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मंत्रालय, सचिवालय और विभाग
1.0 प्रस्तावना
भारत जैसे एक (अर्द्ध) संघीय शासन में, संघीय सरकार और राज्य की सरकारों और उनके कानून के क्षेत्रों के बीच एक सुस्पष्ट सीमांकन है। 73 वें और 74 वें संशोधन अधिनियमों द्वारा भारत ने शासन की एक संरचना निर्मित की है - स्थानीय शासन। हालांकि इन सभी प्रकार के शासनों के बीच सबसे प्रभावी केंद्र शासन ही बना हुआ है, जो अधिकांश हद तक विभिन्न अंगों की भूमिकाओं और कर्तव्यों का निर्धारण करता है। संविधान में किसी भी शासकीय तंत्र या सचिवालय का कही भी उल्लेख नहीं किया गया है। संविधान में केवल एक प्रावधान है, अनुच्छेद 73(3), जो भारत के राष्ट्रपति को अधिकार प्रदान करता है कि वे कार्य के लिए नियमों का निर्माण करें। भारत सरकार के कार्यों के आवंटन के लिए भारत सरकार (कार्यों का आवंटन) नियम, 1961 भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस अनुच्छेद के तहत बनाये गए हैं। इन नियमों के तहत शासन के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों का निर्माण राष्ट्रपति द्वारा प्रधान मंत्री की सलाह से किया जाता है। शासन के कार्यों का निष्पादन मंत्रालयों/विभागों, सचिवालयों और कार्यालयों (जिन्हें ‘‘विभाग‘‘ के रूप में संदर्भित किया जाता है) के माध्यम से इन नियमों में निर्दिष्ट विषयों के वितरण के अनुसार किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह से प्रत्येक मंत्रालय एक मंत्री को सौंपा जाता है। नीतिगत मामलों और सामान्य प्रशासन पर मंत्रियों की सहायता के लिए प्रत्येक विभाग आमतौर पर एक सचिव के प्रभार के अधीन होता है।
1.1 सरकारी कामकाज का निष्पादन
संविधान के अनुच्छेद 77(3) के तहत सरकार के कार्यों के सुचारू संचालन के लिए राष्ट्रपति द्वारा जारी नियमों में निम्नलिखित नियम आते हैंः
- भारत शासन (कार्यों का आवंटन) नियम, 1961; और
- भारत शासन (कार्यकरण) नियम 1961।
कार्यों के आवंटन के नियम सरकार के कार्यों का विभिन्न विभागों के बीच आवंटन करते हैं, जो भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्री को निर्दिष्ट किये जाते हैं। एक मंत्री को आवंटित कार्यों के संबंध में ये नियम एक अन्य मंत्री या उप मंत्री के सहयोग की भी अनुमति प्रदान करते हैं, जिन्हें वे कार्य निष्पादित करने होते हैं जो विशेष रूप से उन्हें निर्दिष्ट किये गए हैं। कार्यकरण के नियम कार्यों के निपटान के संबंध में प्रत्येक विभाग के अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। आईये अब हम देखें भारतीय संविधान के विभिन्न भाग जो इस अध्ययन हेतु प्रासंगिक हैं। स्पष्ट है, भाग V, VI, VIII, IX, IX A, IX B एवं X प्रासंगिक है।
1.2 संविधान के प्रासंगिक अनुच्छेद
अनुच्छेद - 53 : राश्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
- संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।
- पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में निहित होगा और उसका प्रयोग विधि द्वारा विनियमित होगा।
- इस अनुच्छेद की कोई बात -
- किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी राज्य की सरकार या अन्य प्राधिकारी को प्रदान किए गए कृत्य राष्ट्रपति को अंतरित करने वाली नहीं समझी जाएगी; या
- राष्ट्रपति से भिन्न अन्य प्राधिकारियों को विधि द्वारा कृत्य प्रदान करने से संसद को निवारित नहीं करेगें
अनुच्छेद - 74 : मंत्री परिषद
(1) राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रि परिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधान मंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा
(परंतु राष्ट्रपति मंत्रि परिषद से ऐसी सलाह पर साधारणतया या अन्यथा पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकेगा और राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के पश्चात दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा।)
(2) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राष्ट्रपति को कोई सलाह दी, और दी तो क्या दी।
अनुच्छेद - 75 : मंत्रि परिषद
(1) प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा।
(1क) मंत्रि-परिषद में प्रधान मंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
(1ख) किसी राजनीतिक दल के संसद के किसी सदन का कोई सदस्य, जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिये निरर्हित है, अपनी निरर्हता की तारीख से प्रारंभ होने वाली और उस तारीख तक जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त होगी या जहां वह ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व संसद के किसी सदन के लिए निर्वाचन लड़ता है, उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता है, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, की अवधि के दौरान, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किये जाने के लिये भी निरर्हित होगा।
(2) मंत्री, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेगें।
(3) मंत्रि-परिषद लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
(4) किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले, राष्ट्रपति तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिए गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद की गोपनीयता की शपथ दिलाएगी।
(5) कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
(6) मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होंगे जो संसद, विधि द्वारा समय-समय पर अवधारित करे और जब तक संसद इस प्रकार अवधारित नहीं करती है तब तक ऐसे होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
अनुच्छेद - 77 : भारत सरकार के कार्य का संचालन
(1) भारत सरकार की समस्त कार्यपालिका कारवाई राष्ट्रपति के नाम से की हुई कही जाएगी।
(2) राष्ट्रपति के नाम से किए गए और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जाएगा जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह राष्ट्रपति द्वारा किया गया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।
(3) राष्ट्रपति, भारत सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और मंत्रियों में उक्त कार्य के आबंटन के लिए नियम बनाएगा।
अनुच्छेद - 352 : आपात की उद्घोषणा
(1) यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि गंभीर आपात विद्यमान है जिससे यु्द्ध या बाहय आक्रमण या (सशस्त्र विद्रोह) के कारण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह उद्घोषणा द्वारा (संपूर्ण भारत या उसके राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के संबंध में जो उद्घोषणा में विनिर्दिष्ट किया जाए) इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
(स्पष्टीकरण - यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि युद्ध या बाहय आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का संकट सन्निकट है तो यह घोषित करने वाली आपात की उद्घोषणा कि युद्ध या बाहय आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है, युद्ध या ऐसे किसी आक्रमण या विद्रोह के वास्तव में होने से पहले भी की जा सकेगी।)
(2) खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा में किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा परिवर्तन किया जा सकेगा या उसको वापस लिया जा सकेगा।
(3) राष्ट्रपति, खंड (1) के अधीन उद्घोषणा या ऐसी उद्घोषणा में परिवर्तन करने वाली उद्घोषणा तब तक नहीं करेगा जब तक संघ के मंत्रिमंडल का (अर्थात् उस परिषद् का जो अनुच्छेद 75 के अधीन प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल स्तर के अन्य मंत्रियों से मिलकर बनती है) यह विनिश्चय कि ऐसी उद्घोषणा की जाए, उसे लिखित रूप में संसूचित नहीं किया जाता है। [ (4), (5), (6), (7) एवं (8) इस चर्चा हेतु प्र्रासंगिक नहीं है ]
अतः इन अनुच्छेदों से वह संवैधानिक संरचना तैयार होती है जो प्रशासनिक ढ़ांचां में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री परिषद और मंत्री मंडल की भूमिका तय करती है।
2.0 मंत्री परिषद
संविधान द्वारा सभी मंत्रियों के लिए यह अनिवार्यता की गई है कि वे भारत की संसद के किसी एक सदन के सदस्य हों। मानदंड से थोड़ा अलग हट कर, लंबे समय तक शासन करने वाले प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह उपरी सदन, अर्थात राज्यसभा के सदस्य थे। वे राज्यसभा के सदस्य के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल (2004-2009) के संपूर्ण समय के दौरान भी रहे। सभी नहीं, परंतु पिछले अधिकांश प्रधानमंत्री लोकसभा के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। पद के अवरोही क्रमानुक्रम में मंत्रियों की तीन श्रेणियाँ हैंः
केंद्रीय कैबिनेट मंत्रीः किसी मंत्रालय के प्रभारी वरिष्ठ मंत्री। एक कैबिनेट मंत्री को ऐसे अन्य मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी सौंपा जा सकता है, जहां किसी अन्य मंत्री की नियुक्ति नहीं की गई है।
केंद्रीय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) - अपने प्रभार हेतु स्वतंत्र, कोई अधीक्षण मंत्री नहीं।
राज्य मंत्रीः कनिष्ठ मंत्री जो अपने कार्य का ब्यौरा अपने वरिष्ठ मंत्री को देते हैं। आमतौर पर ऐसे मंत्रियों को मंत्रालय के तहत किसी विशिष्ट विभाग की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। उदाहरणार्थ, वित्त मंत्रालय के राज्य मंत्री जो केवल कर संबंधी मामलों का ही कार्य संभालेंगे।
2.1 मंत्रिमंडल एवं मंत्री परिषद
हालांकि इन शब्दों का अदल-बदल कर उपयोग किया जाता है, तथापि उनमें रचना, कार्यों और भूमिकाओं की दृष्टि से अंतर होता है।
3.0 मंत्रालय एवं विभाग
एक सामान्य मंत्रालय एक या एक से अधिक विभागों से मिल कर बनता है, इसमें प्रत्येक का जिम्मा एक सचिव के पास होता है। मंत्रालय के प्रमुख सामान्यतः कैबिनेट मंत्री होते हैं, और उनकी मदद हेतु राज्य मंत्री होते हैं। मंत्री की मदद हेतु (मंत्रालय का) सचिवालय होता है जो कार्य निष्पादन में सहायता करता है। मंत्री नीतिगत मुद्दे तय करते हैं, एवं उनका क्रियान्वयन एवं निष्पादन सचिवालय के विभाग करते हैं। (सचिवालय के)
अपने आवंटित कार्यों के क्षेत्र में विभाग सरकार की नीतियों के निर्माण, और उन नीतियों के क्रियान्वयन और समीक्षा के लिए भी उत्तरदायी होता है।
उन्हें आवंटित किये गए कार्यों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करने के लिए विभागों को अंगों, शाखाओं, खण्डों और अनुभागों में विभाजित किया जाता है।
आमतौर पर विभागों के प्रमुख भारत सरकार के सचिव होते हैं, जो विभाग के प्रशासनिक प्रमुख का कार्य भी करते हैं। साथ ही वे विभाग के अंतर्गत आने वाले सभी नीतिगत और प्रशासनिक मामलों पर मंत्री के प्रमुख सलाहकार होते है।
जब विभाग का कार्य इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह संपूर्ण कार्य अकेले सचिव द्वारा नहीं संभाला जा सकता, तो ऐसी स्थिति में विभाग के एक या एक से अधिक अंग स्थापित किये जाते हैं, जिनमें विभाग के प्रत्येक अंग के लिए एक प्रभारी सचिव, या विशेष सचिव/अतिरिक्त सचिव/संयुक्त सचिव नियुक्त किया जाता है। ऐसे पदाधिकारी को उनके अंग के अंतर्गत आने वाले कार्यों और जिम्मेदारियों में अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान की जाती है, हालांकि विभाग के समग्र प्रशासन की दृष्टि से संपूर्ण जिम्मेदारी सचिव में निहित होती है। एक अनुभाग एक विभाग की सबसे सबसे निचली इकाई होता है, जिसका कार्यक्षेत्र व्यवस्थित रूप से परिभाषित होता है। इसमें आमतौर पर सहायक और लिपिक होते है, जिनके पर्यवेक्षण की जिम्मेदारी अनुभाग अधिकारी/कार्यालय अधीक्षक/प्रधान लिपिक की होती है। मामलों का प्रारंभिक निपटान (जिसमें टिप्पणियां और मसौदा तैयार करना शामिल है) आमतौर पर सहायकों और लिपिकों द्वारा किया जाता है।
जबकि उपरोक्त व्यवस्था सामान्य तौर पर अपनाये गए विभाग के संगठनात्मक स्वरुप का प्रतिनिधित्व करती है, इसमें कुछ भिन्नताएं भी हैं, इनमें से सर्वाधिक उल्लेखनीय है डेस्क अधिकारी व्यवस्था। इस व्यवस्था में विभाग के सबसे निचले स्तर का कार्य विभिन्न निश्चित परिचालनात्मक डेस्कस के रूप में संगठित किया जाता है, जिस प्रत्येक डेस्क पर उचित पद का अधिकारी रखा जाता है, उदाहरणार्थ, अवर सचिव या अनुभाग अधिकारी, जो स्वयं मामलों को निपटाता है, और इन्हें पर्याप्त संख्या में आशुलिपिक ध् लिपिक सहायता प्रदान की जाती है।
4.0 मंत्रिमंडल सचिवालय
मंत्रिमंडल सचिवालय का निर्माण 1947 में किया गया था। राजनीतिक दृष्टि से इसके प्रमुख प्रधानमंत्री होते हैं, जबकि प्रशासनिक दृष्टि से इसके प्रमुख कैबिनेट सचिव होते हैं। आज कैबिनेट सचिवालय की तीन शाखाएं हैं - नागरिक शाखा, सैन्य शाखा और खुफिया शाखा। 1988 में इसके एक अंग के रूप में लोक शिकायत निदेशालय का गठन किया गया। मंत्रिमंडल सचिवालय में प्रधानमंत्री की सहायता के लिए विषय संबंधी सलाहकार होते हैं।
मंत्रिमंडल सचिवालय का कार्य है मंत्रिमंडल और इसकी विभिन्न समितियों को सचिवीय सहायता प्रदान करना, मंत्रिमंडल की बैठकों के लिए तैयारी करना, चर्चा के लिए आवश्यक सामग्री और जानकारी प्रदान करना य सचिवालय मंत्रिमंडल की बैठकों में हुई चर्चाओं और उनमें हुए निर्णयों का रिकॉर्ड रखता है। इसके अतिरिक्त मंत्रिमंडल के अनुमोदन के लिए रुके हुए मामलों के ज्ञापन परिचारित करना, और मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णयों को सभी मंत्रालयों में परिचालित करना। साथ ही बडी संख्या में निर्दिष्ट विषयों पर मासिक सारांश तैयार करना और उन्हें मंत्रिमंडल को प्रस्तुत करना भी मंत्रिमंडल सचिवालय के कार्यों का एक भाग है। मंत्रिमंडल सचिवालय मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णयों के संबंधित मंत्रालयों और अन्य कार्यकारी अभिकरणों द्वारा क्रियान्वयन की निगरानी भी करता है। इस प्रयोजन से वह विभिन्न मंत्रालयों/विभागों से जानकारी की मांग भी कर सकता है। मंत्रिमंडल सचिवालय द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार, प्रत्येक मंत्रालय उसे एक मासिक विवरण प्रस्तुत करता है, जिसमें मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णयों से संबंधित मामलों की प्रगति का विस्तृत विवरण होता है।
मंत्रिमंडल सचिवालय की अगली मुख्य भूमिका है केंद्र सरकार के एक प्रमुख समन्वय अभिकरण के रूप में कार्य करना। मंत्रिमंडल सचिवालय के समक्ष अनेक मामले लाये जाते हैं जिनका संबंध राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विभिन्न मंत्रालयों और संसद से होता है, जिनके बारे में वह सहायता और सलाह प्रदान करता है।
4.1 मंत्रिमंडल सचिवालय के मुख्य कार्य
मंत्रिमंडल सचिवालय का मुख्य कार्य निम्न विषयों से संबंधित सलाह प्रदान करना है
- कानून से संबंधित मामले, जिनमें अध्यादेश जारी करना भी शामिल है
- राष्ट्रपति के संसद में किये जाने वाले अभिभाषण और राष्ट्रपति के संसद को संदेश
- विभिन्न देशों के साथ होने वाले समझौतों और संधियों पर चर्चा से संबंधित मामले
- किसी भी हैसियत से विदेशों में भेजे जाने वाले प्रतिनिधिमंडलों के प्रस्ताव
- सार्वजनिक जांच समिति की नियुक्ति के प्रस्ताव, और इन समितियों द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट पर विचार करना
- वित्तीय निहितार्थों से संबंधित मामले
- ऐसे मामले जो मंत्री निर्णय और निर्देशों के लिए मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। मंत्रियों के बीच मत भिन्नता से संबंधित मामले
- निर्णयों को परिवर्तित करने या वापस लेने सबंधी प्रस्ताव
- ऐसे मामले जो प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हों
- सरकार द्वारा संस्थापित मुकदमों को वापस लेने के प्रस्ताव।
4.2 मंत्रिमंडल सचिव
जैसा कि पहले कहा गया है, कैबिनेट सचिव मंत्रिमंडल सचिवालय का प्रशासनिक प्रमुख होता है। इस पद का निर्माण 1950 में किया गया था। कैबिनेट सचिव प्रधानमंत्री के नेतृत्व के तहत कार्य करते हैं, जो राजनीतिक स्तर पर इसके प्रभारी मंत्री होते हैं। इनका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठतम अधिकारियों में से किया जाता है। सचिव से उम्मीद की जाती है कि उन्हें पर्याप्त और समृद्ध प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हो।
हालांकि सचिव का प्रमुख कार्य मंत्री परिषद को सहायता प्रदान करना है, वास्तव वे मंत्रिमंडल के मामलों को निपटाते हैं। इसके लिए हालांकि वे विभिन्न मंत्रियों के साथ संपर्क रखते हैं, और विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के प्रभारी सचिवों के साथ निकट संपर्क बनाये रखते हैं। वे लोक सेवा के प्रमुख भी हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि लोक सेवकों की नैतिकता उच्च स्तर की बनी रहे। वे राजनीतिज्ञों और लोक सेवकों के बीच एक अंतर्रोधक के रूप में भी कार्य करते हैं और इन दोनों अंगों में संघर्ष की स्थिति में लोक सेवकों के हितों की रक्षा सुनिश्चित करते हैं। यह एक ऐसा पद है जिसका सपना प्रत्येक लोक सेवक देखता है। जिन श्रेष्ठ लोक सेवकों ने इस पद को विभूषित किया है उनमें से कुछ नाम हैं नरेश चंद्रा, बी.जी. देशमुख, टी.एन. शेषन, इत्यादि।
मंत्रिमंडल की बैठकों में मंत्रिमंडल सचिव बैठक के कार्यवृत्त तैयार करते हैं जिनमें बैठक में लिए गए निर्णयों की जानकारी समाविष्ट होती है। प्रधानमंत्री के अनुमोदन के बाद कैबिनेट सचिव ये कार्यवृत्त संबंधित मंत्रियों और सचिवों को प्रेषित करते हैं। उन्हें इन मामलों में पूर्ण गोपनीयता रखना अनिवार्य है। सचिव यह भी सुनिश्चित करते हैं कि निर्णयों का व्यवस्थित ढंग से क्रियान्वयन हो रहा है अथवा नहीं। वे हमेशा प्रधानमंत्री के साथ निकटता बनाये रखते हैं। वे उन सभी मामलों में प्रधानमंत्री को सलाह देते हैं, जिनपर उनकी सलाह की मांग की गई है। मंत्रिमंडल सचिव का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य है प्रशासनिक मामलों पर सचिवों की समिति की बैठकों की अध्यक्षता करना, जिसका गठन विभिन्न मंत्रालयों के बीच विवादों के निराकरण के लिए किया गया है। वे मुख्य सचिवों के सम्मेलन की अध्यक्षता भी करते हैं।
प्रधानमंत्री और संपूर्ण देश के संबंध में मंत्रिमंडल सचिव को एक और भूमिका भी निभानी पड़ती है। अन्य लोक सेवकों की ही तरह प्रधानमंत्री के त्यागपत्र या निधन की स्थिति में वे स्थिरता और निरंतरता का तत्व प्रदान करते हैं। अंतरिम अवधि के दौरान एक कार्यवाहक प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल अस्तित्व में रहता है, परंतु यही एक ऐसा समय है जब मंत्रिमंडल सचिव की सेवाएं अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती हैं। वे केंद्र सरकार के मुख्य समन्वयक हैं। केंद्र सरकार में आधिकारिक कार्यों की प्रक्रिया से संबंध बनाये रखने की दृष्टि से मंत्रिमंडल सचिव प्रधानमंत्री को आँख और कान प्रदान करते हैं।
5.0 केंद्रीय सचिवालय
केंद्रीय सचिवालय का संबंध उन विभिन्न कार्यालयों और विभागों से है जिनका परिचालन केंद्र सरकार के सचिवों द्वारा किया जाता है। भारत की प्रशासनिक संरचना में विभिन्न प्रकार के सरकारी कार्यालय हैं जो उनके स्वरुप और कार्यों की व्यापकता में भिन्न होते हैं। इन सभी कार्यालयों के शिखर पर केंद्रीय सचिवालय होता है। इसके प्रमुख, अर्थात सचिव का कार्य, संबंधित मंत्री को नीतिगत मामलों और प्रशासनिक मामलों में सलाह और सहायता प्रदान करना है। वे अपने कार्य सुचारू रूप से संपन्न कर सकें इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें एक कार्यालय उपलब्ध कराया जाए। इसी कार्यालय को केंद्रीय सचिवालय कहा जाता है।
भारत का संविधान भारतीय संघ के कार्यकारी अधिकार देश के राष्ट्रपति में निहित करता है। केंद्र सरकार के सभी कार्यकारी कर्तव्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं। हालांकि भारत के राष्ट्रपति केवल संवैधानिक और औपचारिक प्रमुख हैं, और राष्ट्रपति को उनके कार्यों में सलाह और सहायता देने के लिए एक मंत्री परिषद विद्यमान रहती है, जिसके प्रमुख देश के प्रधान मंत्री होते हैं। दूसरे शब्दों में, वास्तविक कार्यकारी शक्तियां मंत्री परिषद में निहित होती हैं, जिसके प्रभावी प्रमुख देश के प्रधान मंत्री होते हैं। मंत्री अकेले सभी कार्य नहीं कर सकते क्योंकि ये सभी कार्य अत्यंत जटिल होते हैं, और जिनके निष्पादन के लिए प्रभावी सहायता की आवश्यकता होती है। इसीलिए प्रशासन के प्रयोजन से भारत का शासन मंत्रालयों और विभागों में विभाजित है, जो सभी मिलकर ष्केंद्रीय सचिवालयष् का निर्माण करते हैं। सचिवालय की सलाह से मंत्रियों द्वारा प्रतिपादित नीतियों के क्रियान्वयन के लिए संलग्न कार्यालय, अधीनस्थ कार्यालय और अन्य क्षेत्रीय अभिकरण होते हैं।
सचिवालय शब्द का अर्थ है सचिव का कार्यालय। केंद्र सरकार के तीन आवश्यक अंग हैंः (1) मंत्री, (2) सचिव, और (3) कार्यकारी प्रमुख। मंत्री का सबसे प्रमुख कार्य होता है नीतिगत निर्णय लेना; जिसके लिए सचिव को उन्हें वह प्रासंगिक सामग्री प्रदान करनी होगी ताकि वे उचित निर्णय कर सकें, और उन नीतियों के क्रियान्वयन की निगरानी कर सकें; और कार्यकारी प्रमुख का कार्य है उन निर्णयों को प्रभाव में लाना। पहले दो कार्य, अर्थात मंत्री और सचिव के कार्य सचिवालय संस्था द्वारा किये जाते हैं जिसे मंत्रालय या विभाग कहा जाता है। सचिवालय द्वारा जारी किये गए आदेशों या निर्देशों को भारत सरकार के आदेश माना जाता है। इस प्रकार प्रशासनिक क्रमानुक्रम में केंद्रीय सचिवालय का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शाब्दिक अर्थों में कहा जाए तो सचिवालय केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के संगुटीकरण से अधिक कुछ नहीं है।
मंत्री परिषद की ही तरह सचिवालय भी एक एकल इकाई के रूप में कार्य करता है जिसकी सामूहिक जिम्मेदारी होती है। नियमों के तहत किसी भी मामले को निपटाने से पहले प्रत्येक सचिवालय विभाग को अन्य विभागों से परामर्श करना होता है जिनका मामले से संबंध होता है या जिनकी उस मामले में रूचि होती है। इस प्रकार, देखा जाए तो सचिव समग्र रूप से केंद्र सरकार के सचिव होते हैं, किसी मंत्री विशेष के सचिव नहीं होते। सचिवालय का अवर सचिव या उससे उच्च पद का अधिकारी भारत के राष्ट्रपति की ओर से, अर्थात संपूर्ण केंद्र सरकार की ओर से दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करता है। परामर्श के लिए प्रधान मंत्री किसी भी सचिव को बुलाने के लिए स्वतंत्र हैं।
सचिवालय की प्राथमिक जिम्मेदारी मंत्रियों को निम्न मामलों में सलाह या सहायता प्रदान करना हैः
- समय-समय पर नीतियां बनाना और उनमें संशोधन करना
- कानून के नियमों और विनियमों का निर्माण करना
- क्षेत्रीय नियोजन और कार्यक्रम निर्मिति
- बजट बनाना और व्यय पर नियंत्रण रखना
- क्षेत्रीय अभिकरणों द्वारा क्रियान्वित की जा रही नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर निगरानी और नियंत्रण रखना, और परिणामों का मूल्यांकन करना
- नीतियों और कार्यक्रमों का समन्वय एकीकरण करना और राज्य साथ संपर्क स्थापित करना
- अधिक संगठनात्मक कौशल विकसित करना, और
- मंत्रियों को उनके संसदीय उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सहायता प्रदान करना।
5.1 कार्यकाल प्रणाली
जैसे एस.आर. माहेश्वरी द्वारा परिभाषित किया गया है, ‘‘एक नियम के अनुसार सचिवालय में वरिष्ठ पदों का प्रबंधन राज्यों से (और कुछ केंद्रीय सेवाओं से भी) आये हुए अधिकारियों द्वारा एक निर्धारित अवधि के लिए किया जाता है, और अपना ‘‘कार्यकाल‘‘ पूर्ण होने के बाद वे अपने संबंधित राज्य या अपनी संबंधित सेवा में वापस जायेंगे (या उन्हें जाना चाहिए)। सरकारी भाषा में इस व्यवस्था को कार्यकाल प्रणाली कहा जाता है।‘‘ इस प्रकार, कर्मचारियों की कार्यकाल प्रणाली में इस प्रकार प्रतिनियुक्त प्रत्येक अधिकारी को केंद्रीय सचिवालय में एक निश्चित अवधि के लिए कार्य करना होता है, जो सचिवालय के क्रमानुक्रम में श्रेणियों के अनुसार निम्नानुसार बदलती रहती हैः
- सचिव एवं संयुक्त सचिव 5 वर्ष
- उप सचिव 4 वर्ष
- अवर सचिव 3 वर्ष
5.2 पदों एवं वर्गों का वर्णन
वर्तमान में केंद्रीय सचिवालय में अधिकारी वर्ग इस प्रकार हैंः
- सचिव
- अपर सचिव
- संयुक्त सचिव
- उप सचिव
- अवर सचिव
पहले तीन वर्ग प्रशासनिक भाषा में ‘शीर्ष प्रबंधन’ कहलाते हैं एवं उप सचिव एवं अवर सचिव के पद ‘मध्यम प्रबंधन’ कहलाते है। सचिव उस मंत्रालय या विभाग का प्रशासनिक प्रमुख होता है एवं मंत्री का प्रमुख सलाहाकार भी। संसदीय समितियों के सम्मुख सचिव अपने मंत्रालय / विभाग का प्रतिनिधित्व करता है।
सचिव का दायित्व होता है की वह अपने विभाग द्वारा किये जा रहे कार्यों को लेकर पूरी तरह सचेत रहे और निचले स्तरो द्वारा पूर्ण किये जा रहे कार्यों की साप्ताहिक समीक्षा करते रहे। जहां किसी सचिव का कार्यभार बेहद ज्यादा हो, तब उसकी मदद हेतु एक संयुक्त या अपर सचिव भी होगा जो आवंटित विषयों में अपने विभाग या मंत्रालय में सचिव की ही भूमिका निभायेगा। अतः उसका कार्य होगा कि वह एक संपूर्ण विषय का बोझ सचिव से हटा दे और जहां आवश्यक हो मंत्री से से प्रत्यक्ष वार्ता करे। इस दौरान इन सभी घटनाओं के बारे में सचिव को लगातार जानकारी दी जाना आवश्यक है, क्योंकि उसे औपचारिक रूप से उस दायित्व से मुक्त नहीं किया गया है।
उप सचिव ऐसा अधिकारी होता है, जैसा कि पदनाम दर्शाता है, जो सचिव की ओर से कार्य करता है। अपने स्तर पर यथासंभव जितने हो उतने मामले उसे निपटाने चाहिये। केवल अधिक महत्वपूर्ण मामलों में ही उसे सचिव के निर्देश प्राप्त करने हेतु लिखित में या मौखिक चर्चा कर निर्देश प्राप्त करने चाहिये।
अवर सचिव को छोटे मामले अपने स्तर पर निपटा लेने चाहिये। उसे अधिक महत्वपूर्ण मामले उप सचिव को ऐसे प्रारूप में देने चाहिये कि वह उनसे तुरंत निपट सके। इन सभी अधिकारियों को अपने-अपने कर्तव्य निर्वाहन करते समय याद रखना होगा की भारत सरकार का हित इसमें है। सचिव दरअसल भारत सरकार का सचिव होता है, केवल अपने मंत्री का नहीं। यही बात निचले स्तरों पर भी लागू होती है।
6.0 प्रधानमंत्री का कार्यालय (पीएमओ)
देश की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में सरकार के प्रमुख के नाते और वास्तविक कार्यकारी प्राधिकारी के नाते प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रमुख होती है। अपने विभिन्न कर्तव्यों के निर्वहन में प्रधानमंत्री का कार्यालय उन्हें सहायता प्रदान करता है। यह कार्यालय प्रधानमंत्री को सचिवीय सहायता और सलाह प्रदान करता है। यह कार्यालय भारत सरकार की सर्वोच्च स्तर की निर्णय प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि यह कार्यालय एक संविधानेतर निकाय है। इसका स्तर भारत सरकार के एक विभाग के समकक्ष होता है, हालांकि इसके तहत कोई संलग्न या अधीनस्थ कार्यालय नहीं होते। यह अगस्त 1947 में तब अस्तित्व में आया जब भारत एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरा, तब इसे प्रधानमंत्री का सचिवालय कहा जाता था। जून 1977 में इसका नाम परिवर्तित किया गया, और अब इसे प्रधानमंत्री का कार्यालय कहा जाता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख भारत के प्रधान सचिव होते हैं।
6.1 रचना
राजनैतिक दृष्टि से प्रधानमंत्री इस कार्यालय के प्रमुख होते हैं, जबकि प्रशासनिक दृष्टि से प्रधान सचिव इसके प्रमुख होते हैं। इसमें कुछ अतिरिक्त सचिव और कुछ संयुक्त सचिव होते हैं। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और वे निम्नलिखित कार्य करते हैंः
- कार्यालय में आने वाली सभी सरकारी फाइलों का निपटारा करते हैं
- सभी महत्वपूर्ण दस्तावेज प्रधानमंत्री के समक्ष जानकारी और उचित आदेशों और निर्देशों के लिए प्रस्तुत करते हैं
- प्रधानमंत्री द्वारा महत्वपूर्ण गणमान्य व्यक्तियों के साथ की जाने वाली चर्चाओं पर टिप्पणियां तैयार करते हैं
- प्रधानमंत्री के निर्देशों के अनुसार विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की गतिविधियों की निगरानी करते हैं
- कार्यालय के विभिन्न कर्मियों की गतिविधियों का समन्वय करते हैं
प्रधानमंत्री का कार्यालय कुछ अन्य कार्य भी निष्पादित करता है जैसेः केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों के साथ समन्वय और संपर्क बनाये रखना, योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद के अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यों के निर्वहन में प्रधानमंत्री को सहायता प्रदान करना, प्रधानमंत्री के जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में कार्य करना, और इसे प्रधानमंत्री का ‘‘थिंक टैंक‘‘ माना जाता है। सभी मालों को भी देखता है जो किसी मंत्रालय या विभाग को नहीं सौंपे गए हैं।
बीते वर्षों में प्रधानमंत्री का कार्यालय काफी बड़ा और शक्तिशाली बन गया है। वर्तमान में इसमें 350 से अधिक व्यक्ति कार्यरत हैं। यह विशाल प्रतिष्ठान एक ‘‘समानांतर प्रशासन‘‘ के रूप में कार्य करता है, अर्थात केंद्र सरकार का प्रत्येक मंत्रालय और विभाग यहां दोहराया जाता है। आलोचकों ने प्रधानमंत्री कार्यालय का वर्णन ‘‘सुपर मंत्रिमंडल‘‘, ‘‘सूक्ष्म मंत्रिमंडल‘‘, ‘‘सुपर सचिवालय‘‘, ‘‘भारत सरकार‘‘ इत्यादि जैसे विभिन्न विश्लेषणों से किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय को विशेष रूप से श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में, और श्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान काफी शक्तिशाली बनाया गया, और तब से लेकर आज तक यह अधिकाधिक शक्तिशाली बना हुआ है।
7.0 मंत्रालयों/विभागों की सूची (51 मंत्रालय और 54 विभाग)
1. कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय
(i) कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग
(ii) कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग
(iii) पशुपालन, डेयरी एवं मत्स्यपालन विभाग
2. आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होमियोपैथी)
3. रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय
(i) रसायन एवं पेट्रो-रसायन विभाग
(ii) उर्वरक विभाग
(iii) औषधि विभाग
5. कोयला मंत्रालय
6. वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय
(i) वाणिज्य विभाग
(ii) औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग
7. दूरसंचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय
(ii) इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग
(ii) डाक विभाग
(iii) दूरसंचार विभाग
(i) उपभोक्ता मामलों का विभाग
(ii) खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग
9. निगमित मामले मंत्रालय
10. संस्कृति मंत्रालय
11. रक्षा मंत्रालय
(i) रक्षा विभाग
(ii) रक्षा उत्पादन विभाग
(iii) रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग ;क्त्क्व्द्ध
(iv) भूतपूर्व सैनिक कल्याण विभाग
12. पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय
13. पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय
14. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय
(i) भारतीय मौसम विज्ञान विभाग
15. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
16. विदेश मंत्रालय
(i) विदेशी भारतीय मामलों का मंत्रालयीन विभाग
17. वित्त मंत्रालय
(i) विनिवेश एवं सार्वजनिक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग
(ii) आर्थिक मामलों का विभाग
(iii) व्यय विभाग
(iv) वित्तीय सेवा विभाग
(v) राजस्व विभाग
19. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय
(i) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग
(i) स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग
20. भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय
(i) भारी उद्योग विभाग
(ii) सार्वजनिक उद्यम विभाग
21. गृह मंत्रालय
(i) केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल
(ii) केन्द्रीय पुलिस संगठन
(iii) सीमा प्रबंधन विभाग
(iv) गृह विभाग
(v) आंतरिक सुरक्षा विभाग
(vi) जम्मु एवं काश्मीर के मामलों का विभाग
(vii) आधिकारिक भाषा विभाग
(viii) राज्यों का विभाग
22. आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय
23. मानव संसाधन विकास मंत्रालय
(i) उच्च शिक्षा विभाग
(ii) विद्यालयीन शिक्षा एवं साक्षरता विभाग
24. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय
25. श्रम एवं रोजगार मंत्रालय
26. कानून एवं न्याय मंत्रालय
(i) न्याय विभाग
(ii) कानूनी मामलों का विभाग
(iii) विद्यायिका विभाग
27. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय
28. खान मंत्रालय
29. अल्पसंख्यक मामले मंत्रालय
30. नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय
31. पंचायती राज मंत्रालय
32. संसदीय कार्य मंत्रालय
33. कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय
(i) प्रशासनिक सुधार एवं लोक शिकायत विभाग
(ii) पेंशन एवं पेंशनभोगी कल्याण विभाग
(iii) कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग
34. पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय
35. विद्युत मंत्रालय
36. रेल मंत्रालय
37. सड़क परिवहन एवं महामार्ग मंत्रालय
38. ग्रामीण विकास मंत्रालय
(i) भूसंसाधन विभाग
(ii) ग्रामीण विकास विभाग
39. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय
(i) जैव प्रौद्योगिकी विभाग
(ii) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
(iii) वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग
40. जहाजरानी मंत्रालय
41. कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय
42. सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय
(i) विकलांग व्यक्तियों का सशक्तिकरण विभाग
(ii) सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण विभाग
43. सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय
44. इस्पात मंत्रालय
45. वस्त्रोद्योग मंत्रालय
46. पर्यटन मंत्रालय
47. जनजातीय मामलों का मंत्रालय
48. शहरी विकास मंत्रालय
49. जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय
50. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
51. युवा मामले एवं खेल मंत्रालय
(i) खेल विभाग
(ii) युवा मामले विभाग
52. परमाणु ऊर्जा विभाग (स्वतंत्र विभाग)
53. अंतरिक्ष विभाग (स्वतंत्र विभाग)
- Problems of Redress of Citizens Grievances (Interim),
- Machinery for Planning,
- Public Sector Undertakings,
- Finance, Accounts & Audit,
- Machinery for Planning (Final),
- Economic Administration,
- The Machinery of GOI and its procedures of work,
- Life Insurance Administration,
- Central Direct Taxes Administration,
- Administration of UTs & NEFA,
- Personnel Administration,
- Delegation of Financial & Administrative Powers,
- Center-State Relationships,
- State Administration,
- Small Scale Sector,
- Railways,
- Treasuries,
- Reserve Bank of India,
- Posts and Telegraphs, and
- Scientific Departments.
- The Second ARC was setup by the Government of India on 31 August 2005 under the Chairmanship of Shri M. Veerappa Moily with the mandate to suggest measures to achieve a proactive, responsive, accountable, sustainable and efficient administration for the country at all levels of the government. The Commission submitted its report in 15 parts during June 2006 to May 2009.
- The Commission was given the mandate to suggest measures to achieve a proactive, responsive, accountable, sustainable and efficient administration for the country at all levels of the government. The Commission was asked to, inter alia, consider the following : (i) Organisational structure of the Government of India (ii) Ethics in governance (iii) Refurbishing of Personnel Administration (iv) Strengthening of Financial Management Systems (v) Steps to ensure effective administration at the State level (vi) Steps to ensure effective District Administration (vii) Local Self-Government/Panchayati Raj Institutions (viii) Social Capital, Trust and Participative public service delivery (ix) Citizen-centric administration (x) Promoting e-governance (xi) Issues of Federal Polity (xii) Crisis Management (xiii) Public Order
- The commission presented the following 15 Reports : (1) Right to Information - Master Key to Good Governance (09.06.2006), (2) Unlocking Human Capital - Entitlements and Governance-a Case Study (31.07.2006), (3) Crisis management - From Despair to Hope (31.10.2006), (4) Ethics in Governance (12.02.2007), (5) Public Law and Order - Justice for each..... peace for all (25.06.2007), (6) Local Governance (27.11.2007), (7) Capacity Building for PEACE Resolution - Friction to Fusion (17.3.2008), (8) Combating Terrorism, (9) Social Capital - A Shared Destiny, (10) Refurbishing of Personnel Administration - Scaling New Heights, (11) Promoting e-Governance - The Smart Way Forward (A. 20.01.2009), (12) Citizen Centric Administration - The Heart of Governance, (13) Organisational Structure of Government of India, (14) Strengthening Financial Management Systems, and (15) State and District Administration.
- Optimum size of government workforce : An optimum size of government workforce is essential for its effective functioning. While an oversized government may prove to be a burden on the exchequer apart from breeding inefficiency, an understaffed government may fail to deliver.
- Formation of new departments : Creating new departments to deal with individual subjects has the advantage of focusing greater attention and resources on that field but it also carries with it the disadvantages of lack of coordination and inability to adopt an integrated approach to national priorities and problems. For example, ‘Transport’ is an extremely important subject which requires an integrated approach. Different aspects of this subject are dealt with in different Ministries. The Ministry of Civil Aviation deals, inter-alia, with aircraft and air navigation and other aids relating to air navigation and carriage of passengers and goods by air; while the Ministry of Railways is responsible for all aspects of rail transport; Ministry of Shipping, Road Transport and Highways deals with maritime shipping and navigation, highways and motor vehicles and the Ministry of Urban Development deals with planning and coordination of urban transport systems. Thus, ‘Transport’ as a subject has been fragmented into multiple disciplines and assigned to independent ministries making the necessary integrated national approach to this important sector difficult. Democracies like the UK and the USA have attempted to achieve this by having between 15 and 25 ministries headed by Cabinet Ministers and assisted by other Ministers. To implement this concept, Ministry concept need to be redefined. A Ministry would mean a group of departments whose functions and subjects are closely related and is assigned to a First or Coordinating Minister for the purpose of providing overall leadership and coordination. This concept of a Ministry and the Coordinating (or First) Minister may be explicitly laid down in the Allocation of Business Rules. Adequate delegation among the Ministers would have to be laid down in the Transaction of Business Rules. As a consequence of this, rationalization of Secretary level posts wherever required may also need to be carried out. Individual departments or any combination of these could be headed by the Coordinating (or First) Minister, other Cabinet Minister(s)/Minister(s) of State.
- Creation of Effective Executive Agencies : Separation of policy formulation and implementation call for changes in how the policy implementing agencies are structured. It is necessary that implementation bodies need to be restructured by giving them greater operational autonomy and flexibility while, at the same time, making them responsible and accountable for what they do. It is advisable that, for the purpose, autonomous organizations like executive agencies be set up to carry out operational responsibilities. The executive agency is not a policy-making body. The line departments of the government are not in a position to optimally deliver government services largely because of the overwhelming nature of centralised controls they are subjected to and the lack of operational autonomy and flexibility. Centralised controls as they exist now reinforce a focus on inputs rather than results and are a great stumbling block to performance. At present, micro-management is the culture in the ministries.
- Internal structure of the ministry : A department in the Government of India has a vertical hierarchical structure with the Secretary as the administrative head and several levels comprising Special Secretary/Additional Secretary, Joint Secretary, Director/ Deputy Secretary, Under Secretary and Section Officer/Desk Officer. A hierarchical multi-level structure has certain strengths but several weaknesses. While such a system enables a vertical division of labour with extensive supervision and checks and balances at different levels, it also causes delays due to sequential examination, dilutes rather than enhances accountability, prevents an inter-disciplinary approach towards solving problems and kills creativity. For routine regulatory matters such as issue of licenses/permissions etc., such a rigid hierarchical structure with prescribed workflows and adequate delegation may be appropriate, but for functions like policy formulation, managing change, crafting a holistic approach on inter-disciplinary matters, problem solving etc. it does not give optimum results and infact could be counterproductive. A new approach to policy making would call for restructuring the design of the ministries to make them less hierarchical, by creating flatter structures with team-based orientation. The ministries, as they function now, are centralized, hierarchical organizations tightly divided into many layers, boxes and silos. Much of the civil service hierarchies in the ministries continue to be structured along traditional lines of authority, carefully regulated to ensure that as few mistakes are made as possible. The staff in the ministries is more concerned with internal processes than with results. The systemic rigidities, needless complexities and over-centralization in the policy-making structures are too complex and too constraining. There are too many decision points in the policy structures, and there are a large number of veto points to be negotiated for a decision to emerge.
- Simplification of Governmental Processes : Government organizations are bureaucratic. The term ‘bureaucratic’ often carries a negative image and denotes red tapism, insensitivity and the rule bound nature of an organization. When Max Weber propounded ‘bureaucracy’ as a form of organization he meant organizations structured along rational lines, where:
- offices are placed in a hierarchical order
- operations are governed by impersonal rules thereby reducing discretion. There is a set of rules and procedures to cater for every situation
- officials are given specific duties and areas of responsibility
- appointments are made on the basis of qualifications and merit
- Unlike a commercial organization which is driven by the sole profit motive, government organizations have multiple objectives, government organizations function in a more complex environment, the situations which government organizations face are much more varied and challenging and above all government organizations are accountable to several authorities and, above all, to the people. In a commercial organization, the test of profitability determines the decision. This is not possible in government organizations and therefore rules and procedures are developed to minimize discretion, and guide the decision making process within the organization.
- The current procedures have several strengths as well as weaknesses.
- Ensure proper coordination among different levels : There is need for ensuring extensive horizontal coordination where policies are spread over a number of departments and where policy delivery mechanisms are distributed in different parts of the government. Coordination between Government Departments can be achieved through various formal and informal mechanisms. The formal mechanisms may include inter-Ministerial committees and working groups that are set up from time to time to deliberate on specific issues or to oversee the implementation of different government schemes and programmes. Coordination is also achieved through inter-Ministerial consultations which could occur through movement of files or through meetings between the representatives of the concerned Ministries. There are other issues and problems for which high level inter-Ministerial coordination would be required. In such cases, the extent and quality of coordination would depend on the skill of the coordinator and the spirit with which the members participate. To achieve the necessary coordination, a Secretary should function as a member of a team rather than as a spokesperson of his/her Department’s stated position. Furthermore, effective functioning of the existing mechanisms comprising the Cabinet Secretariat, Committee of Secretaries, Group of Ministers and Cabinet Committees should, therefore, be adequate to meet the requirement of inter-Ministrial coordination.
- The second World War broke out in 1939, and Britain decided to make India a belligerent in the war. At the same time, many agitations and movements through the 1940s had created a difficult situation for the British in India, and by 1944, it was clear that they were in a mood to leave. The sentiment was cemented with the defeat of Winston Churchill in elections, and the arrival of Labour Party's PM Clement Attlee.
- Recruitment to the Indian Civil Service and the Indian Police had been first slowed down and then stopped because of the war and likelihood of constitutional change, resulting in wide gaps in those services. In the meantime there had been considerable dilution of standards as a result of large numbers of ad-hoc appointments to the other services; and preoccupation with work connected with the war and civil supplies had caused neglect and dislocation of the normal activities of government The administrative structure was there but in a weakened state and the administration was generally in a rundown condition.
- Uncertainty about the picture that might emerge from the impending constitutional changes, and its effect on their own future had tended to affect the zest and self-confidence of the senior civil services. There was, further, the rising tide of communalism with ominous potential of violence. Such briefly was the background of the administrative situation which the Sardar as Home Minister in the interim government faced in 1946.
- As the year 1945 advanced and the constitutional negotiations were taking their tortuous course, Sardar Patel started thinking of the future. The first momentous step he took was in October 1945, to have a resolution adopted at a conference of the Congress Chief Ministers (inspite of opposition initially from some of them) authorizing the setting up of two all-India services, the IAS and the IPS, to succeed the ICS and I.P.
- The Muslim League's firm thinking was that if India was to remain united it could only be on the basis of a weak Centre, with its jurisdiction limited to External Affairs, Defence, and Communications,, with no scope in such a constitutional arrangement for any all India Administrative or Police Service. If there was partition the question of such services would obviously not arise.
- By October 1945 Sardar Patel had corne to the conclusion that with the intransigent attitude of the League partition was probably unavoidable, and that India must have new services, as successors to the ICS and IP, which, apart from filling the existing wide gaps in these services, would contribute to the unify of the country and the strength of the administrative structure, and make for a high standard of efficiency and uniformity.
- The Sardar had a deep understanding of the lessons of lndian history. Regional and other narrow loyalties, leading to chronic divisiveness, had had free play in periods of absence of a central authority or its weakness. He was convinced that all-India services for general and law and order administration would be valuable adjuncts of a strong constitutional authority at the Centre, which however was to be consistent with the federalism of our Constitution, of which he was to be one of the main architects.
- Sardar Patel was acutely conscious of the historical and cultural factors, and of the debilitating effect of a long period of subjection on the moral fibre of the Indian people, which were likely in combination to make India a "soft" state, prone to vacillation in critical situations or when faced with hard options. His experience of dealing with the Congress organisation and of the Provincial Ministries had strengthened his apprehensions.
- A group of civil servants, asked by Lord Wavell to study the relative prospects of India and China had reported even in 1944 that India would go for softer options; and as is well known many years later, Gunnar Myrdal categorized India as a "soft state".
- The Sardar did therefore believe that it was essential for independent India's administrative machinery to have a strong frame, capable of withstanding stresses, and of maintaining discipline in administration and peace and order in society. For decades the ICS and IP had been referred to pejoratively as the steel frame of imperial rule. This was a just enough description of their role as instruments for preserving British rule against the rising tide of lndian nationalism.
- But the Sardar conceived of the successor services in a role fundamentally different in objectives and style of functioning but retaining the element of firmness. They were to be the servants of the Indian people, total in their loyalty to the country and dedicated to executing with devotion the laws and policies of lndian governments. He laid down the broad principles on which entrants to the Administrative Service were to be trained.
- They were to be moulded into patriotic Indians, not as English country gentlemen oriented to working as agents of imperial rule as had been the aim even for lndians in the ICS. They were to have an all-lndia and not a parochial outlook and they were to have understanding of our past and of Indian culture and social conditions. lt was these basic ideas in which the IAS training institute was designed and later developed into the Academy of Public Administration.
- He did not believe that everything that had come down from the previous regime needed to be discarded any more than it was necessary to demolish every edifice erected in the past. Four years after lndependence it was said by way of criticism. that with the IAS and IPS the 'steel frame' had been continued and the administrative machinery had not been overhauled. Administrative machinery, unlike for instance, an automobile, cannot be sent to a workshop for overhauling! Short of a violent revolution it can only be repaired and improved adapted to perform new tasks and to serve changed purposes.
- The problems of peace and order had not disappeared with lndependence - public order had still to be maintained and the laws enforced without fear or favour. Extraneous influences and improper interference with administrative processes and in the execution of development and welfare programmes had to be resisted and only an administration with a strong frame could do so.
- To quote from Sardar Patel's own formulation in 1948: An "all-lndia service, efficient, disciplined and contented, assured of its prospects as a result of diligent and honest work is a sine qua non of sound administration under a democratic regime even more than under an authoritarian rule. The service must be above party and we should ensure that political considerations either in its discipline or in its control are reduced to the minimum, if not eliminated altogether."
- With the new all-lndia services, the strengthening of the police forces in the States as enjoined by the Sardar and the reorganisation of the Central Secretariat services carried through under his directions, the administration worked well enough during the difficult fifties.
- Communal peace was generally maintained, the gigantic task of rehabilitating millions of uprooted human beings was carried through, and two general elections on adult franchise were conducted fairly and peacefully. The dwindling remants of the ICS and IP, members of the IAS and IPS and of the Central services, worked with missionary zeal. Working first in a State beset with problems, and from 1956 at the Centre, many public servants felt the glow of a new dawn and strove to the limit of their capacity to prove worthy of the responsibility that had been placed on them.
- Sardar Patel's public acknowledgement of the patriotism and dedication of public servants and his expression of trust in thern, gave them the self-assurance without which they could not have given their best. In a meeting held in the Central Secretariat to pay homage to Sardar Patel, a resolution was adopted by the gathering of civil servants to rededicate themselves to the service of the country and prove worthy of the confidence he had reposed in him.
- In 1949 the Sardar said in the Constituent Assembly "..... As a man of experience I tell you do not quarrel with the instruments with which you want to work. It is a bad workman who does so. Every rnan wants some sort of encouragement. Nobody wants to put in work when every day he is criticized and ridiculed in public...." Proceeding further he enunciated the doctrine of intellectual integrity of civil servants and their sharing responsibility with a sharpness. He said, 'Today my Secretary can write a note opposed to my views. I have given that freedom to all my Secretaries. I have told them "If you do not give your honest opinion for fear that it will displease your Minister, please then you had better go." '
- We have had for many years a generally 'soft' administration reflecting the character of a 'soft' state. The Sardar did not live long enough after lndependence to 'endow the new state, and its administrative apparatus, with a durable toughness. We make laws and regulations in plenty but do not enmbrace them with rigour they are often allowed to be transgressed with impunity. One notices among many of our public functionaries a tendency to move from passivity to over-reaction to situations, and to alternate between failure to use power and its abuse. Energetic action in a crisis, followed by a period of complacence only leads to another crisis, when a steadily firm administration backed by a strong political will, and anticipation of likely developments are called for. That was the Sardar's way of doing things.
- The idea of a "committed" civil service, committed to the current social philosophy of the party in power at the time, and not merely to carrying out loyally the government's programme, was the doctrine canvassed in the seventies by Indira administration. That idea has no open supporters now but there is implicit in certain attitudes, and the desire that civil servants should identify themselves with their Ministers. Such an idea would have been an anathema to the Sardar.
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