यूपीएससी तैयारी - भारत में प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण मुद्दे - व्याख्यान - 16

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जैव प्रौद्योगिकीः वरदान या अभिषाप?

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1.0 प्रस्तावना 

जैवप्रौद्योगिकी कोशिकीय और जैव-आणविक प्रक्रियाओं के उस दोहन प्रक्रिया को कहते हैं जिनसे ऐसी प्रौद्योगिकियों और उत्पादों को विकसित किया जाता है जो हमारे जीवन और हमारे पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को सुधारने में सहायक होती हैं। मनुष्य ने 6000 वर्षों से भी अधिक समय से सूक्ष्म जीवों की जैविक प्रक्रियाओं का उपयोग डबलरोटी और पनीर उपयोगी उत्पादों के निर्माण के लिए, और डेरी उत्पादों के संरक्षण के लिए किया है। इनमें से कुछ प्रक्रियाओं की खोज दुर्घटनावश हुई थी।

आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी दुर्लभ और घातक बीमारियों से लड़ने के लिए, हमारे पर्यावरणीय पदचिन्हों (कार्बन उत्सर्जन) को कम करने के लिए, भूखों को भोजन प्रदान करने के लिए, कम और स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग के लिए, और अधिक सुरक्षित, स्वच्छ और अधिक कुशल विनिर्माण प्रक्रियाएं प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण खोज के उत्पाद और प्रौद्योगिकियां प्रदान करती है। 

वर्तमान में 250 से अधिक जैवप्रौद्योगिकी स्वास्थ्यसेवा उत्पाद और टीके मरीजों के लिए उपलब्ध हैं, जिनमें से अनेक उत्पाद ऐसे हैं जो पूर्व में उपचार नहीं किये जाने योग्य बीमारियों के लिए हैं। विश्व भर के 13.3 मिलियन से अधिक कृषक उत्पादन में वृद्धि के लिए, परजीवियों और कीटों से होने वाली क्षति को कम करने के लिए, और कृषि से पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने के लिए कृषि जैवप्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं। और संपूर्ण उत्तरी अमेरिका में नवीकरणीय बायोमास से जैव ईंधन और रसायनों के उत्पादन के लिए 50 से अधिक जैव परिष्करणीयों (बायोरिफाइनरी) का निर्माण किया जा रहा है, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में सहायक हो सकती हैं। 

भारतीय जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र भारत के सबसे तेजी से बढ़ते ज्ञान आधारित क्षेत्रों में से एक है, और ऐसा अनुमान है कि यह क्षेत्र भारत की तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था को आकार प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। अनुसंधान और विकास सुविधाओं, ज्ञान, कौशल, और लागत प्रभाविता की दृष्टि से अनेक तुलनात्मक लाभों के साथ भारत के जैवप्रौद्योगिकी उद्योग में वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में उभरने की अपार संभावनाएं विद्यमान हैं। 

वास्तव में भारत को विश्व के 12 शीर्ष जैवप्रौद्योगिकी गंतव्यों और एशिया प्रशांत क्षेत्र के तीसरे सबसे बडे़ जैवप्रौद्योगिकी गंतव्य के रूप में स्थान मिला है। 

इस क्षेत्र को जैविक औषधि, जैविक सेवाएं, जैविक कृषि, जैविक उद्योग और जैविक सूचना विज्ञान के वृत्तखंडों में विभाजित किया जा सकता है। जैवप्रौद्यिगिकी कंपनियों में से 64 प्रतिशत कंपनियां जैविक औषधि के क्षेत्र में कार्यरत हैं, इसके बाद जैविक सेवाओं (18 प्रतिशत), जैविक कृषि (14 प्रतिशत), जैविक उद्योग (3 प्रतिशत) और अंत में जैविक सूचना विज्ञान (1 प्रतिशत) का क्रमांक आता है। 

हालांकि भारत में जैवप्रौद्योगिकी के संदर्भ में प्रारंभिक आशावाद में निवेश और अधोसंरचना के मोर्चों पर उभरने वाली गंभीर चुनौतियों के कारण कमी आई है। साथ ही भारत के कानूनी मुद्दों ने भी अपने तरीके से वृद्धि प्रक्रिया को शिथिल किया है। 


2.0 जैवप्रौद्योगिकी के लाभ और खतरे 

जैवप्रौद्योगिकी के लाभ और इसके खतरे काफी चर्चा और बहस का विषय हैं, विशेष रूप से तब जब आनुवांशिक रूप से संशोधित खाद्यों की सुरक्षा का प्रश्न निर्माण होता है। मानव स्वास्थ्य के लिए जैवप्रौद्योगिकी के लाभों और खतरों को भी चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः

2.1 लाभ 

  1. बढ़ी हुई खाद्य सुरक्षा 
  2. भोजन के पोषक संयोजन में वृद्धि 
  3. और अधिक स्वास्थ्य लाभों के साथ भोजन 
  4. आहार से संबंधित कुछ विशिष्ट चिरकालिक बीमारियों में कमी 

आनुवांशिक अभियांत्रिकी के अनुप्रयोग के माध्यम से कुछ अनाजों की इंद्रीय जनित विशेषताओं और अवसान तिथियों में सुधार करना संभव हो पाया है। फलों और सब्जियों की सड़ने की प्रक्रिया को विलंबित करके बेहतर गुणवत्ता, स्वाद, रंग और बनावट प्रदान की जाती है। आनुवांशिक अभियांत्रिकी की सहायता से अधिक मात्रा में खनिजों, विटामिनों और ऑक्सीकरण तत्वों के साथ खाद्य पदार्थों का निर्माण करना संभव है। साथ ही फसल की उत्पादकता में वृद्धि के माध्यम से वनोन्मूलन को भी रोका जाता है, और विकासशील देशों की दृष्टि से जो सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि इससे आर्थिक विकास को गति प्राप्त होती है। 

विकासशील देशों की दृष्टि से विशेषरूप से उपयोगी है रोगाणु रोधी फलियां, विषाणु प्रतिरोधी पपीता, कपास और विटामिन ए से संवर्धित चावल उगाना। मौखिक उपयोग के लिए कुछ टीकों का उत्पादन भी महत्वपूर्ण है, जो सस्ते होंगे, भंडारण की दृष्टि से आसान होंगे और उपयोग की दृष्टि से पिछले टीकों की तुलना में कम तनावपूर्ण होंगे, जिनका उपयोग अतिसार, हैजे और  हैपेटाइटिस बी की रोकथाम के लिए किया जायेगा। 

दूसरी ओर, अनेक अनुसंधानकर्ताओं और सामान्य जनता के लिए तथाकथित ‘‘फ्रैंकेंस्टीन आहार‘‘ प्रकृति के साथ एक अस्वीकार्य विकृति है।

2.2 खतरे 

  1. प्रत्यूर्जता (एलर्जी)
  2. विषाक्तता 
  3. पोषक असंतुलन 
  4. खाद्य विविधता में कमी 

इस विषय में चिंताएं हैं कि खाद्य उद्योग में आनुवांशिक अभियांत्रिकी का उपयोग कुछ विशिष्ट प्रकार की प्रत्यूर्जता पैदा करने वाले तत्वों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि कर सकता है। वास्तव में दाता की प्रत्यूर्जता पैदा करने वाली विशेषताओं का हस्तांतरण प्राप्तकर्ता में स्थानांतरित किया जा सकता है। विदेशी पित्रैक (जीन) पोषकों के संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। प्रश्न यह है कि इन परिवर्तनों का प्रभाव किस प्रकार होगा 

  1. पोषकों की परस्पर क्रिया 
  2. पोषकों और पित्रैकों के बीच परस्पर क्रिया 
  3. पोषकों की जैव उपलब्धता 
  4. चयापचय, और 
  5. पोषकों की ‘शक्ति‘

आनुवांशिक संशोधन किये गए खाद्यान्नों के उत्पादन से विभिन्न आनुवांशिक ढंग से संशोधित किये गए जीवों में से भिन्न-भिन्न पित्रैक विभिन्न प्रकारों से हस्तांतरित होते हैं। यह खाद्य अब तक बाजार में उपलब्ध है क्योंकि विभिन्न अध्ययनों द्वारा इन्हें अनुमोदित किया गया है। अतः इनसे मनुष्य के जीवन को खतरा हो इसकी संभावना काफी कम है। 

आनुवांशिक ढंग से संशोधित उत्पादों के प्रति दृष्टिकोण को निर्धारित करने के लिए, हमें कई तथ्यों का विचार करना आवश्यक है, जैसे तीव्र गति से बढ़ती हुई विश्व जनसंख्या, उपलब्ध कृषि भूमि, पर्यावरण और आनुवांशिक रूप से संशोधित खाद्यों की विशेषताएं और इनका मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव इत्यादि। उसी समय इस प्रौद्योगिकी के लाभ प्राप्त करने और इसके नकारात्मक परिणामों से बचने के लिए इस मुद्दे के सघन ज्ञान और बहु विषयक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

2.3 जैवप्रौद्योगिकी के नैतिक मुद्दे 

जैवप्रौद्योगिकी की पद्धतियों और जैविक उद्योग के उत्पादों से सम्बंधित संभावित खतरों का मूल्यांकन किस प्रकार किया जाना चाहिए, और जैवनैतिकता को सार्वजनिक नीति को प्रभावित करना चाहिए या नहीं, और किस प्रकार प्रभावित करना चाहिए इसपर एक समृद्ध सार्वजनिक बहस हुई है। सार्वजनिक नीति की चर्चा को मार्गदर्शित करने वाली एक सामान्य संरचना उभर रही है, परंतु यह अभी तक पूर्ण रूप से वॉक्सिट नहीं हो पाई है। विभिन्न समूहों में खतरों के विषय में भिन्न-भिन्न अवधारणाएं हैं जो उनकी संस्कृति, वैज्ञानिक पृष्ठभूमि, सरकार की अवधारणा, और अन्य कारकों पर निर्भर हैं। विशेषज्ञ राय अनेक स्थितियों का समर्थन करती है। 

मई 1995 में धार्मिक नेताओं, कैथोलिक बिशपों, प्रोटेस्टैंट और यहूदी नेताओं और मुसलमानों, हिंदुओं और बौद्धों के समूहों के एक विशाल गठबंधन ने मनुष्य और पशुओं के जीवन पर पेटेंटों के विरोध की घोषणा की। इस गठबंधन ने जैवप्रौद्योगिकी या आनुवांशिक अभियांत्रिकी का विरोध नहीं किया बल्कि उन्होंने मानव पित्रैकों (जीन) या जीवों का विरोध किया। उनका कहना है कि इस प्रकार के पेटेंट मानव जीवन की पवित्रता का उल्लंघन करते हैं और वे ‘‘क्रमिक विकास की रूपरेखा या योजना’’ को कम करके उसे एक विपणनयोग्य वस्तु बना देते हैं। इस समूह का तर्क है कि जीवन ईश्वर की देन है, उसे पोषित किया जाना चाहिए और उसकी परवरिश की जानी चाहिए। इस समूह के अनुसार जीवन को वस्तु बना देना और उसे एक उत्पाद में परिवर्तित कर देना, जिसका स्वामित्व या इसमें हेराफेरी केवल लाभ के लिए ही की जा सकती है। बहस के अन्य मुद्दे हैंः अंग प्रत्यारोपण और भ्रुणीय ऊतक, कृषि भूमि परीक्षण और आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलें उगाना, और उत्पादों के मानवी परीक्षण और उनके लिए न्यायिक रूपरेखा। विवाद निवारण के दौरान निम्न विषयों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 

  1. हमें यह समझना आवश्यक है कि पित्रैकों की प्रकृति किसे कहा जा सकता है और उनकी उत्पत्ति, विकास, और विभिन्न जीवों को आकार प्रदान करने में उनकी भूमिका क्या है। 
  2. विभिन्न प्रकार के पदार्थों के बीच आनुवांशिक विनिमय को जब तक हम अच्छी तरह से नहीं समझ लेते तब तक हमें पराजीनी जीवों के साथ प्रयोग नहीं करने चाहिये। 
  3. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि मनुष्यों की सबसे बड़ी संख्या में समलक्षणी विशेषताएं, जिनके कारण व्यक्तियों में भिन्नताएं होती हैं, वे बड़ी संख्या में पित्रैकों और पर्यावरणीय कारकों का ही परिणाम होती हैं। 
  4. आनुवांशिकी से संबंधित जानकारी का अनन्य रूप से उपयोग प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन शैली के बारे में व्यक्तिगत निर्णय लेने देने के लिए किया जाना चाहिए। 
  5. जैविक हथियारों के निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए। 
  6. पृथ्वी पर प्रजातियों की आनुवांशिक विविधता हमारे ग्रह के मुख्य संसाधनों में से एक है और इस विविधता का संरक्षण ही हमारी सर्वोच्च रूचि है। 

जैवप्रौद्योगिकी के विकास ने गुणसूत्रों में संग्रहित आनुवांशिकी की जानकारी तक पहुंच संभव बनाई है और एक नए विकास के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। जैवप्रौद्योगिकी के उपयोग से निर्मित उत्पादों में पर्यावरण को अनुकूल ढंग से प्रभावित करने और मनुष्य समाज को परिवर्तित करने की क्षमता है। दूसरी ओर, अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो अज्ञात है और वैज्ञानिक खोजों के दुरूपयोग की संभावना और वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणामों की अस्थिरता वास्तविकताएं हैं। जैविक आतंकवाद होने की संभावना से इंकार करना असंभव है। अतः जैवप्रौद्योगिकी का विकास अनेक अनिर्णित मुद्दों, बौद्धिक संपत्ति के प्रश्नों और कानूनी मुद्दों को जन्म देता है। 

अनेक लोगों का अनुमान है कि अगले दशक में, विकसित देशों में हुए जीन समूह के अनुक्रमण कार्यों के कारण वैज्ञानिक विकास जैवप्रौद्योगिकी की ओर दिशांतरित होगा, जबकि इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में निवेश सामान्य रूप से दुय्यम हो सकते हैं!

मानवी जीन समूह के रेखाचित्र बनाने को कई लोग बीसवीं सदी की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि मानते हैं। जीन समूह को पढ़ना और समझना विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्रों में नए क्षेत्रों को खोलेगा, साथ ही इसका परिणाम उद्योग, अर्थव्यवस्था और अन्य विज्ञानों के क्षेत्रों में होने वाले प्रमुख परिवर्तनों में होगा, साथ ही इससे विश्व और प्रकृति के विषय में विचारों में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन होंगे। आनुवांशिक सामग्री के साथ निर्देशित हेराफेरी एक वास्तविकता बन चुकी है, और अब अध्ययन अधिक परिष्कृत उपकरणों और पद्धतियों के विकास की दिशा में निर्देशित किये जा रहे हैं।

3.0 प्रमुख घटनाएं और भारतीय जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र की वर्तमान स्थिति 

भारत सरकार द्वारा देश के जैवप्रौद्योगिकी उद्योग पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण इस उद्योग की संयोजित वार्षिक वृद्धि दर पिछले एक दशक के दौरान लगभग 20 प्रतिशत रही है। भारत का जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र का अनुमानित आकार वित्त वर्ष 2012 में 20,441 करोड रुपये (3.8 बिलियन डॉलर) तक पहुंच गया है, और ऐसा अनुमान है कि 2015 तक यह 55,300 करोड़ रुपये (10.4 बिलियन डॉलर) तक पहुंच जायेगा। हालांकि कुशल मानवशक्ति, सुधारित अधोसंरचना, और मजबूत क्षेत्रीय बाजार को देखते हुए विश्लेषक अनुमान लगा रहे हैं कि महत्वाकांक्षी लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि दर को प्राप्त करना और 2025 तक इस उद्योग को 5,50,000 करोड़ रुपये (103.7 बिलियन डॉलर) तक ले जाना संभव है। 


इस असाधारण वृद्धि को सुविधाजनक बनाने में भारतीय जैवप्रौद्योगिकी उद्योग के सभी उप क्षेत्रों का मजबूत निष्पादन भी महत्वपूर्ण कारण रहा है, ये उप क्षेत्र हैं जैविक औषधि, जैविक सेवाएं, कृषि जैवप्रौद्योगिकी, जैविक उद्योग और जैविक सूचना विज्ञान। इस उद्योग का सबसे बड़ा उप-क्षेत्र है जैविक औषधि उद्योग, जबकि कृषि प्रौद्योगिकी सबसे अधिक तेजी से बढ़ता उप-क्षेत्र है (राजस्व के आधार पर)। भारत की 10 शीर्ष जैवप्रौद्योगिकी कंपनियों में से छह को जैविक औषधि में विशेषज्ञता प्राप्त है, जबकि चार को कृषि जैवप्रौद्योगिकी, चिकित्साशास्त्र, अभिनव उत्पाद और अनुबंध सेवाओं में  विशेषज्ञता प्राप्त है। यह जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र का सबसे प्रभावशाली क्षेत्र इसलिए है क्योंकि भारत विश्व का प्रमुख टीका विनिर्माता देश है, जहां 15 से अधिक कंपनियां 50 से भी अधिक ब्रांड्स के लिए उत्पादन कर रही हैं। साथ ही भारत अपनी कुशल मानवशक्ति, न्यून लागतों, बड़ी संख्या में पेटेंट्स और मजबूत सरकारी समर्थन और सहायता के कारण तेजी से अनुबंध अनुसंधान और विनिर्माण सेवाओं का भी सबसे पसंदीदा गंतव्य बनता जा रहा है। परिणामस्वरूप अनुबंध अनुसंधान और विनिर्माण सेवाओं के बाजार में 2007-10 के दौरान 50 प्रतिशत से अधिक की दर से संयोजित वार्षिक विकास वृद्धि रही है, और वर्ष 2012 के अंत तक इसका बाजार आकार बढ़ कर 7.6 बिलियन डॉलर हो गया है। विश्वसनीय अनुमान उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी विशेषज्ञों का अनुमान है कि निकट भविष्य में इस बाजार की संयोजित वार्षिक वृद्धि दर 30 से 35 प्रतिशत रहेगी। अनुबंध अनुसंधान और विनिर्माण सेवाओं के बाजार में इस विस्फोटक वृद्धि के कारण वैश्विक नैदानिक परीक्षणों में (जो पूर्व नैदानिक परीक्षणों सहित मिलकर घरेलू अनुबंध अनुसंधान बाजार का लगभग 80 प्रतिशत है) भारत का योगदान 2014 के अंत तक 3 प्रतिशत से बढ़ कर 5 प्रतिशत हो जायेगा। 

पिछले एक दशक के दौरान .षि जैवप्रौद्योगिकी में भारत की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है आनुवांशिक रूप से संशोधित बीटी कपास की पैदावार। इस उपलब्धि ने देश को अनेक सामाजिक-आर्थिक लाभ प्रदान किये हैं। भारत में बीटी कपास की पैदावार 10 मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक है, और इसका उत्पादन भी काफी अधिक है, जबकि उसी समय इसके कारण कीटनाशकों के उपयोग में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आई है। इन लाभों ने 7 मिलियन से भी अधिक छोटे कृषकों को लाभान्वित किया है, जो 2011 में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे थे। 

धारणीय विकास सुनिश्चित करने के लिए जैवप्रौद्योगिकी उद्योग को इसकी वृद्धि में योगदान देने वाले कारकों का भी मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। भारत में जैवप्रौद्योगिकी की अप्रत्याशित वृद्धि और वैश्विक जैवप्रौद्योगिकी खिलाड़ियों के उदय के साथ तीव्र वृद्धि को प्रसारित करने के लिए सरकार द्वारा और साथ ही निजी क्षेत्र द्वारा भी बड़ी संख्या में पहलें की गई हैं। जैवप्रौद्योगिकी विभाग के लिए सरकार के वित्तपोषण में 8 वीं से 12 वीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान लगभग चार गुना वृद्धि हुई है। 

बढे़ हुए सरकारी वित्तपोषण, और साथ ही निजी क्षेत्र से प्राप्त अतिरिक्त वित्तपोषण के कारण देश भर में अनेक जैवप्रौद्योगिकी उद्यानों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना हुई है, जिनका लक्ष्य विशेष रूप से जैवप्रौद्योगिकी कंपनियों का उद्भवन और अनुसंधान का प्रसार करना है। 

2011 के अंत तक भारत में 26 क्रियाशील जैवप्रौद्योगिकी उद्यान थे, जिनमें से मुख्य समूह आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर), महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ भागों में उभरे हैं। पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी भारत के समूहों में से पश्चिमी समूह की मूल्य हिस्सेदारी लगभग 86 प्रतिशत थी और इसने वित्त वर्ष 2007-12 के दौरान लगभग 12.5 प्रतिशत की संयोजित वृद्धि दर प्रदर्शित की।  

3.1 उद्योग वृद्धि को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक 

हालांकि भारत का जैवप्रौद्योगिकी उद्योग परंपरागत रूप से निर्यात चालित रहा है, फिर भी बढते आय स्तरों के परिणामस्वरूप और जैवप्रौद्योगिकी उत्पादों के बढ़ते उपभोग कारण घरेलू उद्योग भी तेजी से प्रसिद्धि प्राप्त कर रहा है। 

नियामक वातावरण और सरकारी पहलेंः भारत सरकार ने जैवप्रौद्योगिकी उद्योग के विकास को बढावा देने के लिए अनुदान प्रदान करना और निवेशकों के अनुकूल नीतियों का निर्माण करना शुरू किया है। उसने औषधियों और दवाओं के निर्माण के लिए और जैवप्रौद्योगिकी विभाग गठित करने के लिए स्वचालित मार्ग के माध्यम से 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति प्रदान की है। यह विभाग विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का ही एक भाग है जो जैवप्रौद्योगिकी उद्योग से संबंधित नीतियों के निर्माण के लिए जिम्मेदार है। जैवप्रौद्योगिकी विभाग भारतीय जैवप्रौद्योगिकी उद्योग के विकास की दृष्टि से काफी सहायक रहा है, जिसका ध्यान विशेष रूप से मानव संसाधनों और अधोसंरचना विकास पर केंद्रित रहा है।

सरकार ने भारतीय जैवप्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण के निर्माण का भी प्रस्ताव किया है, जो जीवधारियों और अन्य आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी उत्पादों के उत्पादन, अनुसंधान, परिवहन, आयात और उपयोग के प्रबंधन के लिए कार्यरत एक स्वतंत्र निकाय होगा। सरकार ने एक जैवप्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद का भी गठन किया है ताकि पर्याप्त अधोसंरचना और अन्य आवश्यक और अनिवार्य सेवाएं प्रदान करके इस उद्योग में महंगे नवप्रवर्तनों की सहायता की जा सके। 

अन्य पहलों में सरकार ने नई औषधि खोज परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए एक 12,100 करोड़ रुपये (2.3 बिलियन डॉलर) के उद्यमिता कोष की भी स्थापना की है। सरकार ने शिथिल मूल्य नियंत्रण, पूंजीगत व्ययों पर अनुवृत्तियां, और अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों के लिए करावकाश जैसी वित्तीय पहलें भी प्रदान की हैं। 


4.0 भारत में बीटी कॉटन की कहानी 

भारत में बीटी कॉटन की कहानी सफलता एवं असफलता से भरी है। मोनसेंटो कैंप एवं इसका विरोध करने वाले 2002 से एक-दूसरे के साथ संघर्ष कर रहे हैं, जब बीटी कॉटन को भारत में माहिको के माध्यम से लॉन्च किया गया था। बीटी कपास एकमात्र ऐसी आनुवंशिक रूप से संशोधित फसल है, जिसकी वर्तमान में भारत में खेती की जा रही है जिसने मिट्टी के बैक्टीरिया (बैसिलस थुरिंजिएनिस) से cry1Ac जीन को शामिल किया है। बीटी कॉटन के साथ प्रमुख मुद्दों में अब गुलाबी बोल कीड़ा (पीबीडब्ल्यू) एवं व्हाइटलाइ (बेमिसिया तबसी) से लेकर बीजी II एवं बीटी हाइब्रिड बीजों के स्थानापन्न होने की संभावना शामिल हैं, जिसकी उच्च लागत चिंता का विषय है।  


4.1 इतिहास  

बीटी कपास बीज के पहले दो साल उत्साहजनक नहीं थे। यह नही चला क्योंकि प्रारंभिक संकर बोल्गार्ड - I (या बीजीआई) तकनीक का उपयोग करते थे जो पुरानी थी। बाद के वर्षों में विभिन्न प्रकार के संकरों को लगाए जाने के बाद, यह जंगल की आग की तरह फैला एवं कपास उगाने वाले हर क्षेत्र ने तेजी से बीजीआई बीज को अपनाया। 2007-08 में यह अपने चरम पर पहुंच गया, एवं भारत 2002 में कपास के शुद्ध आयातक से, 2008-09 तक एक निर्यातक के रूप में उभरा। 

4.2 कृष्य क्षेत्र बहुत बढ़ा

 बीटी कपास को अपनाने के कारण, कपास की खेती 2002-03 में 45,000 हेक्टेयर से बढ़कर 2008 में अनुमानित 80 लाख हेक्टेयर हो गई। जबकि वैज्ञानिकों के एक वर्ग ने प्रौद्योगिकी को अपनाया, कुछ अन्य लोगों ने महाराष्ट्र एवं तेलंगाना जैसे कपास उगाने वाले राज्यों में तीव्र कृषि संकट के लिए प्रौद्योगिकी को दोषी ठहराते हुए मोनसेंटो एवं महिको मोनसेंटो (जो भारतीय फर्मों को उप-लाइसेंस प्रदान करते हैं) पर हमला किया। मुख्य आरोप यह था कि “बीटी कॉटन के सभी दावे झूठे है। वारंगल में मवेशी की मौत, कई राज्यों में गुलाबी बोलवर्म की प्रतिरोधक क्षमता, एवं आनुवंशिक विविधता के दूषित होने से पता चला है कि लालची व्यावसायिक हितों से प्रेरित होने पर विज्ञान हमें कैसे विफल करता है।”

4.3 कृमि की वापसी

अफसोस की बात है कि लगभग सभी बीटी कपास क्षेत्र रियूजिया (गैर-कपास या गैर बीटी फसलों की खेती, मुख्य फसल के आसपास) के बिना चला गया, जिसके कारण इस प्रौद्योगिकी के प्रति कृमि प्रतिरोध विकसित हुआ, जिससे किसानों को भारी नुकसान हुआ। मोनसेंटो ने किसानों का विश्वास वापस जीतने के लिए बीजी-द्वितीय को जल्दी से लॉन्च किया। हालांकि, कड़वे अनुभव से कोई सबक नहीं सीखा गया, एवं किसानों को रियूजिया फसलों की बुवाई के महत्व के बारे में जागरूकता की कमी थी। इसलिए, बीजी-द्वितीय भी, गुलाबी बोलवॉर्म का शिकार हो गया, जिससे किसानों के पास बचाव न रहा। 

भारत दुनिया का एकमात्र Bt कपास उगाने वाला देश है, जो Bollgard II द्वारा उत्पादित विषाक्त पदार्थों के प्रति गुलाबी बोलवर्म आबादी में पनपे प्रतिरोध की समस्या का सामना कर रहा है। दिलचस्प बात यह है कि अन्य 14 बीटी कपास उगाने वाले देशों में से किसी ने भी इस प्रतिरोध का सामना नही किया है। चीन अभी भी पहली पीढ़ी बीटी कपास के साथ गुलाबी बोलवर्म को सफलतापूर्वक नियंत्रित करता है। अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया इस समस्या का सामना किए बिना तीसरी पीढ़ी के बीजी -3 पर आगे बढ़ रहे हैं। भारत इस अनोखे दुर्भाग्य को क्यों झेलता है? बीटी संकर लंबी अवधि के संकर हैं। कपास शोधकर्ता मोटे तौर पर इस तथ्य से सहमत हैं कि 2002 में बीटी कॉटन की शुरुआत के बाद से ही भारत में लंबी-अवधी हाइब्रिड की खेती करने के कारण ऐसा हुआ।

अन्य सभी भारत में बौद्धिक संपदा कानूनों ने भी एक भूमिका निभाई। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसके बौद्धिक संपदा कानूनों ने कभी भी अपने किसानों को बीज बचाने या बेचने से नहीं रोका है। अन्य देश विभिन्न मात्रा में बीज की बचत एवं बिक्री को प्रतिबंधित करते हैं। 70 से अधिक देश जो ‘पौधों की नई किस्मों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ’ के सदस्य हैं, किसानों को एक संरक्षित पौधे की किस्म से बीज का पुनउर्पयोग करने की अनुमति देते हैं, लेकिन उन्हें बेचने के लिए नहीं। अमेरिका में, जहाँ पौधों की किस्मों का पेटेंट कराया जाता है, पेटेंट किए गए बीजों का पुनउर्पयोग नहीं किया जा सकता है। इस तरह के सुरक्षा के बिना, भारत में कई बीज कंपनियां संकर पसंद करती हैं, क्योंकि खुले-परागण वाली किस्मों के विपरीत, जब उनके बीज दोहराए जाते हैं तो संकर अपनी आनुवंशिक स्थिरता खो देते हैं। यह किसानों को कॉर्पोरेट राजस्व की रक्षा के लिए हर साल बीज पुनर्खरीद करने के लिए मजबूर करता है।

4.4 कानूनी मुद्दे 

रॉयल्टी देय के मुद्दे पर, कई मामले विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित हैं, एक तरफ मोनसेंटो बनाम महिको एवं दूसरी तरफ किसान संघ बनाम राज्य सरकारें। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में महिको मोनसेंटो की याचिका सेन्टर्स कॉटन्सड प्राइस कंट्रोल ऑर्डर को चुनौती दी गई थी।

10/03/2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मोनसेंटो एनएसई - 0.23 प्रतिशत टेक्नोलॉजीज के पेटेंट बीटी कॉटन सीड्स बोल्गार्ड एवं बॉलगार्ड प्प् के लिए मान्य नहीं थे एवं नुजिवेदु सीड्स के खिलाफ इस दावे को खारिज कर दिया, एक खोज, जिसके कृषि क्षेत्र के लिए दुरगामी परिणाम होंगे।

नियामक GEAC (केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तहत जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति) को भी जीएम प्रौद्योगिकी अवरोधकों की आलोचना का सामना करना पड़ा है। उनका आरोप है कि परमिशन में गोपनीयता बरती जाती है, जनता को यह जानने का अधिकार है कि जीएम के मोर्चे पर क्या हो रहा है। जबकि कई राज्य सरकारों एवं किसानों की यूनियनों ने रॉयल्टी की मात्रा पर मोनसेंटो के खिलाफ लड़ाई लड़ी है, बीजी - प्प् लाइसेंसधारी कंपनियां मुनाफे से अधिक हिस्सा चाहती हैं क्योंकि उनकी संकर बीटी सफलता के केंद्र में थीं।

4.5 एनएसएआई का तर्क 

नेशनल सीड एसोसिएशन ऑफ इंडिया (NSAI) ने तर्क दिया है कि ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए सरकार के पास प्रौद्योगिकियों की एक संपूर्ण श्रंखला होनी चाहिए। मोनसेंटो बीज लाइसेंसधारकों को अन्य तकनीकों का उपयोग करने से रोकता है। बीज फर्मों को अन्य वैकल्पिक तकनीकों के उपयोग नहीं करने के लिए मजबूर किया गया, जिससे एकाधिकार हो गया। यह कृमि द्वारा प्रतिरोध के तेजी से विकास का कारण बना। सरकार को वैकल्पिक तकनीकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

4.6 आज की स्थिति

आज, जीईएसी द्वारा उत्तर क्षेत्र में पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान, मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात तथा दक्षिण क्षेत्र में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु राज्यों में व्यावसायिक खेती के लिए 2000 से अधिक बीटी संकरों को मंजूरी दी गई है। । 30 से अधिक निजी बीज कंपनियां आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बीटी संकर का उत्पादन एवं विपणन कर रही हैं। बीटी कपास की खेती का क्षेत्र, जो कि 2002-03 में 76.70 लाख में से मुश्किल से 0.29 लाख हेक्टेयर (0.38 प्रतिशत) था, 2014-15 में 128.19 लाख हेक्टेयर में से 119.40 लाख हेक्टेयर तक बढ़ गया, जो 13 वर्ष की अवधि में 93.14 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि थी। हाल के वर्षों के दौरान च्ठॅ एवं व्हाइटलाय द्वारा नुकसान की ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि 2016-17 (108.26 लाख हेक्टेयर) के दौरान बोई गई कुल कपास क्षेत्र में बीटी फसल की हिस्सेदारी घटकर लगभग 82-83 प्रतिशत रह गई। शेष क्षेत्र देसी किस्मों के तहत बोया गया था एवं एक बहुत छोटा क्षेत्र अन्य संकरों के अधीन है।


5.0 बीटी बैंगन - भारत की पहली वनस्पति बायोटेक फसल (पहली जीएम खाद्य फसल)

बीटी बैंगन की किस्म बीटी कपास के विकास में उपयोग की जाने वाली परिवर्तन प्रक्रिया का उपयोग करके विकसित की गई थी, जो भारत में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली बायोटेक फसल है। महाराष्ट्र स्थित बीज कंपनी, महिको द्वारा विकसित, बीटी बैंगन, पहली खाद्य फसल थी, जिसमें ‘cry 1ac’ एसी नामक कीटनाशक प्रोटीन होता है जिसे मिट्टी में पाए जाने वाले जीवाणु बैसिलस थुरेंजिएंसिस के जीन से प्राप्त किया जाता है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने 14 अक्टूबर 2009 को आयोजित 97 वीं बैठक में बीटी बैंगन इवेंट ईई -1 के वाणिज्यिक रिलीज की सिफारिश की, जो कि महिको द्वारा कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (यूएएस), धारवाड़ एवं तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (TNAU), कोयंबटूर, तमिलनाड़ु के सहयोग से स्वदेशी रूप से विकसित किया गया है। यह देश में बीटी बैंगन संकर एवं किस्मों के व्यवसायीकरण का एक कदम था (एमओईएफ, 2009)।

हालाँकि, व्यावसायिक खेती के लिए इसका मार्ग साफ कर दिया गया था, लेकिन इसे 2010 में पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सुरक्षा के मुद्धे के पर वैज्ञानिक एवं सार्वजनिक असहमति के आधार पर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। यह प्रतिबंधित रहा।

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5.1 यह किस प्रकार काम करता है?

बीटी बैंगन में एफएसबी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करने के लिए कीटनाशक प्रोटीन को व्यक्त करने वाले बतल1।ब जीन को शामिल किया गया है। क्राय 1 ए सी जीन मिट्टी के जीवाणु बेसिलस थुरिंगिनेसिस (बीटी) से प्राप्त होता है।

जब FSB लार्वा द्वारा अंतर्ग्रहण किया जाता है, तो बीटी प्रोटीन कीट की क्षारीय आंत में सक्रिय हो जाता है एवं आंत की दीवार से जुड़ जाता है, जिससे यह टूट जाती है, जिससे बीटी बीजाणु को कीट के शरीर के गुहा पर आक्रमण करने का मौका मिल जाता है। इस प्रकार एफएसबी लार्वा कुछ दिनों बाद मर जाते हैं।

5.2 किसने विकसित किया?

बीटी बैंगन महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स कंपनी (महिको) द्वारा विकसित किया गया था। यह बैंगन पौधों के युवा बवजलसमकवदे को बदलने के लिए cry1Ab जीन, एक CaMV 35S प्रमोटर एवं सेलेबल मार्कर जीन nptII एवं aad युक्त डीएनए निर्माण का उपयोग करता था। EE-1 नाम की एक एकल सिंगल कॉपी एलिट इवेंट को चुना गया एवं महिको के हाइब्रिड बैंगन ब्रिडिंग कार्यक्रम में शामिल किया गया।

महिको ने तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (TNAU), कोयम्बटूर एवं कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (USA), धारवाड़ को ठज बैगन तकनीक का दान दिया। EE-1 को खुले परागित बैंगन किस्मों में बैकक्रॉस किया गया। महिको ने फिलीपींस एवं बांग्लादेश में सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों को भी इस तकनीक का दान किया है।

नेशनल सेंटर ऑन प्लांट बायोटेक्नोलॉजी (एनआरसीपीबी) ने बीटी बैंगन किस्मों को क्रायफे 1 जीन के रूप में विकसित किया। इस तकनीक को बाद में बेजो शीतल, विभा सीड्स, नथ सीड्स एवं कृषिधन बीज जैसी फर्मों को हस्तांतरित किया गया। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चरल रिसर्च (IIHR) ने भी cry1Ab जीन का उपयोग करके बीटी बैंगन का विकास किया। वैज्ञानिक बीटी बैंगन को अन्य कई एवं लाभकारी लक्षणों के साथ मिलकर विकसित करने के तरीकों की भी तलाश कर रहे हैं।

5.3 नियामक की मंजूरी

बीटी बैंगन भारत में वाणिज्यिक रिलीज के तहत पहली खाद्य फसल है, जिसका मूल्यांकन किया गया। 2000 में अपने विकास के बाद से, फसल ने अपनी खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, मानव एवं पशु स्वास्थ्य सुरक्षा एवं जैव विविधता का आकलन करने के लिए कठोर वैज्ञानिक मूल्यांकन किया है। नीचे नियामक प्रक्रिया दी गई है -

विषाक्तता एवं एलर्जी के मूल्यांकन के साथ-साथ खरगोशों, चूहों, कार्प, बकरियों, ब्रायलर मुर्गियों एवं डेयरी गायों पर पोषण संबंधी अध्ययन सहित कठोर वैज्ञानिक परीक्षणों ने पुष्टि की कि बीटी बैंगन अपने गैर-बीटी समकक्षों के समान सुरक्षित है। बीटी बैंगन की सुरक्षा को पराग से बचने, मिट्टी के माइक्रोलोरा एवं गैर-लक्ष्य वाले जीवों पर प्रभाव, एग्रोनॉमी, इनवेसिवनेस एवं बीटी प्रोटीन गिरावट पर अध्ययन के परिणामों द्वारा आगे सत्यापित किया गया था। अध्ययनों के परिणामों से पता चला है कि बीटी बैंगन एफिड, लीफहॉपर्स, मकड़ियों एवं महिला बीटल जैसे लाभकारी कीटों को प्रभावित नहीं करता है।

5.4 बीटी बैंगन के लाभ

बीटी बैंगन में 98 प्रतिशत तथा बीटी बैंगन फलों में 100 प्रतिशत कीट मृत्यु दर के साथ बीटी बैंगन एफएसबी के खिलाफ प्रभावी पाया गया है। नॉन बीटी बैंगन में कीट मृत्यु दर 30 प्रतिशत से कम होती है। एफएसबी के नियंत्रण के लिए गैर-बीटी समकक्षों की तुलना में 77 प्रतिशत कम कीटनाशकों की आवश्यकता होती है, एवं बैंगन के सभी कीटों के नियंत्रण के लिए 42 प्रतिशत कम कीटनाशक की आवश्यकता होती है। बीटी बैंगन के लाभों के कारण बेचे जा सकने वाले बैंगनों में पारंपरिक संकर से 116 प्रतिशत एवं लोकप्रिय खुले परागण वाले किस्मों (ओपीवी) में 166 प्रतिशत की औसतन वृद्धि हुई है। इसके अलावा, कीटनाशक के उपयोग में उल्लेखनीय कमी से किसानों की कीटनाशकों के संपर्क में कमी आई एवं इसके परिणामस्वरूप बैंगनों में कीटनाशक अवशेषों में काफी गिरावट आई।

5.5 क्षमता

यह माना गया था कि बीटी बैंगन में किसानों एवं उपभोक्ताओं दोनों को लाभान्वित करने की काफी संभावनाएं हैं। भारत में बीटी कपास की उल्लेखनीय सफलता, जो अब लगाए जाने वाले कपास के 80 प्रतिशत के बराबर है, यह दर्शाता है कि गरीबी एवं भूख को कम करने में योगदान देने के लिए जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इसमें परिकल्पना के अनुरूप काम नहीं हुआ है।

केंद्र को प्रशांत भूषण का नोटिस 2019 : मई 2019 में, वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने केंद्र सरकार को एक कानूनी नोटिस भेजा, जिसमें क्षेत्र में परीक्षण के अंर्तगत सहित सभी आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों पर रोक लगाने के लिए कहा गया हालांकि भारत में बीटी बैंगन को उगाना गैरकानूनी है, लेकिन सामाजिक समूहों ने, हरियाणा के एक किसान के खेत में उगाए जा रहे बीटी बैंगन का सबूत दिया है! श्री भूषण के पत्र में मांग की गई थी कि पर्यावरण मंत्रालय को नर्सरी, खेतों एवं रोपों में लगाए गए बीटी बैंगन को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए, रोपे गए बीजों के परीक्षण (बीटी जीन की उपस्थिति के लिए) एवं बीज डेवलपर्स से लेकर बिचौलियों तक संपूर्ण श्रृंखला का पता लगाना चाहिए।

बीटी सरसों (मस्टर्ड): बैंगन के बाद, सरसों का आनुवंशिक रूप से संशोधित संस्करण भी नियामक की पाइपलाइन में है। जबकि मई 2017 में यह अनुमति ले चुका था, उसके बाद GEAC पैनल ने निर्णय बदल दिया एवं यह फैसला सुनाया कि किसान के खेतों में सरसों उपलब्ध कराने से पहले अधिक परीक्षणों की आवश्यकता है। इसलिए आगे कुछ नहीं हुआ।

Cry1Ac के तकनीकी विवरण : क्राय 1 ए सी प्रोटोक्सिन एक क्रिस्टल प्रोटीन है जो कि जीवाणु बेसिलस थुरिंजिएंसिस (बीटी) द्वारा स्पोरुलेशन के दौरान निर्मित होता है। यह इस जीवाणु द्वारा उत्पादित डेल्टा एंडोटॉक्सिन में से एक है जो कीटनाशकों के रूप में कार्य करता है। इस वजह से, उन पौधों पर कीट प्रतिरोध बनाने के लिए आनुवंशिक इंजीनियरिंग (जैसे कपास एवं मकई) द्वारा व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण फसलों में इन के लिए जीन लाया गया है। जीएम उत्पादों जैसे बीटी कॉटन, बीटी बैंगन एवं आनुवांशिक रूप से संशोधित मक्का में खाद्य विवाद एवं सेरालिनी प्रकरण सहित कई मुद्दों पर ध्यान दिया गया है।

[सेरालिनी प्रसंग फ्रांसीसी आणविक जीवविज्ञानी गिल्स-एरिक सेरालिनी द्वारा एक पत्रिका में एक लेख के प्रकाशन, प्रत्यावर्तन एवं पुनरुत्थान का विवाद था। 2012 के एक लेख में चूहों को दो वर्ष तक किए गए अध्ययन प्रस्तुत किए, एवं आनुवंशिक रूप से संशोधित मकई एवं हर्बिसाइड राउंडअप के साथ चूहों में ट्यूमर में वृद्धि के बारे में बताया। वैज्ञानिकों द्वारा व्यापक आलोचना के बाद, खाद्य एवं रासायनिक विष विज्ञान ने नवंबर 2013 में लेखकों द्वारा इसे वापस लेने से इनकार करने के बाद पेपर को वापस ले लिया। प्रधान संपादक ने कहा कि लेख को वापस ले लिया गया क्योंकि इसका डेटा अनिर्णायक एवं निष्कर्ष अविश्वसनीय थे।]

Cry1Ac  एक म्यूकोसल एडजुवेंट (एक प्रतिरक्षा-प्रतिक्रिया बढ़ाने वाला) है। इसका उपयोग अमीबा नाएगलेरिया फाउलरली के खिलाफ एक टीका विकसित करने के लिए किया जाता है। यह अमीबा मानव तंत्रिका तंत्र एवं मस्तिष्क पर आक्रमण कर सकता है, जिससे प्राथमिक एमीओबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस हो सकता है, जो लगभग हमेशा घातक होता है।

6.0 भारत में जीएम सरसों (मस्टर्ड)

2014 में, दिल्ली विश्वविद्यालय के तीन जीएम सरसों के परीक्षणों को पंजाब के दो स्थलों एवं दिल्ली के एक-एक रबी सीजन में बोया गया। भारत के तीन राज्यां, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं हरियाणा का भारत के सरसों उत्पादन में 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। मध्य प्रदेश ने राज्य के भीतर जीएम क्षेत्र परीक्षणों की अनुमति देने से इनकार कर दिया। राजस्थान ने शुरू में अनुमति दी, लेकिन 2012 में परीक्षण रोक दिया, तथा फसल को तुरंत जलाने के आदेश दिए। हरियाणा ने अब तक जीएम सरसों के लिए ‘अनापत्ति प्रमाणपत्र’ जारी करने से इनकार कर दिया है। हालांकि, यह दावा किया जाता है कि जीन संशोधन से सरसों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिलेगी।

6.1 परिचय

सरसों भारत में उगाई जाने वाली कई तिलहन फसलों में से एक है। वर्षों से, इसकी उत्पादकता एवं उत्पादन उतार चढ़ाव भरा रहा है। 2010-11 में 81.8 लाख टन सरसों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था। 1990-91 में 9.04 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से, 2013-14 में सरसों की औसत पैदावार बढ़कर 12.62 क्विंटल हो गई, गुजरात में 16.95 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की रिकॉर्डिंग हुई। यदि किसानों को वाजिब पारिश्रमिक मूल्य का भुगतान किया जाता है एवं हर वर्ष फसल की खरीद के लिए पर्याप्त मंडी इत्यादि बुनियादी ढांचा तैयार किया जाता है, तो सरसों की पैदावार को ओर अधिक बढ़ाया जा सकता है। चूंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं हरियाणा में सरसों की लगभग 70 प्रतिशत खेती की जाती है, किसानों के सामने समस्या अधिक उत्पादन एवं खरीदारों की कमी, की है।


6.2 जीएम सरसों क्यों

जीएम सरसों को देश में खाद्य तेल की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए सरसों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए विकसित किया गया था। यह खाद्य तेलों के आयात के लिए खाद्य तेल क्षेत्र को खोलने की सरकार की अपनी नीति का खंडन करता है। सरकार की नीतियां 1985 में स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन के लाभ को नष्ट करने के उद्देश्य से प्रतीत होती हैं। 1985-1993 के दौरान तिलहन उत्पादन के दोगुने होने से देश को तेल की कीमत पर अपनी अपमानजनक निर्भरता, जो कि 1,500 करोड़ रुपये सालाना तथा 3,000 करोड़ रुपये सालाना के बीच होता है, से बचने में सक्षम हो गया। 1986-87 में 11 मिलियन टन से, तिलहन उत्पादन 1994-95 तक 22 मिलियन टन हो गया। भारत एक तिलहन के आयातक देश से इसका निर्यातक देश बन गया। 

फिर भी भारत ने जानबूझकर आयात शुल्क कम करना शुरू कर दिया, जिससे सस्ता खाद्य तेल प्रवाह में आ गया। देश अब औसतन पाँच मिलियन टन खाद्य तेल का आयात करता है, जो घरेलू आवश्यकता का लगभग 50 प्रतिशत है, जिसकी लागत 9,000 करोड़ रुपये से अधिक है। यदि भारत खाद्य तेल का उत्पादन बढ़ाने के बारे में गंभीर था, तो पहला कदम अवांछित आयात को रोकने का होना चाहिए था।

6.3 यूरोपीय संघ जीएम खाद्य पदार्थों से खुश नहीं है

यूरोपीय संघ (ईयू) अभी भी जीएम फूड पर रोक लगा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जीएम खाद्य एवं फसलों को खोलने के लिए भारत जैसे देशों में ध्यान केंद्रित किया गया है एवं इससे उन अनगिनत समस्याओं में एक और इजा़फा होगा जो भारतीय किसानों के समक्ष हैं। प्रभाव के बारे में आशंका अन्य देशों से प्राप्त अनुभव से निकलती है। उदाहरण के लिए, कनाडा के वैज्ञानिकों ने पाया है कि जीएम कैनोला (रेपसीड) की एक संबंधित प्रजाति एक बेकाबू खरपतवार बन गई है। कम से कम तीन ‘सुपर खरपतवार’ पहले से ही कैनोला के संबंध में उग आए हैं। भारत में छोटे खेत के आकार एवं विविधता को ध्यान में रखते हुए, इस तरह के सुपर खरपतवार के विकास की संभावना बहुत अधिक है। अन्य प्रभावों के अलावा, प्रोटीज अवरोधकों के साथ जीएम सरसों फूलों एवं पराग के उत्पादन को प्रभावित करके सीधे एवं अप्रत्यक्ष रूप से शहद के उत्पादन को प्रभावित कर सकती है।

यह भी ज्ञात है कि मस्टर्ड डीएमएच 11 एक हर्बिसाइड-सहिष्णु फसल है जिसे बायर के ग्लूफोसिनेट के लिए प्रतिरोधी बनाया गया है, जो कि ग्लाइफोसेट (विश्व मानव संगठन के अनुसार एक संभावित मानव कार्सिनोजेन) से भी अधिक विषाक्त है। ग्लूफोसिनेट एक व्यापक स्पेक्ट्रम हर्बिसाइड है जो तंत्रिका क्षति एवं जन्म दोष का कारण बनता है एवं अधिकांश जीवों के लिए विषाक्त है। यह स्तनधारियों के लिए भी एक न्यूरोटॉक्सिन है जो आसानी से बायोडिग्रेडेबल नही है।

6.4 बैंगन के बाद सरसों

यह पहली बार होगा जब फरवरी 2010 में बीटी बैंगन पर अनिश्चितकालीन रोक लगाने के बाद भारत किसी भी जीएम खाद्य फसल की व्यावसायिक खेती को मंजूरी देगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा विकसित इस जीएम सरसों को, धरा सरसों हाइब्रिड 11 (क्डभ्11) कहा जाता है, ने इस तरह के हाइब्रिड के माध्यम से बढ़ी हुई पैदावार के दावों पर संकरण की सुविधा के लिए ट्रांसजेनिक तकनीक को अपनाया। ऐसी जीएम सरसों बनाने में, पुरुष नसबंदी को माता-पिता की सहिष्णुता में से एक में प्रेरित किया गया है, इसके अलावा हर्बिसाइड सहिष्णुता लक्षणों का उपयोग किया जाता है।

बड़े पैमाने पर क्षेत्र परीक्षण केवल तब किए जा सकते हैं जब एक फसल ने कठोर, स्वतंत्र, दीर्घकालिक परीक्षण एवं मूल्यांकन में सभी जैव-सुरक्षा प्रोटोकॉल को व्यापक रूप से मंजूरी दे दी हो। हालाँकि, जीएम सरसों के साथ ऐसा नहीं हुआ है। 15 मई, 2015 को सूचना के अधिकार (आरटीआई) प्रश्न के उत्तर में, प्राधिकरण ने कहा, ‘उपरोक्त मामला प्रक्रियाधीन है एवं इस स्तर पर जानकारी प्रदान नहीं की जा सकती है। यहां यह याद रखना चाहिए कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन या डीबीटी, 1 अगस्त, 2007 को इसकी सुनवाई में मंत्रालय की वेबसाइट पर जैव सुरक्षा डेटा पोस्ट करने के लिए जीईएसई को निर्देशित किया है।

6.5 सार्वजनिक डोमेन में सुरक्षा डेटा

यह स्पष्ट है कि अधिकारियों ने 2007 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन नहीं किया है तब जब जीएम पीआईएल में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि जैव सुरक्षा डेटा को सार्वजनिक डोमेन में रखा जाए, क्योंकि जब तक कि विषाक्तता एवं एलर्जीनिटी डेटा के बारे में जनता को पता नही चल जाता है, देश में संबंधित आवेदक एवं वैज्ञानिक संबंधित अधिकारियों को प्रभावी अभ्यावेदन देने की स्थिति में नहीं होंगे।

यह पहली बार नहीं होगा जब सरकार के सामने जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती का प्रस्ताव आया हो। 2002 में, तत्कालीन केंद्र सरकार ने निजी क्षेत्र के बीज निर्माता बायर की ट्रांसजेनिक सरसों के वाणिज्यिक रोपण के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

7.0 भारत का बायोटेक्नोलॉजिकल विनियामक विधेयक 

बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (बीआरएआई) विधेयक 2013, 22 अप्रैल 2013 को लोकसभा में पेश किया गया था। बिल का उद्देश्य आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के सुरक्षित उपयोग को ‘बढ़ावा देना’ था।

ऐसा लगता था कि प्रस्तावित जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण में सभी निर्णय लेने वाले कुछ ही टेक्नोक्रेट होंगे, जबकि वर्तमान शीर्ष नियामक, ळम्।ब्ए एक बहु-मंत्रालयीय निकाय है जो विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करता है। बिल के अनुसार, बीआरआई में एक अध्यक्ष, दो पूर्णकालिक सदस्य एवं दो अंशकालिक सदस्य होंगे। सभी को कृषि, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यावरण एवं सामान्य जीव विज्ञान, जीवन विज्ञान एवं जैव प्रौद्योगिकी में विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। बीआरआई विधेयक, 2013, प्रस्तावित बीआरआई के प्रदर्शन की देखरेख के लिए एक अंतर-मंत्रालयी शासी बोर्ड की स्थापना का प्रावधान करता है। यह भारत में आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के विकास एवं उनके निहितार्थ से संबंधित मामलों पर प्राधिकरण को रणनीतिक सलाह प्रदान करने के लिए बायोटेक सलाहकार परिषद की स्थापना के लिए भी प्रदान करेगा। नियामक निकाय जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों एवं जीवों के अनुसंधान, परिवहन, आयात एवं निर्माण को विनियमित करने के लिए एक स्वायत्त एवं वैधानिक एजेंसी होगी।

7.1 प्रक्रिया

जैव प्रौद्योगिकी बिल को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की एक स्थायी समिति के पास भेजा गया था, जिसे राय एवं सुझाव देने के लिए कहा गया। कुछ लोगों ने कहा कि इस विधेयक को तब पेश किया गया था जब कृषि पर संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि भारत को इस तरह विधेयक बिल की आवश्यकता नहीं है एवं इसके बजाय जैव सुरक्षा संरक्षण प्राधिकरण की आवश्यकता है।

7.2 मुख्य बातें

इस विधेयक में आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी जीवों एवं उत्पादों को विनियमित करने के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण, ‘जैव प्रौद्योगिकी नियामक प्राधिकरण’ स्थापित किया गया। बीआरआई जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के अनुसंधान, परिवहन, आयात, नियंत्रण, पर्यावरण रिलीज, निर्माण एवं उपयोग को विनियमित करेगा। वैज्ञानिक विशेषज्ञों द्वारा किए गए मूल्यांकन की एक बहु-स्तरीय प्रक्रिया के माध्यम से बीआरआई द्वारा विनियामक अनुमोदन प्रदान किया जाएगा। बीआरआई प्रमाणित करेगा कि विकसित उत्पाद इसके इच्छित उपयोग के लिए सुरक्षित है। उत्पाद को नियंत्रित करने वाले अन्य सभी कानून लागू होते रहेंगे। एक जैव प्रौद्योगिकी नियामक अपीलीय न्यायाधिकरण सिविल मामलों की सुनवाई करेगा जिसमें आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित एक बड़ा प्रश्न शामिल है एवं बीआरआई के निर्णयों एवं आदेशों पर अपील सुनी जाएगी। बीआरआई को गलत जानकारी प्रदान करने, अनुचित क्षेत्र परीक्षण करने, बीआरआई के एक अधिकारी को बाधित करने या लागू करने एवं विधेयक के किसी भी अन्य प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिए जुर्माना निर्दिष्ट किया गया था।

7.3 हानियाँ

आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने वाला एक मंत्रालय (विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय) इस विधेयक में नियामक प्राधिकरण को शामिल करने का प्रयास करता है - प्रवर्तक नियामक नहीं हो सकते क्योंकि इसमें निहित हितों का टकराव है। बीआरआई विधेयक को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत डीबीटी द्वारा प्रस्तावित किया गया था, जिसमें देश में जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए एक जनादेश है। इस स्थिति में जैव प्रौद्योगिकी के प्रवर्तक क्षेत्र नियामक को बनाने और इसके कामकाज में सहायता करने में एक प्रमुख भूमिका निभाएंगे। एक ही मंत्रालय के तहत जीएम फसलों के प्रचार और विनियमन के साथ, हितों का भारी संघर्ष है। इस विनियामक विधेयक का उद्देश्य प्रौद्योगिकी के सुरक्षित उपयोग को बढ़ावा देना है। प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए, एक कानून की जरूरत नहीं है। नियमन की आवश्यकता केवल एक कारण से आती है - हमारे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण एवं लोगों की आजीविका को आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के जोखिमों से बचाने के लिए। विधेयक में यह व्यक्त जनादेश के रूप में नहीं है।

विधेयक के अपने निहितार्थ हैं एवं यह कई मुद्धों जिनकी जाँच स्वतंत्र कानूनों द्वारा की जाती है का अतिक्रमण करता है जैसे कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, जैविक विविधता अधिनियम 2002, वन अधिकार अधिनियम 2006, वन संरक्षण अधिनियम 2006, खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 2006, पंचायत राज अधिनियम 1993, नगरपालिका अधिनियम 1992, सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 इत्यादि। इस तरह के ओवररचिंग बिल पर अधिक बहस की जरूरत है जो अब तक नहीं हुआ है।

7.4 कौन सर्मथन करता है?

बीआरआई के लिए सबसे बड़ा समर्थन निगमों, टेक्नोक्रेट वर्ग एवं .षि वैज्ञानिकों से आया है, अमेरिकी साम्राज्यवाद की शायद इस मामले में भूमिका थी। कुछ आरोप यह लगाए गए है कि अमेरिकी हितों का एक प्रमुख लक्ष्य भारतीय कृषि की प्र.ति को मूल रूप से बदलना है, एवं यह बहुराष्ट्रीय निगमों, विशेष रूप से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों के अधीन है।

जुलाई 2005 में, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एवं तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कृषि शिक्षा, शिक्षण, अनुसंधान, सेवाओं और वाणिज्यिक संपर्कों पर यूएस-इंडिया नॉलेज इनिशिएटिव’ या केआईए समझौते पर हस्ताक्षर किए। एक बोर्ड स्थापित किया गया था जिसका मुख्य उद्देश्य समझौते के विभिन्न उद्देश्यों को लागू करना था, और इस तरह ‘दूसरी हरित क्रांति’ की शुरुआत हुई। केआईए में सबसे बड़ा जोर भारतीय कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के बड़े पैमाने पर अनुप्रयोग पर रखा गया था। भारत-अमेरिका कृषि ज्ञान संधि को पूरी तरह से लागू करने के लिए, बीआरआई की स्थापना करना आवश्यक हो गया, जो बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों के लिए जीएम फसलों के व्यावसायीकरण की प्रक्रिया को सरल एवं उत्तरदायी बना देगा।

7.5 विकल्प

भारत को जैव सुरक्षा संरक्षण कानून की आवश्यकता है। GMOs के किसी भी नियामक शासन में लोगों के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के जोखिमों से बचाने का प्राथमिक जनादेश होना चाहिए तथा यह भी महसूस करना चाहिए कि ट्रांसजेनिक तकनीक को पूरी दुनिया में नागरिकों तथा सरकारों द्वारा सक्रिय रूप से खारिज कर दिया जा रहा है एवं यह एक ‘फेट एकॉम्प्लाई’ (निश्चित अंत परिणाम) नहीं है। ऐसा होना चाहिए था - केंद्रीय मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में एहतियाती सिद्धांत - केवल अन्य विकल्पों के ना होने की स्थिति में जीएम के लिए जा रहे हैं एवं दीर्घकाल में उपयोग किए जाने पर ही सुरक्षित साबित होते हैं।

पारदर्शी कामकाज - सूचना प्रकटीकरण एवं सार्वजनिक/स्वतंत्र जांच - जनता की भागीदारी सहित लोकतांत्रिक कामकाज।

7.6 निष्कर्ष

यदि बीआरआई बिल अपनी वर्तमान संरचना में लागू होता है तो यह अच्छा नहीं होगा। अगर यह सरकार द्वारा पारित किया जाता है, तो बीटी बैंगन, बीटी चावल एवं कुछ 40-खाद्य, खाद्य फसलों को जोखिम में डाल सकता है। विधेयक नागरिकों के बहुत से संवैधानिक अधिकारों पर हमला करता है, जिसमें सूचना का अधिकार, चुनने का अधिकार, यहां तक कि न्यायालय के तहत निवारण का अधिकार भी शामिल है। विधेयक में राज्य सरकार के लिए एक सीमित भूमिका की परिकल्पना की गई है। सुरक्षित भोजन की पसंद के साथ-साथ चुनने के अधिकार को कुचलने के साथ बहुराष्ट्रीय दिग्गजों आमंत्रित किया जाएगा, जो तब इस देश के कृषि क्षेत्र को संभालेंगे। अगर यह बिल लागू होता है तो किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा एवं बहुत जल्द देश में किसानों की सामूहिक आत्महत्याओं का दौर शुरू होगा। कानून को जैव विविधता को बढ़ाने एवं देश में लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए बनाया जाना चाहिए, अन्यथा नहीं।

8.0 जैविक चोरीः एक प्रमुख खतरा 

जैविक चोरी का संबंध ज्ञान और कृषि व स्वदेशी समुदायों के आनुवांशिक संसाधनों के व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा हड़प लिए जाने से है जो इन संसाधनों और ज्ञान पर अनन्य एकाधिकार नियंत्रण (पेटेंट या बौद्धिक संपत्ति) प्राप्त करना चाहते हैं। 

नीम का पेटेंटीकरणः भारत के लोगों द्वारा नीम का उपयोग अनंत काल से किया जाता रहा है और नीम की विशेषताओं के बारे में ज्ञान संपूर्ण विश्व के साथ साझा किया गया है। इस ज्ञान की चोरी करके यूएसडीए और एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी डब्लू आर ग्रेस ने 1990 के दशक के प्रारंभ में यूरोपीय पेटेंट कार्यालय (ईपीओ) से ‘‘नीम के तेल के जल विरोधी निष्कर्षण की सहायता से वनस्पति पर नियंत्रण की पद्धति‘‘ पर एक पेटेंट (क्रमांक 0426257 बी) की मांग की। नीम की कवकनाशी विशेषताओं का पेटेंटीकरण जैविक चोरी का एक उदाहरण था। 1995 में डब्लू आर ग्रेस ने खाद्य फसलों पर उपयोग के लिए नीम आधारित जैविक कीटनाशकों का पेटेंट प्राप्त किया। नीमिक्स कीडों की 200 से अधिक प्रजातियों में कीट के भोजन व्यवहार और वृद्धि को दबाता है। भारत द्वारा अपील किये जाने के कारण 2000 में इसे रद्द कर दिया गया। 2014 में भारत ने यूरोपीय पेटेंट कार्यालय द्वारा नीम आधारित फसल कवकनाशक को पेटेंट प्रदान करने के विरुद्ध लड़ी गई एक दशक लंबी लड़ाई जीती, जिस दौरान उसने यह सिद्ध किया कि यह सदियों से भारतीय कृषकों और वैज्ञानिक समुदायों के पारंपरिक ज्ञान का भाग रहा है। ईपीओ ने अमेरिकी कृषि विभाग और बहुराष्ट्रीय कंपनी डब्लू आर ग्रेस को पेटेंट प्रदान करने के अपने पहले निर्णय को उलट दिया। 

बासमती का पेटेंटीकरणः बासमती एक लंबे दाने वाली खुशबूदार चांवल की किस्म है जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानीय है। 1997 में अमेरिकी पेटेंट एवं व्यापार चिन्ह (ट्रेड मार्क) कार्यालय (यूएसपीटीओ) ने टेक्सास स्थित अमेरिकी कंपनी राइस टेक इंक को ‘‘बासमती चावल पंक्ति और दानों‘‘ के लिए पेटेंट (क्रमांक 5663484) प्रदान किया। पेटेंट आवेदन इस चावल ‘‘के आविष्कार‘‘ के 20 अत्यंत व्यापक दावों पर आधारित था। इसके कारण भारत और अमेरिका के बीच एक संक्षिप्त कूटनीतिक संकट पैदा हो गया, जहां भारत ने यह मामला विश्व व्यापार संगठन में ट्रिप्स के उल्लंघन के रूप में ले जाने की धमकी दी। यूएसपीटीओ ने अपने निर्णयों की समीक्षा की, और राइस टेक अपने अधिकांश दावों के बारे में या तो हार गया या उसने पेटेंट के अपने दावे वापस ले लिए, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण यह था कि वे अपनी चांवल पंक्ति को ‘‘बासमती’’ के नाम से नहीं बुला सकते। एक अधिक सीमित किस्मी पेटेंट 2001 में राइस टेक को कंपनी द्वारा विकसित चांवल के तीन तनावों के लिए प्रदान किया गया था।

9.0 भारत का आज का जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र 

भारत पुनः संयोजक हेपेटाइटिस बी टीकों का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ की विश्व के शीर्ष 12 जैवप्रौद्योगिकी गंतव्यों में से एक भी है। हाल ही में वह  कनाडा को पीछे छोड़ कर विश्व का जैवप्रौद्योगिकी या आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों की पैदावार करने वाला विश्व का चौथा सबसे बड़ा देश बन गया है। आज लगभग 11 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में बीटी कपास की .षि की जा रही है। आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों के तहत आने वाला वैश्विक क्षेत्र 2013 में बढ़कर 175.2 मिलियन हेक्टेयर हो गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 5 मिलियन हेक्टेयर अधिक है। भारत की शीर्ष 10 (राजस्व के आधार पर) जैवप्रौद्योगिकी कंपनियों में से छह कंपनियां अपनी विशेषज्ञता जैव औषधियों पर केंद्रित करती हैं, वहीं चार कंपनियां कृषि जैवप्रौद्योगिकी में विशेषज्ञता रखती हैं। इस क्षेत्र में पदवी हासिल करने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए बड़ी संख्या में सरकारी और स्वायत्त संस्थाएं आवश्यक अवसर प्रदान करती हैं। साथ ही भारत सरकार ने जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास सुविधाएं प्रदान करके इस क्षेत्र को पर्याप्त व्यापकता प्रदान की है। 

9.1 बाजार का आकार 

ऐसा अनुमान है कि भारत का जैवप्रौद्योगिकी उद्योग 2011-12 के 4.3 बिलियन डॉलर से 2016-17 में बढ़कर 11.6 बिलियन डॉलर का हो जायेगा। विभिन्न जैवप्रौद्योगिकी उत्पादों की उच्च मांग ने इस क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के लिए भी आधार स्थापित करके बडे़ लाभ प्राप्त करने के अवसर खोल दिए हैं। 

लगभग 400 कंपनियों के साथ भारत के जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र ने पिछले पांच वर्षों के दौरान तिगुनी वृद्धि करके वित्त वर्ष 2012-13 में यह 4 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। औसत 20 प्रतिशत की दर से वृद्धि करते हुए जैवऔषधि, जैवसेवाओं, जैविक .षि, जैविक उद्योगों और जैविक सूचना विज्ञान के समावेश वाला भारत का जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र वित्त वर्ष 2015 तक 7 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। इस क्षेत्र में जैवऔषधि क्षेत्र सबसे बड़ा क्षेत्र है जो इस क्षेत्र के कुल राजस्व में 62 प्रतिशत राजस्व का योगदान प्रदान करता है। इसके बाद जैविक सेवा क्षेत्र (18 प्रतिशत), जैविक कृषि (15 प्रतिशत), जैविक उद्योग (4 प्रतिशत) और जैव सूचना विज्ञान (1 प्रतिशत) का क्रमांक आता है। भारत नैदानिक परीक्षणों के लिए भी एक प्रमुख स्थल के रूप में उभरा है, जो लगभग 636.73 मिलियन डॉलर का राजस्व निर्माण करते हैं। 

9.2 निवेश 

भारत के जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र की क्षमता के कारण अनेक वैश्विक कंपनियां भी भारत में निवेश के लिए प्रेरित हुई हैं। इस क्षेत्र में हाल ही में हुए कुछ महत्वपूर्ण घटनाक्रम निम्नानुसार हैंः

  1. सनोफी पाश्चर ने 10 नवंबर 2014 को अपने पंचसंयोजक बालरोग टीके शान 5 की शुरुआत की घोषणा की, जिसका विकास एवं विनिर्माण उसकी सहयोगी शांता द्वारा किया जा रहा है। 
  2. केरल स्थित अर्जुना नेचुरल एक्सट्रैक्ट्स लिमिटेड के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में कंपनी को बीसीएम-95 पर अमेरिका में एक पेटेंट प्राप्त हुआ है, जो एक हल्दी रस का संरूपण है जिसका उपयोग मानसिक रोग (अल्जाइमर) को लक्षित करने के लिए किया जा सकता है। अनुप्रयोग पेटेंट का स्पष्टीकरण करते हुए कंपनी के संयुक्त प्रबंध निदेशक श्री बैनी एंटनी ने कहा कि यह उत्पाद हल्दी में उपलब्ध दो घटकों का पुनर्मिश्रण है, परंतु यह ऐसा पुनर्मिश्रण है जो प्राकृतिक रूप से मिलने वाली हल्दी में नहीं पाया जाता। उन्होंने बताया कि यह करक्यूमिनोइड और हल्दी के एक अनिवार्य तेल का पुनर्मिश्रण है। 
  3. बायोकॉन की अनुबंध अनुसंधान सहयोगी कंपनी ब्रिस्टल मयेर्स स्क्विब और सीनजीन इंटरनेशनल ने भारत में अपने औषधि खोज और विकास सहयोग को पांच वर्ष के लिए बढ़ाने की घोषणा की है। 
  4. भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीएआरसी) ने अपने प्रौद्योगिकी ऊष्मायन केंद्र (बीएआरसीआईटी) के माध्यम से वीणा उद्योग, नागपुर के साथ जैव निम्नीकरणीय के लिए प्रौद्योगिकी के ऊष्मायन और खाद्य एवं औषधि पैकेजिंग के लिए खाद्य झिल्ली (फिल्म) के लिए एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं। 
  5. कैंसर जेनेटिक्स इंक (सीजीआई) ने हैदराबाद स्थित जीनोमिक्स सेवा प्रदाता बायोसर्व इंडिया को 1.9 मिलियन डॉलर पर अधिग्रहित किया है। इसके कारण सीजीआई को वैयक्तिकृत कर्करोग सेवा के क्षेत्र में स्वयं के लिए वैश्विक स्तर पर बेहतर स्थिति निर्मित करने में सहायता मिलेगी। 
  6. शंघाई जिअडिंग एडवांस्ड टेक्नोलॉजी इनोवेशन एंड बिजनेस इनक्यूबेटर ने भारतीय प्रौद्योगिकी नवप्रवर्तकों और लघु एवं मध्यम उद्यमों को, विशेष रूप से अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र, जैव चिकित्सा उपकरण क्षेत्र और उन्नत विनिर्माण क्षेत्र में, जिअडिंग में अपने व्यापार स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया है। 
  7. सुवेन लाइफ साइंसेज लिमिटेड ने अपनी नई रासायनिक संस्थाओं के लिए हांगकांग और कनाडा से, प्रत्येक से एक ऐसे, दो पेटेंट मनोअपकर्षक रोगों से संबंधित विकारों के इलाज के लिए प्राप्त किये हैं।

9.3 सरकारी पहलें 

सिडबी द्वारा प्रौद्योगिकी केन्द्रों का एक संजाल और नए छोटे उद्यमों को प्रोत्साहन सरकार द्वारा उठाये गए कुछ कदम हैं ताकि नई योजना में एमएसएमई मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित कृषि उद्योग में नवप्रवर्तनों और उद्यमिता को प्रोत्साहन दियाजा सके। यह योजना वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली द्वारा अपने इस वर्ष के बजट भाषण में कृषि उद्योग में नवप्रवर्तनों और उद्यमिता को प्रोत्साहित करने के लिए 200 करोड़ रुपये (31.52 मिलियन डॉलर) के कोष की घोषणा के बाद है। 

भारत सरकार द्वारा देश के जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र के सुधार के लिए अनेक कदम उठाये हैं, साथ ही वह इस क्षेत्र में अनुसंधान के अनेक अवसर प्रदान करती है। राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी बोर्ड (एनबीटीबी) और जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य अनेक स्वायत्त निकायों जैसी सरकार द्वारा वित्तपोषित अन्य अनेक संस्थाओं के साथ मिलकर जैवप्रौद्योगिकी विभाग सक्रिय रूप से कार्य कर रहा है ताकि भारत को जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान और व्यापार श्रेष्ठता के एक वैश्विक केंद्र के रूप में प्रदर्शित किया जा सके। हाल ही में की गई कुछ प्रमुख पहलें निम्नानुसार हैंः

  1. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) - हिमालयीन जैविकस्रोत प्रौद्योगिकी संस्थान (सीएसआईआर-आईएचबीटी) ने फाइटो बायोटेक के साथ प्रसाधन, खाद्य और औषधि उद्योगों में अंतिम अनुप्रयोगों के रूप में उपयोग किये जाने वाले विशिष्ट ऑटोक्लेवेबल सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेस किण्वक (एंजाइम) के उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को औपचारिक रूप प्रदान करने के लिए एक मसौदा ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं। 
  2. डीबीटी ने भारत-ऑस्ट्रेलिया भविष्य वृद्धि अधिछात्रवृत्ति की घोषणा की है जिसके तहत वह अनुसंधानकर्ताओं को ऑस्ट्रेलिया के एक शीर्ष विज्ञान संस्थान या विश्वविद्यालय में सहयोगपूर्ण अनुसंधान परियोजना की शुरुआत करने के लिए 24 महीने की अवधि के लिए सहायता प्रदान करेगा। 
  3. डीबीटी ने ‘‘कटहल और उसके उत्पादों पर एक मूल्य श्रृंखला‘‘ शीर्षक वाली एक राष्ट्रीय बहु संस्थागत परियोजना की सहायता के लिए कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (यूएएस) को 4.6 करोड़ रुपये (724,997.34 डॉलर) आवंटित किये हैं। 
  4. 12 वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भारत सरकार की विनियामक विज्ञान और अधोसंरचना के सशक्तिकरण की योजना है, जिसमें भारतीय जैवप्रौद्योगिकी विनियामक प्राधिकरण (बीआरएआई) और विनियामक परीक्षण और प्रमाणीकरण प्रयोगशालाओं के लिए एक केंद्रीय अभिकरण स्थापित करना शामिल है। 

9.4 आगे की राह 

भारत जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र में अनेक लाभ प्रदान करता है। अनुसंधान एवं विकास सुविधाओं, ज्ञान, कौशल, और लागत प्रभाविता के कारण भारत के जैवप्रौद्योगिकी उद्योग में एक वैश्विक स्तर के महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में उभरने की अपार संभावनाएं और क्षमताएं हैं। बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था और बढ़ते आय स्तर के साथ ऐसा अनुमान है कि भारत स्वास्थ्य सेवा उत्पाद प्रदान करने में सक्षम होगा, साथ ही खाद्य वस्तुओं और ऊर्जा की मांग में भी वृद्धि होगी। वर्तमान समय में अनेक देश भारतीय जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र में निवेश करने की इच्छा कर रहे हैं। सभी प्रकार की सहायता और सरकारी पहलों और श्रेष्ठता सिद्ध करने के संकल्प के साथ भारत बहुत शीघ्र ही सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं और अभिनव औषधियां, सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण भोजन और खाद्य प्रदान करने के मामले में विश्व नेतृत्व प्राप्त कर सकता है।

10.0 जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र के समक्ष चुनौतियाँ 

मजबूत वृद्धि और अपार संभावनाओं के बावजूद भारतीय जैवप्रौद्योगिकी उद्योग कुछ चुनौतियों का सामना कर रहा है, जैसे अनुसंधान लिए पर्याप्त संसाधनों का अभाव, और संक्रामक रोगों के लिए सूक्ष्मतम और रासायनिक अनुवीक्षण पुस्तकालयों और स्तर 3 की जैवसुरक्षा सुविधाओं का अभाव। जैवप्रौद्योगिकी विभाग और एबीएलई प्रभावी योजनाओं और नीतियों के निर्माण के माध्यम से इन चुनौतियों को संबोधित करते हैं। वर्तमान में डीबीटी का मुख्य केंद्रबिंदु है सार्वजनिक वित्तपोषण और सार्वजनिक-निजी भागीदारी पहलों के माध्यम से निवेश को बढ़ाना। हालांकि 2012-13 के केंद्रीय बजट ने जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिए कुछ विशेष प्रदान नहीं किया है, फिर भी मुख्य केंद्रबिंदु कृषि और टीका क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास पर रहा है। इन दोनों ही क्षेत्रों का उद्योग पर अनुकूल प्रभाव होने की संभावना है। पिछली, वर्तमान और भविष्य की पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार के मुख्य केंद्रबिंदु क्षेत्र निम्नानुसार रहे हैंः

निधियों के अंतर्वाह में वृद्धि करनाः यह भारतीय कंपनियों को उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में नवप्रवर्तनों के लिए सहायता प्रदान करेगा। नवप्रवर्तनों ने कृषि जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र को फसलें (बीटी कपास) विकसित करने के लिए प्रेरित किया है, जिसके कारण न केवल उत्पादन में वृद्धि हुई है बल्कि इसके कारण अपव्यय और कीटनाशकों के उपयोग में भी कमी आई है। सार्वजनिक निजी भागीदारी पर सरकार के केंद्रीकरण के कारण निजी क्षेत्र को जैवप्रौद्योगिकी उद्योग में निवेश के लिए और जैवप्रौद्योगिकी उत्पादों के वाणिज्यीकरण के लिए प्रोत्साहन मिला है।

शैक्षणिक अधोसंरचना पर विशेष जोरः कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान कार्यों के लिए अनुदान और निधि प्रदाय के माध्यम से सरकार ने शैक्षणिक अधोसंरचना पर विशेष जोर दिया है। 

अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से घरेलू बाजारों पर केंद्रीकरण का आसन्न परिवर्तनः हालांकि पिछले वर्षों के दौरान निर्यात मूल्य की दृष्टि से जैवप्रौद्योगिकी बाजार का बड़ा हिस्सा रहे हैं फिर भी लोगों के आय स्तर में वृद्धि और भारतीय माध्यम वर्ग के विकास के कारण भविष्य में घरेलू बाजार को अधिक बढ़ावा मिलने का अनुमान है। 

हालांकि भारत में जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र में पदवी प्रदान करने वाले संस्थानों की बड़ी संख्या है फिर भी अनुसंधान के क्षेत्रों में कुशल मानवशक्ति की कमी है, जैसे कर्करोग विज्ञान, चिकित्सकीय रसायनशास्त्र, औषधि वितरण, और इन विवो औषध विज्ञान। इसी कारण से सरकार की उच्च तकनीकी सुविधाओं के साथ जैवप्रौद्योगिकी उद्यानों की स्थापना के साथ ही उपरोक्त विषयों के लिए प्राथमिकता क्षेत्रों के रूप में 50 अनुसंधान केंद्र स्थापित करने की योजना है। इन कारकों के मद्देनजर भारतीय जैवप्रौद्योगिकी उद्योग भविष्य में उच्च विकास की ओर अग्रसर होने की संभावना है। 

भारतीय मसौदा राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी विनियामक विधेयक, 2008 के अनुसार आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी का अर्थ है ‘‘कृत्रिम परिवेशीय नाभिकीय अम्ल तकनीकों का अनुप्रयोग, जिनमें पुनः संयोजक डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल (डीएनए) और कोशिकाओं में नाभिकीय अम्ल का सीधा अंतःक्षेपण; या ओर्गानेलस या वर्गिकी परिवार के पार कोशिकाओं का विलयन जो प्रा.तिक शारीरिक, प्रजननीय या पुनःसंयोजन बाधाओं पर विजय प्राप्त करता है और ये ऐसी तकनीकें नहीं हैं जो पारंपरिक प्रजनन और चयन में उपयोग की जाती हैं। इसमें जिन्हें शामिल नहीं किया गया है वे हैंः कृत्रिम परिवेशीय निषेचन; संयुग्मन, पारगमन, परिवर्तन जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाएं; बहुगुणित अधिष्ठापन; और त्वरित उत्परिवर्तजनन।’’

जैवप्रौद्योगिकी नीति पर होने वाली बहस हृदय में सूचना नीति पर बहस है। एक स्तर पर बहस में यह बात शामिल है कि जैवप्रौद्योगिकी के साधनों को, और वे जीन दृश्यों और गुणसूत्र मानचित्रों जैसी जो बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं उन्हें बौद्धिक संपत्ति संरक्षण किस प्रकार प्रदान किये जाएँ। एक अलग और कम आरामदायक स्तर पर बहस इन प्रश्नों पर परिवर्तित हो जाती है कि जानकारी सर्वश्रेष्ठ ढंग से किस प्रकार वितरित किया जाए, ताकि अन्य लोग उसे उपयोग करने में सक्षम बनें, और इसके दुरूपयोग और निजता की हानि को रोका जा सके। कंप्यूटर युग के नए साधनों की सहायता से जैवप्रौद्योगिकी पिछली किसी भी प्रौद्योगिकी की तुलना में अधिक तेजी से विकसित हो रही है, और इस प्रक्रिया में यह व्यवहार और नीति के बीच अधिक चौड़ा अंतर निर्माण कर रही है। 

सूचना और राय बनाने की प्रक्रियाः आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों पर सार्वजनिक बहस को प्रोत्साहित करने के माध्यम से विकास सहयोग इस स्थिति को सुधारने में सहायक हो सकता है। यह निर्णय प्रक्रियाओं का समर्थन करके किया जा सकता है, जबकि उसी समय विकासशील देशों की संप्रभुता सम्मान भी किया जाना चाहिए। उद्देश्य यह है कि विकासशील देशों को ऐसी स्थिति में रखा जाए ताकि वे सार्वजनकि चर्चा के आधार पर अपने स्वयं के सूचित विकल्पों का चयन कर सकें। 

दिशानिर्देश निर्धारित करने में सहायताः जैवसुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों के संबंध में मनमानी और दुरूपयोग को रोकने लिए ऐसे दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय परिदृश्य की दृष्टि से अनुकूल और प्रासंगिक हों अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने भी इस आवश्यकता को माना है और इसे कार्टागेना प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 22 में दर्ज किया गया है। अब तक इस क्षेत्र में अनेक परियोजनाएं शुरू की जा चुकी हैं। इनका वित्तपोषण न केवल वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण तंत्रों के माध्यम से किया जाता है, बल्कि व्यक्तिगत राज्यों या गैर सरकारी स्रोतों के माध्यम से भी किया जाता है। परियोजना गतिविधियों में निर्णय कर्ताओं को जैवसुरक्षा में प्रशिक्षित करने से लेकर संस्थाएं स्थापित करने और कानूनों के ठोस विस्तार, और क्षेत्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करने जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। 

जैवप्रौद्योगिकी के विकास और प्रबंधन के लिए क्षमता निर्माणः इस लेख ने आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों के कुछ संभावित खतरों और लाभों, टीकों और नैदानिक परीक्षणों और जींस के उपचार में डीएनए के उपयोग पर रोशनी डाली है। विकासशील देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से जैवप्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के लिए अधोसंरचना निर्मित करने, और जैवप्रौद्योगिकी के सफल अनुप्रयोग के लिए आवश्यक जानकारी को अपनाने और उसे विकसित करने की क्षमता वाले संस्थानों के विकास की आवश्यकता है। इसमें अपने स्वयं के पारिस्थितिकी तंत्र को समझने की क्षमता निर्माण करना और ऐसी जैवप्रौद्योगिकीयों का चयन, अधिग्रहण, प्रबंधन और आगे विकास करना शामिल है जो राष्ट्रीय आवश्यकताओं की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त हैं। स्पष्ट रूप से, ऐसे प्रयासों के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा और अनुसंधान में निवेश करना आवश्यक है। 

जैवसुरक्षा और जैवनैतिकताः जैवसुरक्षा का संबंध जैवप्रौद्योगिकी के मनुष्य, पशुओं और वनस्पतियों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर होने वाले संभावित प्रतिकूल प्रभावों से है। जैवप्रौद्योगिकी सामाजिक-आर्थिक और नैतिक चिंताओं को भी जन्म देती है। भौतिक खतरे और अनिश्चितता तकनीकी मुद्दे हैं, और इन खतरों के प्रबंधन के लिए आवश्यक नीतियां और नियामक शासन व्यापक रूप से वैज्ञानिक क्षमताओं, जिनमें मानवी विशेषज्ञता भी शामिल है, और सुसज्जित प्रयोगशालाओं पर निर्भर होंगी। वर्तमान में यह क्षमता अनेक विकासशील देशों में उपलध नहीं है। यहां उल्लेख की गई जैवप्रौद्योगिकीयों में काफी हद तक वैज्ञानिक अनिश्चितता की विशेषता होती है। जैवसुरक्षा पर कार्टागेना प्रोटोकॉल, जो आनुवांशिक अभियांत्रिकी के उत्पादों से निपटने के लिए विशेष रूप से किया गया पहला अंतर्राष्ट्रीय समझौता है, आनुवांशिक रूप से संशोधित जीवों के जोखिम मूल्यांकन के निवारक सिद्धांत के अनुप्रयोग पर आधारित है। इस सिद्धांत का मानना है कि जोखिम के विषय में किसी वैज्ञानिक सबूत के अभाव या उसकी अनुपस्थिति को किसी भी दिए गए जीव की सुरक्षा की निर्णायक साक्ष्य नहीं माना जाना चाहिए, और इसके लिए जोखिम/लाभ विश्लेषण करना आवश्यक है। यह ऐसे विकासशील देशों को कुछ हद तक आश्वासन प्रदान करता है जो अभी तक विस्तृत जोखिम मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं हैं।

जैवप्रौद्योगिकी के विषय में जागरूकता निर्माण करनाः हमें नीति बहस को पुष्ट करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जैवप्रौद्योगिकी केवल सामाजिक-आर्थिक निर्वात में ही प्रौद्योगिकीय समस्याओं को संबोधित नहीं करती बल्कि यह सार्वभौमिक दृष्टि से और लोकतांत्रिक रूप से भूख और बीमारी पर समाधान भी प्रदान करती है। अधिक संपत्ति पैदा करना ही पर्याप्त नहीं है य हमें इस बात की अधिक क्षमता का निर्माण करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग इसके लाभों को साझा कर सकें। ऊपर उल्लेख किये गए जैवप्रौद्योगिकी के कुछ अनुप्रयोगों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण और नीतिपरक और नैतिक सलामती पर गंभीर संभावित निहितार्थ हैं। यदि जैवप्रौद्योगिकी का उपयोग किसी देश की जनसंख्या को लाभ प्रदान करने के लिए किया जाना है तो राजनीतिक समर्थन, के साथ ही सार्वजनिक जागरूकता और नई प्रौद्योगिकियों की स्वीकार्यता अनिवार्य है। संभावित अनुप्रयोगों की व्यापक श्रृंखला है और प्रौद्योगिकियों के चयन के संबंध में निर्णय राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार ही लिए जाने चाहियें। जैवप्रौद्योगिकी के संबंध में सार्वजनिक जागरूकता का निर्माण करना और योग्य और संतुलित जानकारी का प्रसार करना अधिकांश देशों में महत्वपूर्ण मुद्दा है। 

एक भिन्न दृष्टिकोण की आवश्यकताः जैवप्रौद्योगिकी कृषि को नए आयामों पर ले जा रही है। इसका उपयोग एक ऐसा कदम है जिसे शायद उल्टा नहीं किया जा सकता।  आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलें और पारंपरिक फसलें एक ही समय में एकसाथ सहअस्तित्व में रह सकती हैं या नहीं यह एक विवादित प्रश्न है। साथ ही आगे जैवप्रौद्योगिकी व्यापक स्तर पर औद्योगिक उत्पादन व्यवस्थाओं को प्रेरित कर सकती है। अंत में, आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों के उपयोग में नियंत्रण और सुरक्षा विशेष रूप से विकासशील देशों में विशाल चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं। विकास सहयोग के समक्ष यह प्रश्न है कि बढ़ती जनसंख्या और सीमित प्राकृतिक संसाधनों के परिदृश्य में भविष्य की खाद्य सुरक्षा किस प्रकार प्राप्त की जाए।

GEAC के बारे में

  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF एवं CC) में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) कार्य करती है। नियमावली 1989 के अनुसार, यह पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादन में बड़े पैमाने पर खतरनाक सूक्ष्मजीवों एवं पुर्नसंयोजकों के बड़े पैमाने पर उपयोग वाली गतिविधियों के मूल्यांकन के लिए जिम्मेदार है।
  • यह समिति प्रायोगिक क्षेत्र परीक्षणों सहित आनुवांशिक रूप से इंजीनियर (जीई) जीवों एवं उत्पादों के प्रकाशन से संबंधित प्रस्तावों के मूल्यांकन के लिए भी जिम्मेदार है।
  • GEAC की अध्यक्षता MoEF एवं CC के विशेष सचिव/अतिरिक्त सचिव द्वारा की जाती है एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) के एक प्रतिनिधि द्वारा सह-अध्यक्षता की जाती है। वर्तमान में, इसके 24 सदस्य हैं एवं ऊपर बताए गए क्षेत्रों में अनुप्रयोगों की समीक्षा करने के लिए हर महीने मिलते हैं।
  • 1989 में निर्धारित नियमानुसार GEAC के कार्य हैं -
    • पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादन में खतरनाक सूक्ष्मजीवों एवं पुर्नसंयोजकों के बड़े पैमाने पर उपयोग से संबंधित गतिविधियों का मूल्यांकन करना।
    • प्रायोगिक क्षेत्र परीक्षणों सहित पर्यावरण में आनुवंशिक रूप से इंजीनियर जीवों एवं उत्पादों को जारी करने से संबंधित प्रस्तावों का मूल्यांकन करना।
    • समिति या इसके द्वारा अधि.त कोई भी व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत दंडात्मक कार्रवाई करने की शक्तियां रखता है।
  • GEAC  की संरचना नियम 1989 में निर्धारित की गई है -
    • अध्यक्ष - विशेष सचिव/अपर सचिव, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF & CC)। सह-अध्यक्ष - जैव प्रौद्योगिकी विभाग के प्रतिनिधि
    • सदस्य - संबंधित एजेंसियों एवं विभागों के प्रतिनिधि, अर्थात, औद्योगिक विकास मंत्रालय, जैव प्रौद्योगिकी विभाग एवं परमाणु ऊर्जा विभाग
    • विशेषज्ञ सदस्य - भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के महानिदेशक, स्वास्थ्य सेवा के महानिदेशक, पादप सुरक्षा सलाहकार, पादप संरक्षण निदेशालय, संगरोध एवं भंडारण , अध्यक्ष, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं व्यक्तिगत क्षमता में तीन बाहरी विशेषज्ञ।
    • सदस्य सचिव - पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF एवं CC) के एक अधिकारी
  • स्वीकृत जीएम फसलों का जैव सुरक्षा डेटा - प्रायोगिक पशुओं में तुलनात्मक विषाक्तता, एलर्जी एवं खिलाने वाले अध्ययन सहित जैव सुरक्षा डेटा कंपनियों द्वारा खतरनाक माइक्रो जीवों के निर्माण, उपयोग, आयात, निर्यात एवं भंडारण के लिए GEAC से अनुमोदन प्राप्त करने से पहले उत्पन्न होता है। आनुवंशिक रूप से इंजीनियर जीव या कोशिकाएं, 1989 एवं ट्रांसजेनिक पौधों में अनुसंधान के लिए संशोधित दिशानिर्देश एवं विषाक्तता एवं एलर्जी के लिए दिशानिर्देश ट्रांसजेनिक बीज, पौधों एवं पौधों के हिस्सों का मूल्यांकन - 1998. अब तक पाँच जीन/बीटी कपास एवं एक बीएन बीटी कपास किस्म की घटनाएँ। एनएचएच बीटी कपास संकर को जीईएसी द्वारा अनुमोदित किया गया है।

मेक इन इंडिया - जैव प्रौद्योगिकी

सारांश

  • एशिया-प्रशांत क्षेत्र का तीसरा सबसे बड़ा जैव प्रौद्योगिकी उद्योग 
  • दूसरी सबसे बड़ी संख्या में यूएसएफडीए अनुमोदित संयंत्र 
  • वर्ष 2012-17 के दौरान जैव प्रौद्योगिकी पर 3.5 अरब डॉलर खर्च किये जायेंगे 
  • हेपेटाइटिस बी टीके के पुनः संयोजक का प्रथम क्रमांक का उत्पादक 
  • वर्ष 2025 तक 100 अरब डॉलर का उद्योग बन जायेगा 

अभिकरण 

  • भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का जैव प्रौद्योगिकी विभाग 
  • भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग 
  • जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद 
  • वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद 
  • जैव प्रौद्योगिकी आधारित उपक्रम संघ 
  • भारतीय उद्योग परिसंघ 
  • भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ

विदेशी निवेशक 

  • बिल एवं मेलिंडा गेट्स प्रतिष्ठान
  • वेलकम न्यास
  • बीपीआई फ्रांस, 
  • यूएसएआईडी
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन
  • ग्रैंड चौलेंजेस कनाडा, टेकस, फिनलैंड
  • लिमग्रैन (फ्रांस) 
  • एंडो फार्मास्युटिकल्स (अमेरिका)
  • मायलन इंक. (अमेरिका)
  • एवेंटिस (फ्रांस)
  • एबॉट लैबोरेट्रीज (अमेरिका)
  • फ्रेसेनियस (सिंगापूर)
  • हॉस्पीरा (अमेरिका)

निवेश करने के कारण 

  • भारत विश्व के 12 जैव प्रौद्योगिकी गंतव्यों में से एक है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह तीसरे स्थान पर है 
  • भारत में, अमेरिका के बाद दूसरी सर्वाधिक संख्या में यूएसएफडीए अनुमोदित संयंत्र हैं 
  • भारत ने वर्ष 2005 में उत्पाद पेटेंट शासन को अंगीकृत कर लिया था 
  • बढ़ता सरकारी व्यय इस क्षेत्र की वृद्धि को बढ़ाएगा - वर्ष 2012-17 के दौरान सरकार का जैव प्रौद्योगिकी पर 3.7 अरब डॉलर व्यय करने का लक्ष्य है 
  • भारत हेपेटाइटिस बी टीके के पुनः संयोजक का सबसे बडा उत्पादक है 
  • भारत के पास पराजीनी चावल और विभिन्न आनुवंशिक रूप से संशोधित सब्जियों का प्रमुख उत्पादक बनने की क्षमता है 
  • उच्च कौशल युक्त और प्रशिक्षित प्रतिभा का आधिक्य 
  • उद्योग की निधियन, परामर्शक, सहायक और अधोसंरचना सहायता के माध्यम से सहायता लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बीआईआरएसी) जैसा विशेष प्रयोजन संगठन

निवेश के अवसर 

  • उत्पाद विकास, अनुसंधान और नवप्रवर्तन को सुविधाजनक बनाने और जैव प्रौद्योगिकी औद्योगिक केंद्रों के विकास के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने देश के विभिन्न भागों में जैव प्रौद्योगिकी उद्यानों की स्थापना की है। 
  • परिचालनात्मक जैव प्रौद्योगिकी उद्यान उत्तरप्रदेश में लखनऊ, कर्नाटक में बैंगलोर, केरल में कलामासेरी और कोच्ची, असम में गुवाहाटी मध्यप्रदेश में छिंदवाडा में स्थित हैं 
  • ये उद्यान निवेशकों को इन्क्यूबेटर सुविधाएं, विलायक निष्कर्षण के लिए प्रायोगिक संयंत्र सुविधाएं और प्रयोगशालाएं और कार्यालय स्थान उपलब्ध कराते हैं। 
  • परिमाण की दृष्टि से भारत कुल वैश्विक प्रजातिगत बाजार के लगभग 8 प्रतिशत का निर्माण करता है जो इस क्षेत्र के विशाल अनछुए अवसरों को इंगित करता है। 
  • संरूपणों की खोज और विनिर्माण के बाद भारत को किया जाने वाला आउटसोर्सिंग और अधिक बढ़ने की संभावना है 
  • आनुवंशिक बीजों के साथ ही संकर बीज, उत्पादन में सुधार के आधार पर भारत में नए व्यवसाय अवसरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
  • बीआईआरएसी ने ऐस कोष नामक एक इक्विटी आधारित कोष की शुरुआत की है। यह एक ऐसा इक्विटी कोष है जो प्रतिभाशाली उपक्रमों के लिए 1.5 लाख डॉलर तक की निधीयन सहायता के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उद्यमियों की वृद्धि को बढ़ाने के कार्य को संबोधित करेगा।

सांख्यिकी 

  • भारत का जैव प्रौद्योगिकी उद्योग औसतन 30 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि करके वर्ष 2025 तक 100 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। 
  • वर्ष 2003 के 53 करोड़ डॉलर की तुलना में वर्ष 2013 के अंत तक भारतीय जैव अर्थव्यवस्था 4.3 अरब डॉलर तक बढ़ी 
  • वर्ष 2012-13 में भारतीय जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में 15.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिसके कारण बाजार के राजस्व में 2011-12 के 3.31 अरब डॉलर से वर्ष 2012-13 में 3.81 अरब डॉलर तक की वृद्धि हुई। 
  • स्वास्थ्य सुविधा सेवाओं में बढ़ती मांग, सघन अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों और सशक्त सरकारी पहलों जैसे विविध कारकों के कारण ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2017 तक इस क्षेत्र के बाजार का आकार बढ़कर 11.6 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। 
  • भारतीय जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र पांच प्रमुख हिस्सों में विभाजित है - जैव औषधि, जैव सेवाएं, जैव कृषि, जैव औद्योगिक और जैव सूचना विज्ञान। 
  • जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में सबसे बड़ा हिस्सा जैव औषधि क्षेत्र का है। वर्ष 2013 में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग के कुल राजस्व में जैव औषधि क्षेत्र का योगदान 64 प्रतिशत था, जिसके बाद जैव सेवाओं का (18 प्रतिशत), जैव कृषि (14 प्रतिशत), जैव औद्योगिक (3 प्रतिशत) और जैव सूचना विज्ञान (1) का योगदान था। 
  • वर्ष 2013 में जैव औषधि निर्यात से प्राप्त राजस्व 2.2 अरब डॉलर तक पहुँच गया था, जो जैव उद्योग के कुल राजस्व का 51 प्रतिशत था। 
  • इस उद्योग ने भारत सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई बीआईआरएसी के माध्यम से 270 कंपनियों, 140 वैज्ञानिकों और उद्यामियों के साथ 360 परियोजनाओं और 113 इनक्यूबेटर के साथ 22.5 करोड़ डॉलर की सहायता की। 
  • 24 बौद्धिक संपदा क्षेत्र 
  • 124,000 वर्ग फुट ऊष्मायन क्षेत्र का निर्माण किया गया 
  • 1 क्षेत्रीय नवप्रवर्तन क्षेत्र 
  • 3 जैव-औद्योगिक सुविधाएं

वृद्धि के उत्प्रेरक 

  • 20 प्रतिशत से अधिक की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के साथ इस क्षेत्र ने उच्च वृद्धि को देखा है और जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र की वृद्धि के प्रमुख उत्प्रेरक हैं बढ़ता हुआ निवेश, आउटसोर्सिंग गतिविधियाँ, निर्यात और इस क्षेत्र पर सरकार का विशेष ध्यान। 
  • वैज्ञानिकों और अभियंताओं का एक मजबूत समूह 
  • लागत-प्रभावी विनिर्माण क्षमताएं 
  • राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं, जैव विज्ञान के क्षेत्रों में शैक्षणिक श्रेष्ठता केंद्रों, अनेक चिकित्सा महाविद्यालयों, जैव प्रौद्योगिकी, जैव सूचना विज्ञान और जैविक विज्ञान जैसे क्षेत्रों में पदवी प्रदान करने वाले शैक्षणिक और प्रशिक्षण संस्थानों का गठन। 
  • मितव्ययिता की ओर दृष्टि रखने वाली वैश्विक कंपनियों के लिए अल्प लागत अर्थव्यवस्थाओं को आउटसोर्सिंग का परिणाम 50 प्रतिशत से भी अधिक लागत अंतरपणन में होता है। 
  • तेजी से बढ़ती नैदानिक क्षमताओं के कारण देश नैदानिक परीक्षणों, अनुबंध अनुसंधान और विनिर्माण गतिविधियों का लोकप्रिय गंतव्य बनता जा रहा है। 
  • निधियन, परामर्श, सहायता और अधोसंरचनात्मक सहायता के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी स्टार्टअप्स और लघु एवं नध्यम् उद्यमों की सहायता के लिए उद्योग उन्मुख संगठन बीआईआरएसी की स्थापना। 
  • आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य उपक्रमों और प्रौद्योगिकियों में संभावित वाणिज्यिक और सामाजिक प्रभाव के साथ युवा शैक्षणिक खोजों के परिवर्तन को उत्प्रेरित करने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए बीआईआरएसी द्वारा प्रारंभिक अनुवाद गतिवर्धक (ईटीए) का गठन। 

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति 

  • औषधियों के लिए ग्रीनफील्ड के लिए स्वतः अनुमोदित मार्ग से और ब्राउनफील्ड के लिए शासकीय मार्ग से 100 प्रतिशत तक के विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति प्रदान की गई है

क्षेत्र नीति

मूल कोशिका (स्टेम सेल) अनुसंधान 2013 के लिए राष्ट्रीय दिशानिर्देश 

  • ये दिशानिर्देश यह सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित किये गए हैं कि मानव मूल कोशिका के साथ किया जाने वाला अनुसंधान जिम्मेदारीपूर्वक और नैतिक ढंग से किया जाए और यह सामान्य दृष्टि से जैव चिकित्सकीय अनुसंधान और विशेष रूप से मूल कोशिका अनुसंधान से संबंधित सभी नियामक अनिवार्यताओं की पूर्ति करता हो। 
  • ये दिशानिर्देश सभी हितधारकों पर लागू होते हैं, जिनमें व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ता, संगठन, प्रायोजक, निगरानी/नियामक समितियां और अन्य सभी शामिल हैं जो मानव मूल कोशिकाओं और उनके व्युत्पन्नों के मूलभूत और नैदानिक अनुसंधान से संबंधित हैं। 

भारत में विपणन अनुज्ञप्ति के लिए समरूप जैविक नियामक आवश्यकताओं पर दिशानिर्देश 2012 

  • केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) और जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा समरूप जैविक पर तैयार किये गए दिशानिर्देश ऐसे जैविकों के लिए नियामक मार्गदर्शक निर्धारित करते हैं जो पहले से ही अधि.त संदर्भ जैविक के समरूप होने का दावा करते हैं। 
  • ये दिशानिर्देश समरूप जैविकों के लिए विनिर्माण प्रक्रिया और गुणवत्ता पहलुओं से संबंधित नियामक मार्गदर्शकों को संबोधित करते हैं। 
  • साथ ही ये दिशानिर्देश बाजार-पूर्व नियामक आवश्यकताओं को भी संबोधित करते हैं जिनमें समरूप जैविकों की गुणवत्ता के लिए तुलनात्मक अभ्यास, निदान पूर्व और नैदानिक अध्ययन और बाजार पश्चात नियामक आवश्यकताएँ भी शामिल हैं।

स्टार्टअप संस्कृति को प्रोत्साहित करना - बीआईआरएसी की पहलें 

बडे़ टेक ऑफ के लिए आधार स्थानः जैव ऊष्मायन  

  • बीआईआरएसी के पास दो 15 ऊष्मायन हैं (छह जैव प्रौद्योगिकी उद्यानों में, तीन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में, चार शैक्षणिक संस्थानों में, दो जैव केंद्रों में) जो अत्याधुनिक उपकरण, परामर्श संजाल और सहायता की सुविधा प्रदान करते हैं। 
  • 124,000 वर्ग फुट ऊष्मायन स्थान का निर्माण किया गया है। 
  • 199 स्टार्टअप/उद्यमियों को ऊष्मायन की सहायता प्रदान करना। 
  • इस कार्यक्रम के लिए 100 करोड़ रुपये मंजूर किये गए हैं। 

विश्वविद्यालयों में नवप्रवर्तन के बीज अंकुरित करना (यूआईसी (विश्वविद्यालय नवप्रवर्तन केंद्र)

  • यूआईसी विश्वविद्यालय व्यवस्था के भीतर ही एक नवप्रवर्तन केंद्र है जो विश्वविद्यालय के अंदर और उसके बाहर, दोनों स्थानों पर विभिन्न हितधारकों को जोडता है। 
  • ऊष्मायन विद्यार्थियों के लिए विचारों ध् खोजों के परीक्षण के लिए और उन्हें अवधारणा के प्रमाण तक ले जाने के लिए जयपुर, चंडीगढ़, धारवाड, कोयंबटूर और चेन्नई में पांच यूआईसी स्थापित किये गए हैं। 
  • प्रत्येक यूआईसी में 2500 से 3000 वर्ग फुट का ऊष्मायन स्थान उपलब्ध है। 
  • नवप्रवर्तन अनुदान के साथ ही दो डॉक्टरेट पश्चात और चार विज्ञान स्नातकोत्तर अध्येताओं (फेलो) के लिए बीआईआरएसी नवप्रवर्तन अध्येतावृत्तियां (फैलोशिप) 
  • प्रशिक्षण, परामर्श, प्रायोजित अनुसंधान और नेटवर्किंग अवसरों और आईपी और प्रौद्योगिकी प्रबंधन के लिए उद्योग भागीदारी।

नवप्रवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र का मानचित्रीकरण और विश्लेषण रू आईकेपी ज्ञान उद्यान में बीआईआरएसी क्षेत्रीय नवप्रवर्तन केंद्र (ब्रिक)

  • ब्रिक संपूर्ण दक्षिण भारत में शैक्षणिक और उद्योग का मानचित्रीकरण करता है 
  • आईपी और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए स्टार्टअप्स को सहायता 
  • स्टॉप्स, उद्योग और शिक्षाविदों के लिए नेटवर्किंग के अवसर 

आरंभिक स्तर के नवप्रवर्तन पौधों को सींचना रू बीआईआरएसी -सृष्टि गाँधीवादी युवा प्रौद्योगिकी नवप्रवर्तन पुरस्कार 

  • संस्थागत स्तर पर उत्तेजित होने वाले और लघु बीज कोष साबित होने वाले जैव उद्यमशीलता विचारों की पहचान करने के लिए आईआईएम अहमदाबाद में सृष्टि के साथ भागीदारी। 
  • देश भर के 100 उदीयमान विचारों को सूक्ष्म निधि के साथ सहायता 

नवप्रवर्तन निधियन के माध्यम से औद्योगिक अनुसंधान एवं विकास को मजबूत बनाना 

  • स्टार्टअप्स और लघु एवं मध्यम उद्यमों को निधियन सहायता के अगले स्तर तक ले जाना रूलघु व्यवसाय नवप्रवर्तन अनुसंधान पहल (एसबीआईआरआई) वर्ष 2007 में आकार लेने वाली भारत की पहली जैव प्रौद्योगिकी केंद्रित सार्वजनिक निजी भागीदारी निधियन योजना है। उद्योगों द्वारा उच्च जोखिम अनुसंधान के लिए आरंभिक चरण का निधियन। सीमांत जैव प्रौद्योगिकी के विविध क्षेत्रों में कार्यरत 155 कंपनियों को सहायता प्रदान की गई। 
  • उद्योग भागीदारी के माध्यम से उच्च जोखिम नवप्रवर्तनों को उछालनाः जैव प्रौद्योगिकी उद्योग भागीदारी कार्यक्रम (बीआईपीपी)लागत साझा करने के आधार पर सहायता के लिए उद्योगों के साथ सरकार की भागीदारी। उच्च जोखिम, अत्यधिक अभिनव द्रुत गति प्रौद्योगिकी विकास के लिए सहायता। ऐसी 106 कंपनियों को सहायता प्रदान की गई है जो 124 परियोजनाओं के माध्यम से अत्याधुनिक अनुसंधान एवं विकास के माध्यम से उच्च गुणवत्तापूर्ण उत्पाद लाने का प्रयास कर रही हैं।





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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारत में प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण मुद्दे - व्याख्यान - 16
यूपीएससी तैयारी - भारत में प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण मुद्दे - व्याख्यान - 16
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