलब्ध नहीं होती। यह आने वाली अनेक पीढ़ियों तक इनका संरक्षण करने में सहायक होगा।
- स्थानीय जैवविविधता को क्षति पहुंचाने वाली गतिविधियों या प्रस्तावित गतिविधियों के विरुद्ध पहल करें, संगठित हों और उनमें भागीदारी करें।
- अपने आसपास के इलाके में विद्यमान विभिन्न प्रकार के वृक्षों की सूची बनायें। इनमें से प्रत्येक का नाम, उसका उपयोग, उसके फूलों के मौसम, और उसपर निर्भर रहने वाले पक्षियों और पशुओं की जानकारी जुटाएँ। इस जानकारी को आकर्षक रूप से प्रस्तुत करें, और इसे वृक्ष के पास लिख कर रखें। अनेक लोग रूककर इस जानकारी को पढ़ेंगे और उस वृक्ष के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।
- पशुओं की त्वचा, पशम, हाथीदांत, हड्डियों, नाखूनों इत्यादि से बनी वस्तुओं के प्रति अपने लालच पर काबू रखें, जिससे कि वन्यजीवों के शिकारियों और व्यापारियों को को हतोत्साहित किया जा सके और बचे हुए वन्यजीवों का संरक्षण किया जा सके।
- शाकाहारी बनें जिससे कि कसाइयों द्वारा काटे जाने वाले पशुओं की संख्या को कम किया जा सके और भोजन के लिए अधिक वनस्पति को उगाया जा सके।
- जहां तक संभव हो कीटनाशकों, अकार्बनिक उर्वरकों के उपयोग से बचें और इनके स्थान पर प्राकृतिक वनस्पति आधारित विकल्पों का उपयोग करें। पारिस्थितिकी तंत्र को अपघटित करने वाले और उन्हें क्षति पहुंचाने वाले गैर जैव निम्नीकरणीय प्लास्टिक और पॉलिएस्टर के स्थान पर कागज और कपडे की थैलियों का उपयोग करें।
- बच्चों को उनके आसपास की प्राकृतिक वस्तुओं और जैवविविधता की आवश्यकता के प्रति जागरूक करें।
- जैविक कृषि को प्रोत्साहित करें जो कम सघन और अधिक पर्यावरण अनुकूल होती है।
- धुआं रहित चूल्हे, भूजल पुनर्भरण इकाइयों, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा इत्यादि जैसी धारणीय प्रौद्योगिकियों का उपयोग करें।
- मुक्त विचरण करने वाले पशुओं, प्रवासी पक्षियों और स्थानिक प्रजातियों के लिए ‘‘सामुदायिक अभयारण्यों‘‘ का गठन करें। वनस्पति और पशुओं के लिए स्वैच्छिक ‘‘ग्रामीण संरक्षितों‘‘ की स्थापना करें।
- दुर्लभ और स्थानिक प्रजातियों को दर्ज करने और उनके संरक्षण में राष्ट्रीय स्तर के निकायों की सहायता करें।
- समुदायों, विद्यालयों और गांवों में ‘‘जैवविविधता रजिस्टरों‘‘ का निर्माण करें।
8.0 जैव विविधता पर सम्मेलन (सीबीडी), कार्टाजेना प्रोटोकॉल, नगोया प्रोटोकॉल, एईची लक्ष्य
1992 में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान तीन सम्मेलन हुए थे जो जैव-विविधता, जलवायु परिवर्तन और मरुस्थलीकरण पर थे। प्रत्येक सम्मेलन को एजेंडा 21 के अक्षय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के तरीके के रूप में देखा जाता है। तीनों सम्मेलन वस्तुतः आंतरिक रूप से जुड़े हुए हैं, एक ही पारिस्थितिक तंत्र पर कार्यरत हैं एवं अन्योन्याश्रित मुद्दों को हल करते हैं।
जैव विविधता पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की कल्पना नवंबर 1988 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के जैविक विविधता के तदर्थ विशेषज्ञों की कार्यकारी समुह द्वारा की गई थी।
पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (युएनसीईडी), जिसे रियो डी जनेरियो अर्थ समिट, रियो समिट या अर्थ समिट के रूप में भी जाना जाता है, संयुक्त राष्ट्र संगठन का एक प्रमुख सम्मेलन था जो रियो डी जेनेरियो में 3 से 14 जून 1992 के मध्य संपन्न हुआ था। पृथ्वी शिखर सम्मेलन को शीत-युद्ध के पश्चात्, सदस्य राज्यों की, विकास के मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साथ मिलकर कार्य करने की प्रतिक्रिया के रूप में आयोजित किया गया था। चूँकि अक्षय विकास का मुद्धा इतना बड़ा था कि राष्ट्र इसे अपने व्यक्तिगत स्तर पर नही संभाल सकते थे, पृथ्वी शिखर सम्मेलन को सभी राष्ट्रों के मिलकर कार्य करने के लिए एक मंच के रूप में आयोजित किया गया।
2012 में, धारणीय विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन भी रियो में हुआ था, और उसे आमतौर पर रियो$20 या रियो पृथ्वी सम्मेलन 2012 कहते हैं।
8.1 जैविक विविधता पर सम्मेलन (सीबीडी)
जैविकविविधता सम्मेलन (सीबीडी) एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि है। सम्मेलन के तीन मुख्य लक्ष्य है - पहला, जैविक विविधता का संरक्षण, दूसरा, इसके घटकों का धारणीय उपयोग एवं तीसरा, आनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा।
दूसरे शब्दों में, इसका उद्देश्य जैविकविविधता के संरक्षण और सतत उपयोग के लिए राष्ट्रीय रणनीति विकसित करना है। इसे अक्सर सतत विकास के संबंध में महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में देखा जाता है। 5 जून 1992 को रियो डी जनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान सम्मेलन में हस्ताक्षर हुए थे और 29 दिसंबर 1993 से यह प्रभावी हो गया था। वर्तमान में इस कन्वेंशन में 194 पक्षकार (193 देश और यूरोपीय संघ) शामिल हैं।
वर्ष 2010 जैविक विविधता का अंतरराष्ट्रीय वर्ष था।
सीबीडी में दो पूरक समझौते शामिल हैं - कार्टाजेना प्रोटोकॉल एवं नागोया प्रोटोकॉल।
8.2 जैवसुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल
सीबीडी के अंर्तगत जैवसुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिसमें आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप, संशोधित जीवित जीवों (एलएमओ) के एक देश से दूसरे देश में संचार को नियंत्रित किया जाता है। इस पर 29 जनवरी 2000 को जैविक विविधता सम्मेलन के पूरक समझौते के रूप में हस्ताक्षर हुए तथा उसी वर्ष 11 सितंबर से यह प्रभावी हो गया था।
8.3 नागोया प्रोटोकॉल
पहुंच और लाभ बंटवारे पर नागोया प्रोटोकॉल (एबीएस) 29 अक्टूबर, 2010 को, पक्षकारों के 10वें सम्मेलन (सीओपी) में, नागोया, आइची प्रांत, जापान में अपनाया गया था तथा अनुसमर्थन के पचासवें साधन के जमा होने के 90 दिन बाद 12 अक्टूबर 2014 से यह लागू हुआ था। इसका उद्देश्य आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा है, जिससे यह जैविकविविधता के संरक्षण और सतत उपयोग में योगदान दे सके। यह सीबीडी के तीन में से एक लक्ष्य के प्रभावी कार्यान्व्यन के लिए एक पारदर्शी कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इसका उद्देश्य आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों का उचित और न्यायसंगत साझाकरण है, जिससे जैव विविधता के संरक्षण और स्थायी उपयोग में योगदान होता है। 22 दिसंबर, 2010 को संयुक्त राष्ट्र ने 2011 से 2020 की अवधि को जैविकविविधता के संयुक्त राष्ट्र दशक के रूप में मनाने की घोषणा की।
8.4 आइची जैव विविधता लक्ष्य (सीओपी 10, अक्टूबर 2010, नागोया, जापान)
निम्न लक्ष्य शामिल थे :
रणनीतिक लक्ष्य ए : विभिन्न सरकारों और समाजों में जैवविविधता को मुख्यधारा में लाकर जैवविविधता की हानि के अंतर्निहित कारणों से निपटना
रणनीतिक लक्ष्य बी : जैव विविधता पर प्रत्यक्ष दबाव को कम करना तथा अक्षय उपयोग को बढ़ावा देना
रणनीतिक लक्ष्य सी : पारिस्थितिक-तंत्रों, प्रजातियों और आनुवंशिक विविधताओं की सुरक्षा करके जैव-विविधता की स्थिति में सुधार करना
रणनीतिक लक्ष्य डी : जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी-तंत्र से होने वाले लाभों को सभी के लिए बढ़ाना
रणनीतिक लक्ष्य ई : भागीदारी योजना, ज्ञान प्रबंधन और क्षमता निर्माण के माध्यम से कार्यान्वयन में वृद्धि करना
8.5 आइची जैव विविधता लक्ष्यों का विवरण
रणनीतिक लक्ष्य ए : विभिन्न सरकारों और समाजों में जैवविविधता को मुख्यधारा में लाकर जैवविविधता की हानि के अंतर्निहित कारणों से निपटना
लक्ष्य 1 -यह सुनिश्चित करना कि, अधिकतम, 2020 तक, लोगों को जैव विविधता के मूल्यों और उनके संरक्षण के लिए उठाए जाने वाले कदमों के बारे में जानकारी हो जाए।
लक्ष्य 2 -यह सुनिश्चित करना कि, अधिकतम, 2020 तक, जैव विविधता मूल्यों को राष्ट्रीय, स्थानीय विकास कार्यक्रमों, गरीबी निराकरण रणनीतियों एवं योजना प्रक्रियाओं तथा राष्ट्रीय लेखांकन में रिपोर्टिंग प्रणालियों के रूप में एकी.त कर दिया जाए।
लक्ष्य 3 - यह सुनिश्चित करना कि, अधिकतम, 2020 तक, सब्सिडी सहित सभी प्रोत्साहन जो कि, जैव विविधता के लिए हानिकारक हैं को हटाना या उनके नकारात्मक प्रभावों को कम करने या उनसे बचने के लिए उनमें सुधार करना तथा राष्ट्र की आर्थिक-सामाजिक दशा को ध्यान में रखते हुए, सम्मेलन तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों के सुसंगत, जैव-विविधता के संरक्षण और अक्षय उपयोग के लिए सकारात्मक प्रोत्साहनों को विकसित एवं लागू करना।
लक्ष्य 4 - यह सुनिश्चित करना कि, अधिकतम, 2020 तक, विभिन्न सरकारें, व्यापार एवं हितधारक सभी स्तरों पर अक्षय उत्पादन और उपभोग की योजनाओं को कार्यान्वित करें या कार्यान्वित करने के लिए कदम उठाए तथा प्रा.तिक संसाधनों के उपयोग के प्रभावों को सुरक्षित पारिस्थितिक सीमाओं के भीतर सीमित रखे।
रणनीतिक लक्ष्य बी : जैव विविधता पर प्रत्यक्ष दबाव को कम करना तथा अक्षय उपयोग को बढ़ावा देना
लक्ष्य 5 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, वनों सहित सभी प्रा.तिक आवासों के समाप्त होने की दर कम से कम आधी रह जाए तथा जहाँ संभव हो उसे शून्य के करीब लाया जाए,
लक्ष्य 6 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक सभी मछलीयों, अकशेरूकीय जीवों एवं जलीय पौधों का प्रबंधन और संचयन, कानूनी रूप से, पारिस्थितिक तंत्र आधारित दृष्टिकोणों पर लागू हो जाए ताकि ओवरफिशिंग से बचा जा सके, सभी समाप्त हो रही प्रजातियों के पुर्नवसन की योजनाए एवं उपाय तैयार हो, मत्स्य-पालन की खतरे वाली प्रजातियों एवं कमजोर पारिस्थितिक तंत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली कोई विधियाँ ना हो और पारिस्थितिक तंत्रों के प्रभाव सुरक्षित पारिस्थितिक सीमाओं के भीतर हो।
लक्ष्य 7 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक .षि, मत्स्य पालन एवं वानिकी क्षेत्रों के प्रबंधन में अक्षय विकास एवं जैव-विविधता का संरक्षण शामिल हो।
लक्ष्य 8 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, प्रदूषण, जिसमें अतिरिक्त पोषक तत्वों से होने वाला प्रदूषण भी शामिल हैं को, उन स्तरों पर लाना जो पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य और जैव विविधता के लिए हानिकारक नहीं हैं।
लक्ष्य 9 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, आक्रामक बाहरी प्रजातियों एवं उनके आने रास्तों की पहचान की जा चुकी हो तथा इनकी प्राथमिकताएँ तय की जा चुकी हो, प्राथमिकता वाली प्रजातियों का नियंत्रण या उन्मूलन किया जाए एवं उनके आने एवं स्थापित होने के रास्तां को बंद करने के उपायो के लिए आवश्यक प्रबंधन किया जाए।
लक्ष्य 10 - यह सुनिश्चित करना कि, 2015 तक, मूंगा-भित्तियों एवं अन्य कमजोर पारिस्थितिक तंत्रों पर मनुष्यों द्वारा पड़ने वाले प्रभावों, जलवायु परिवर्तन एवं समुद्र के अम्लीकरण के प्रभावों को निम्नतम किया जाए, ताकि वे ठीकठाक अपने प्राकृतिक स्वरूप में बन रह सके।
रणनीतिक लक्ष्य सी : पारिस्थितिक-तंत्रों, प्रजातियों और आनुवंशिक विविधताओं की सुरक्षा करके जैव-विविधता की स्थिति में सुधार करना
लक्ष्य 11 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, स्थलीय और अंतर्देशीय जल का कम से कम 17 प्रतिशत, तटीय और समुद्री क्षेत्रों का 10 प्रतिशत, विशेष रूप से जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए विशेष महत्व के क्षेत्रों को प्रभावी और एकरूप प्रबंधन, पारिस्थितिक रूप से प्रधान एवं और अच्छी तरह जुड़े हएु संरक्षित क्षेत्रों तथा अन्य क्षेत्र-आधारित संरक्षण उपायों द्वारा संरक्षित किया जाए एवं इन्हें व्यापक लैंडस्केप एवं सीस्केप में एकी.त किया जाए।
लक्ष्य 12 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक ज्ञात विलुप्त होने के कगार पर पहुँच चुकी प्रजातियों तथा उनमें विशेषतः वे जिनकी जनसंख्या में तेजी से कमी हो रही हैं का संरक्षण हो जाए।
लक्ष्य 13 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, उगाए जाने वाले पौधों, खेतो, पालतू जानवरों, जंगली जानवरों जिनमें सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों वाली प्रजातियाँ शामिल हैं कि जैनेटिक-विविधता बनी रहे तथा अनुवांशिक क्षरण को कम करने एवं आनुवंशिक विविधता की सुरक्षा की रणनीतियों का विकास और कार्यान्वयन किया गया हो।
रणनीतिक लक्ष्य डी : जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी-तंत्र से होने वाले लाभों को सभी के लिए बढ़ाना
लक्ष्य 14 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, महिलाओं, स्वदेशी और स्थानीय समुदायों, गरीबों एवं कमजोरों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जो पारिस्थितिक तंत्र जल से संबंधित सेवाओं सहित आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं, एवं स्वास्थ्य, आजीविका और तंदुरूस्ती में योगदान देते हैं, उन्हें बहाल कर उनकी रक्षा की जाए।
लक्ष्य 15 - यह सुनिश्चित करना कि, 2020 तक, संरक्षण और बहाली के माध्यम से, मूल्यह्वास वाली पारिस्थितिकी प्रणालियों के कम से कम 15 प्रतिशत की बहाली एवं जलवायु शमन एवं अनुकूलन तथा मरुस्थलीकरण का मुकाबला करके पारिस्थितिकी तंत्र में तन्यकता और जैव-विविधता के कार्बन-भंडार के लिए योगदान को बढ़ाया जाए।
लक्ष्य 16 -यह सुनिश्चित करना कि, 2015 तक, राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप, नागोया प्रोटोकॉल की जेनेटिक संसाधनों तक पहुंच तथा इससे होने वाले लाभों की उचित एवं न्यायसंगत साझेदारी, प्रभाव एवं परिचालन में हो।
रणनीतिक लक्ष्य ई : भागीदारी योजना, ज्ञान प्रबंधन और क्षमता निर्माण के माध्यम से कार्यान्वयन में वृद्धि करना
लक्ष्य 17 - 2015 तक प्रत्येक पक्षकार देश ने एक प्रभावी, भागीदारीपूर्ण और अद्यतन, राष्ट्रीय जैव विविधता रणनीति और कार्यनीति योजना को विकसित कर लागू करने की शुरुआत कर दी हो।
लक्ष्य 18 - 2020 तक, जैवविविधता के संरक्षण और स्थायी उपयोग के लिए स्वदेशी और स्थानीय समुदायों के पारंपरिक ज्ञान, नवाचारों और प्रथाओं, और जैविक संसाधनों के उनके प्रथागत उपयोग, राष्ट्रीय कानून और प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के अधीन, सम्मानित और पूरी तरह से हैं सभी प्रासंगिक स्तरों पर स्वदेशी और स्थानीय समुदायों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी के साथ कन्वेंशन के कार्यान्वयन में एकी.त और प्रतिबिंबित।
लक्ष्य 19 - 2020 तक, जैव विविधता से संबंधित प्रौद्योगिकियों, ज्ञान, विज्ञान एवं इनके मूल्य, कार्यप्रणाली, स्थिति और रुझान और इनके ऊपयों से होने वाले हानियों में सुधार के तरिके, व्यापक रूप से साझा, स्थानांतरित एवं लागू किए जा चुके हो।
लक्ष्य 20 - अधिकतम, 2020 तक, संसाधन प्राप्त करने की रणनीति में समेकित और सहमत प्रक्रिया के अनुसार, जैव विविधता 2011-2020 रणनीतिक योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सभी स्रोतों से प्राप्त वित्तीय संसाधनों का जुटाने के वर्तमान स्तर से पर्याप्त वृद्धि होनी चाहिए।
9.0 जैवविविधता पर संयुक्त राष्ट्र दशक 2011-2020
अक्टूबर 2010 में, जापान के नागोया में जैविक विविधता पर पक्षकारों के सम्मेलन की दसवीं बैठक में, सरकारों ने 2011-2020 के दशक को जैव विविधता के लिए सर्मपित करने और इसके आईची जैव-विविधता लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए रणनीतिक योजना पर सहमति व्यक्त की। यह योजना न केवल जैव विविधता से संबंधित सम्मेलनों के लिए, बल्कि पूरे संयुक्त राष्ट्र प्रणाली और जैव विविधता प्रबंधन और नीति विकास में लगे अन्य सभी भागीदारों के लिए जैव विविधता पर एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करती है।
इस आकस्मिक कार्य के लिए समर्थन जटाने एवं उसे गति प्रदान करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने 65 वें सत्र में 2011-2020 की अवधि को ‘संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता दशक’ घोषित किया।
जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र के दशक का लक्ष्य जैव विविधता के लिए रणनीतिक योजना के कार्यान्वयन का समर्थन करना और प्र.ति के साथ सद्भाव से रहने के अपने समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देना है।
अक्टूबर 2014 में जैविक विविधता पर पक्षकारों के सम्मेलन की बारहवीं बैठक में, इस तुरंत कार्य करने की भावान एवं एक नए उत्साह ने आईची जैव विविधता लक्ष्य को निर्धारित करने में मदद की। इसी तरह, आइची जैव विविधता लक्ष्य की टास्क फोर्स (एबीटीटीएफ) के सदस्यों ने प्र.ति के साथ सद्भाव में रहने की अपनी ईच्छा की प्रतिबद्धता को मजबूत किया।
अब, यह हम सभी के लिए, पहले से कहीं अधिक, प्र.ति के साथ सद्भाव में रहने का अब समय है।
10.0 एजेंडा 21 एवं पृथ्वी सम्मेलन रियो 1992
एजेंडा 21 धारणीय विकास के संबंध में संयुक्त राष्ट्र की एक गैर-बाध्यकारी कार्रवाई योजना है। यह 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन (पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन) का एक उत्पाद है। यह संयुक्त राष्ट्र, अन्य बहुपक्षीय संगठनों और दुनिया भर में व्यक्तिगत सरकारों के लिए एक कार्यसूची है जिसे स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर निष्पादित किया जा सकता है।
एजेंडा 21 में ‘21’ इक्कीसवीं सदी को संदर्भित करता है। इसकी पुष्टि की गई है और संयुक्त राष्ट्र के बाद के सम्मेलनों में इसमें कुछ संशोधन किए गए हैं। इसका उद्देश्य वैश्विक अक्षय विकास के लक्ष्य को प्राप्त करना है। एजेंडा 21 पहल, का एक प्रमुख उद्देश्य यह है कि प्रत्येक स्थानीय सरकार को अपना स्थानीय एजेंडा 21 बनाना चाहिए। वर्ष 2015 से, एजेंडा 2030 में अक्षय विकास लक्ष्यों को शामिल किया गया है।
13 जून 1992 को रियो डी जनेरियो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास (पृथ्वी शिखर सम्मेलन) में, जहां 178 सरकारों ने कार्यक्रम को अपनाने के लिए मतदान किया था, एजेंडा 21 का पूरा पाठ सार्वजनिक किया गया था। अंतिम पाठ 1989 में शुरू हुए समापन, आलेखन, परामर्श और बातचीत का परिणाम था जिसे दो सप्ताह की बैठक के बाद अंतिम रूप दिया गया।
रियो + 5 (1997) में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एजेंडा 21 (रियो ओलंपिक) की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए एक विशेष सत्र आयोजित किया।
रियो + 10 (2002) - जोहानसबर्ग योजना के कार्यान्वयन, अक्षय विकास पर विश्व शिखर सम्मेलन (पृथ्वी शिखर सम्मेलन 2002) पर सहमत हुए, एजेंडा 21 के ‘पूर्ण कार्यान्वयन’ के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
संस्तृति के लिए एजेंडा 21 (2002) - 2002 में ब्राजील के पोर्टो एलेग्रे में आयोजित संस्कृति पर पहली विश्व सार्वजनिक बैठक, स्थानीय सांस्.तिक नीतियों के लिए दिशा-निर्देश स्थापित करने के विचार के साथ आई, जो संस्कृति के लिए उसी प्रकार थी जैसे एजेंडा 21 पर्यावरण के लिए था।
रियो + 20 (2012) - द 2012, अक्षय विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में उपस्थित सदस्यों ने ‘द यूचर वी वांट’ नामक दस्तावेज में एजेंडा 21 के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की। 180 देशों के नेताओं ने भाग लिया।
अक्षय विकास शिखर सम्मेलन (2015) - एजेंडा 2030, जिसे अक्षय विकास लक्ष्यों के रूप में भी जाना जाता है, 2015 में संयुक्त राष्ट्र सतत विकास शिखर सम्मेलन में तय किए गए लक्ष्यों का एक समूह था।
पक्षकारों का सम्मेलन (सीओपी) - सीबीडी
पक्षकारों का सम्मेलन, सम्मेलन का नियामक निकाय है, और यह अपने आवधिक बैठकों में होने वाले निर्णयों के माध्यम से कार्यान्वयन करता है। आज तक पक्षकारों के सम्मेलन में 13 साधारण बैठकें एवं एक असाधारण बैठक (द्विपक्षीय प्रोटोकॉल को अपनाने के लिए, दो भागों में आयोजित की गई थी) हुई हैं। 1994 से 1996 तक, पक्षकारों के सम्मेलन ने अपनी साधारण बैठकें सालाना आयोजित कीं। तब से इन बैठकों को कुछ हद तक कम बार आयोजित किया गया है और 2000 में प्रक्रिया के नियमों में बदलाव के बाद, अब हर दो साल में आयोजित की जाएगी। पक्षकारों के सम्मेलन की बैठकों का एजेंडा बहुत व्यापक होता है जिसमें पक्षकारों के स्वयं के लिए निर्धारित कार्यों का प्रतिबिंब होता है ।
- सीओपी 14 -जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की चौदहवीं बैठक - शर्म अल-शेख, मिस्र, 17 - 29 नवंबर 2018
- सीओपी 13-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की तेरहवीं बैठक - कैनकन, मैक्सिको, 4 - 17 दिसंबर 2016
- सीओपी 12-जैव विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की -दोवीं बैठक - प्योंगचांग, कोरिया गणराज्य, 6 - 17 अक्टूबर 2014
- सीओपी 11-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की ग्यारहवीं बैठक - हैदराबाद, भारत, 8 - 19 अक्टूबर 2012
- सीओपी 10-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की दसवीं बैठक - नागोया, आइची प्रान्त, जापान, 18 - 29 अक्टूबर 2010
- सीओपी 9-जैविक विविधता पर कन्वेंशन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की बैठक - बॉन, जर्मनी, 19, 30 मार्च 2008
- सीओपी 8-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की आठवीं साधारण बैठक - कूर्टिबा, ब्राजील, 20 - 31 मार्च 2006
- सीओपी 7-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की सत्रहवीं साधारण बैठक - कुआलालंपुर, मलेशिया, 9 - 20 फरवरी 2004
- सीओपी 6-जीव विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की साधारण बैठक - हेग, नीदरलैंड, 7 - 19 अप्रैल 2002
- सीओपी 5-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की पांचवीं साधारण बैठक - नैरोबी, केन्या, 15 - 26 मई 2000
- ईएक्ससीओपी 1- जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पक्षकारों के सम्मेलन की असाधारण बैठक - कार्टाजेना, कोलंबिया और मॉन्ट्रियल, कनाडा, 22 - 23 फरवरी 1999 और 24 - 28 जनवरी 2000
- सीओपी 4-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पार्टियों के सम्मेलन की साधारण सभा की बैठक - ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया, 4 - 15 मई 1998
- सीओपी 3-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पार्टियों के सम्मेलन की साधारण सभा - ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना, 4 - 15 नवंबर 1996
- सीओपी 2-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पार्टियों के सम्मेलन की साधारण बैठक - जकार्ता, इंडोनेशिया, 6 - 17 नवंबर 1995
- सीओपी 1-जैविक विविधता पर सम्मेलन के लिए पार्टियों के सम्मेलन की पहली साधारण बैठक - नासाउ, बहामा, 28 नवंबर - 9 दिसंबर 1994
राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्ल्युएल)
- राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्ल्युएल) का गठन केंद्र सरकार द्वारा वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (डब्ल्युएलपीए) की धारा 5 ए के तहत किया गया है। राष्ट्रीय बोर्ड, अपने विवेक से, धारा 5 बी की उपधारा (1) के तहत एक स्थायी समिति का गठन कर सकता है। एनबीडब्ल्युएल की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं। इसमें प्रधानमंत्री सहित 47 सदस्य होते हैं। इनमें 19 सदस्य पदेन होते हैं। अन्य सदस्यों में तीन संसद सदस्य (दो लोकसभा से और एक राज्यसभा से), पाँच गैर सरकारी संगठन और 10 प्रख्यात पारिस्थितिकीविद्, संरक्षणवादी एवं पर्यावरणविद् शामिल होते हैं।
- स्थायी समिति में उपाध्यक्ष (वन एवं वन्यजीव मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री) सदस्य-सचिव तथा राष्ट्रीय बोर्ड के सदस्यों में से उपाध्यक्ष द्वारा नामित अधिक से अधिक दस सदस्य हो सकते हैं। चूंकि एनबीडब्ल्यूएल सभी 47 सदस्यों का बारंबार मिलना अव्यावहारिक है, अतः स्थायी समिति प्रत्येक तीन महीने में मिलती है। स्थायी समिती की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए समिती में विशेषज्ञ स्वतंत्र सदस्यों के बहुमत का कानूनी प्रावधान है। किंतु पूर्व समिती सदस्य प्रवीण भार्गव सितंबर 2016 माह में द हिंदू में लिखते है कि, इसकी नगण्य अस्वी.ति दर ने एबीडब्ल्युएल को ‘प्रोजेक्ट-क्लीयरिंग हाउस’ में बदल दिया है।
- यह एक ‘वैधानिक संगठन’ है, जिसका गठन वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत सरकार के प्रति, वन्यजीवों के संरक्षण के लिए नीतियों और उपायों को तैयार करने के मामलों में, ‘सलाहकार’ की भूमिका निभाने के लिए किया गया है।
- बोर्ड का प्राथमिक कार्य वन्यजीवों और वनों के संरक्षण और विकास को बढ़ावा देना है। इसे सभी वन्यजीव संबंधी मामलों की समीक्षा करने राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में और इसके आसपास की परियोजनाओं को मंजूरी देने की शक्ति प्राप्त है। राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों में सीमाओं में कोई भी बदलाव एनबीडब्ल्यूएल की मंजूरी के बिना नहीं किया जा सकता है।
- डब्ल्यूएलपीए में यह कानूनी प्रावधान है कि एनबीडब्ल्यूएल की मंजूरी/सिफारिश के बिना, टूरिस्ट लॉजों का निर्माण, पीए की सीमाओं में फेरबदल, वन्यजीवों के निवास स्थान का विनाश या डायवर्जन और टाइगर रिजर्व को हटाया नहीं जा सकता है।
- इस तरह की परियोजनाओं के लिए वैधानिक अनुमोदन की मांग करने वाले कई प्रस्ताव स्थायी समिति के सामने आते हैं जो हर तीन महीने में एक बार मिलकर इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेती हैं। प्रत्येक प्रस्ताव, को पूरे विवरण के साथ अनुमोदित प्रारूप में राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
- एनबीडब्ल्युएल के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में (अभयारण्यों के लिए धारा 29 और राष्ट्रीय उद्यानों के लिए धारा 35 की उपधारा (6)), यह है कि कोई भी व्यक्ति वन्य जीवों को हानि नहीं पहुँचा सकता, किन्हीं वन्यजीवो के निवास को बिना अनुमति के छेड़ नही सकता और इस तरह की कोई भी अनुमति तब तक नही दी जा सकती है जब तक कि यह वन्यजीवन में सुधार या बेहतर प्रबंधन के लिए आवश्यक नही समझी जाती। सरकारी परियोजनाएँ भी इस प्रावधान के दायरे में आती हैं।
- स्थायी समिती के सामने आने वाले ज्यादातर प्रस्ताव बांधों, राजमार्गों, खानों, बिजली लाइनों और ऐसी अन्य परियोजनाओं से संबंधित होते हैं जो वन्यजीवों को हानि पहुँचा सकती हैं उनके प्राकृतिक आवासों में हस्तक्षेप करती हैं। इसलिए स्थायी समिति के लिए यह अनिवार्य है कि वह इस तरह के हर प्रस्ताव पर धारा 35 की उपधारा (6) या धारा 29 के अनुरूप सख्ती से निर्णय दे। प्रत्येक निर्णय को तार्किक होना चाहिए तथा यह स्पष्टतः लिखा जाना चाहिए कि परियोजना किस तरह होनी चाहिए तथा लिया गया निर्णय किस तरह वन्यजीवों की स्थिती में में सुधार और बेहतर प्रबंधन सुनिश्चित करेगा।
- हालांकि, पर्यावरण और वन मंत्रालय की वेबसाइट पर पोस्ट किए गए फैसलों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर यह पता चलता हैं कि अधिकांश फैसलों में यह उजागर नहीं किया गया है कि डब्ल्यूएलपीए की धारा 29 या धारा 35 (6) का अनुपालन किस तरह सुनिश्चित किया गया है।
- एनबीडब्ल्युएल में विशिष्ट प्रावधानों में शामिल हैं :
- एस 33 (ए):राष्ट्रीय आवास बोर्ड की पूर्व स्वी.ति के अलावा वाणिज्यिक लॉज, होटल ... का कोई निर्माण नहीं किया जाएगा
- एस 35 (5): राष्ट्रीय बोर्ड की सिफारिश के अलावा किसी राष्ट्रीय उद्यान की सीमाओं में परिवर्तन नही किया जाएगा
- 35 (6): जब तक राष्ट्रीय बोर्ड के परामर्श पर राज्य सरकार इस तरह की अनुमति नही देती, तब तक किसी राष्ट्रीय उद्यान के वन्यजीवों या वनोपज को हटाया या हानि नहीं पहुँचाई जा सकती।
- एस 38-ओ (जी): यह सुनिश्चित करना कि, टाइगर रिजर्व तथा संरक्षित-क्षेत्रों को जोड़ने वाले क्षेत्रों को सार्वजनिक हितों के मुद्धों या राष्ट्रीय बोर्ड द्वारा मिली मंजूरी के मामलों को छोड़कर अन्य किसी भी मामलें में पारिस्थितिक के लिए अपरिहार्य उपयोगों के लिए डायवर्ट नहीं किया जाए। एस 38-डब्ल्यू (1) और (2): टाइगर रिजर्व्स में कोई भी परिवर्तन या उनकी समाप्ति राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के अनुमोदन के बिना नही की जा सकती।
- दुःख की बात है कि इनमें से कई अनुमतियां, अक्सर बिना जांच के और 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम का उल्लंघन करते हुए, मंजूर कर दी जाती हैं, संरक्षणवादियों का कहना है कि, ऐसा इसलिए है, क्योंकि कानून वन्यजीव या उसके बेहतर प्रबंधन के लिए के राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य या आरक्षित क्षेत्र में भूमि में बदलाव की अनुमति प्रदान करने की बात करता है। सत्रह बैठकों के विवरणों (एक एनजीओ ‘इंडियास्पेंड’ द्वारा चार वर्षों, 2018 तक प्राप्त) से पता चलता है कि एनबीडब्ल्युएल की स्थायी समिती ने औसतन, कुछ घंटों तक चलने वाली बैठक में मेज पर लगभग 40 से अधिक प्रस्तावों को निर्णय के लिए रखा जिनमें से स्वीकृत प्रस्तावों की औसत संख्या 28 थी।
- संरक्षणवादियों का तर्क है कि इस तरह जल्दबाजी, गलत विचार वाले निर्णय, वन्यजीवों के प्रति चिंता की कमी की को दर्शाते है एवं बाघों, हाथियों, तेंदुओं, गिद्धों, राजहंसों, हॉर्नबिल्स, घड़ियालों और डॉल्फिन सहित कई लुप्तप्राय प्रजातियों को खतरे में डालते हैं। संवेदनशील आवासों में केवल 1.1 प्रतिशत परियोजनाएं खारिज की गईं हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (युएनईपी) - यूएन एनवायरमेंट
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण) एक अग्रणी वैश्विक पर्यावरण प्राधिकरण है जो वैश्विक पर्यावरण कार्यसूचि तैयार करने, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सतत विकास के पर्यावरण आयाम के सुसंगत कार्यां को बढ़ावा देने, और वैश्विक पर्यावरण के लिए एक आधिकारिक पक्षधर के रूप में कार्य करता है।
- इनका मिशन राष्ट्रों और लोगों को भावी पीढ़ियों के जीवन के साथ समझौता किए बिना अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए प्रेरित, सूचित, और सक्षम करके पर्यावरण की देखभाल करने में नेतृत्व प्रदान करना और साझेदारी को प्रोत्साहित करना है।
- यह अपने मुख्यालय जो नैरोबी, केन्या में स्थित है के साथ-साथ अपने प्रभागों, कुछ क्षेत्रीय, संपर्क और बाहर तैनात कार्यालयों एवं उत्.ष्टता के केंद्रों के बढ़ते नेटवर्क के सहयोग के माध्यम से काम करता है। यह कई पर्यावरण सम्मेलनों, सचिवालय और अंतर-एजेंसी समन्वय निकायों की मेजबानी भी करता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण नेतृत्व एक कार्यकारी निदेशक करता है।
- इसका कार्य सात व्यापक विषयगत क्षेत्रों - जलवायु परिवर्तन, आपदा और संघर्ष, पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन, पर्यावरण शासन, रसायन और अपशिष्ट, संसाधन दक्षता, और पर्यावरण, में वर्गी.त है। इनके सभी कार्यों में, ये अक्षयता के प्रति अपनी अतिव्यापी प्रतिबद्धता को बनाए रखते हैं। ये अपनी आय के 95 प्रतिशत भाग के लिए ‘स्वैच्छिक योगदान’ पर निर्भर करता है।
- युएनईपी आज की सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए कई महत्वपूर्ण बहुपक्षीय पर्यावरणीय समझौतों और अनुसंधान निकायों के सचिवालयों, राष्ट्रों और पर्यावरण समुदायों को एक सूत्र में लाता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं :
- जैविक विविधता पर सम्मेलन
- वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन
- पारे पर मिनामाता सम्मेलन
- बेसल, रॉटरडैम और स्टॉकहोम सम्मेलन
- ओजोन परत और मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के संरक्षण के लिए वियना सम्मेलन
- प्रवासी प्रजातियों के लिए सम्मेलन
- कार्पेथियन सम्मेलन
- बमाको सम्मेलन
- तेहरान सम्मेलन
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