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कंप्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति
1.0 प्रस्तावना
संगणक निःसंदेह मनुष्य के सबसे महानतम आविष्कारों में से एक है। 1948 में इनके आविष्कार के बाद से इलेक्ट्रॉनिक संगणकों ने दुनिया के काम करने के स्वरुप को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है। आज संगणकों के बिना मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हालांकि प्रारंभ में इनकी रचना द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रक्षा प्रयोजनों के लिए की गई थी, फिर भी ‘‘संगणक’’ नामक मशीन हमारे दैनंदिन जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गई है, और इसके उपयोग अनेकों हैं। वर्तमान समय के संगणक का उपयोग काम करने के लिए, खेल खेलने के लिए, मनोरंजन के लिए, खरीदारी के लिए, पढ़ने के लिए, बात करने के लिए, किसी के साथ समय देने के लिए और सामान्यतः वे सभी कार्य करने के लिए किया जाता है जिसकी मनुष्य कल्पना कर सकता है। संगणकों ने अनेक क्षेत्रों में मनुष्य को प्रतिस्थापित कर दिया है, और उन कार्यों की सूची बनाना आसान है जिनमें वह आज तक मनुष्य को प्रतिस्थापित करने में असफल रहे हैं। यह संतोष का विषय है कि संगणकों ने आज तक मनुष्य को उन क्षेत्रों में प्रतिस्थापित नहीं किया है जिनमें भावनाओं, रूचि, अनुभव, निर्णय क्षमता और रचनात्मकता की आवश्यकता है। हालांकि ऐसे प्रयास जारी हैं कि संगणकों को इन विशेषताओं के साथ भी जोड़ा जा सके!
महत्वपूर्ण घटनाक्रम के साथ एक संक्षिप्त क्रमविकास
सन 1617 ईस्वी में, एक स्कॉटिश जॉन नेपियर ने ‘‘नेपिएर्स बोन्स’’ नामक लघुगणक तालिका का विकास किया, जो छड़ों की एक पट्टी थी जिसपर अंक मुद्रित थे। एक विशिष्ट प्रकार से चौखट को हिलाने से व्यक्ति गुणाकर करके अंकों के गुणक प्राप्त कर सकता था।
1621 में अंग्रेज विलियम ऑउटरेड ने स्लाइड नियम का आविष्कार किया, जो पहला सादृश्य संगणक था। परंतु यह उपकरण गुणा और भाग के कार्य पुनरावृत्तीय जोड़ और बाकी के माध्यम से निष्पादित करता था।
1821 में चार्ल्स बैबेज ने ‘‘डिफरेंस एंजिन’’ नामक मशीन की रचना की जो अंतर पद्धति के उपयोग से त्रिकोणमितीय और लघुगणक की गणना खगोलीय प्रयोजनों के लिए कर सकती थी, जिसके लिए उन्हें खगोलीय संस्था का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। बाद में उन्हें ‘‘संगणकों का जनक’’ कहा गया। प्रथम सॉफ्टवेयर अभियंता प्रोग्रामर लेडी औगुस्था ऐडा को संगणकों की जननी कहा जाता है। बाद में बैबेज ने ’’एनेलामिक एंजिन’’ नामक एक अधिक उन्नत प्रकार की मशीन की रचना की जो कार्यों के परिवर्तनीय अनुक्रम का निष्पादन करने में सक्षम थी, परंतु यह उस समय की विद्यमान प्रौद्योगिकी के साथ क्रियान्वयन और विनिर्माण की दृष्टि से यह बहुत अधिक उन्नत थी।
1884 में एक बैंक लिपिक विलियम एस. बरो ने एक कुंजी समुच्चय अनुकलक मुद्रण मशीन विकसित की जो यांत्रिक थी, परंतु यह मशीन दर्ज कर सकती थी संक्षेपण कर सकती थी और गणना कर सकती थी।
1909 में चार्ल्स कैटरिंग ने वाणिज्यिक उपयोग की दृष्टि से पहला विद्युत यांत्रिक संगणक विकसित किया (अर्थात लेखांकन मशीन) 1920 तक इस मशीन का उपयोग वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए किया जाता था।
2.0 संगणकों की पांच पीढ़ियां
संगणकों के विकास को स्पष्ट रूप से पांच परिभाषित किये जाने योग्य पीढ़ियों पर मानदंडित किया जा सकता है। प्रत्येक पीढ़ी को काफी अधिक प्रौद्योगिकीय विकास से परिभाषित किया जा सकता है जो संगणकों की मूलभूत कार्यप्रणाली को परिवर्तित करता है, जिसका परिणाम अधिक सुगठित, कम खर्चीली परंतु अधिक शक्तिशाली, कुशल मजबूत मशीनों में हुआ।
1940 - 1956ः पहली पीढ़ी - निर्वात नली (वैक्यूम ट्यूब)
इन प्रारंभिक संगणकों में विद्युत परिपथ तंत्र के रूप में निर्वात नलिकाओं और स्मरणशक्ति के लिए चुंबकीय पीपों का उपयोग किया जाता था। इसके परिणामस्वरूप वे अत्यंत विशाल होते थे जो संपूर्ण कमरे को घेरते थे और इन्हें चलाने के लिए विपुल धन की आवश्यकता होती थी। ये अकुशल सामग्रियां थीं जो अत्यधिक ऊष्मा उत्सर्जित करती थीं और अत्यधिक बिजली अवशोषित करती थीं, और बाद में अत्यधिक ऊष्मा निर्मित करती थीं जिसके कारण इनमें निरंतर रुकावटें आती थीं।
पहली पीढ़ी के संगणक ‘‘मशीनी भाषा’’ पर निर्भर होते थे (यह संगणकों द्वारा समझी जा सकने वाली सर्वाधिक मूलभूत प्रोग्राम करने की भाषा थी)। इन संगणकों की क्षमता एक समय में एक समस्या का समाधान निकालने तक सीमित थी। निविष्टियां छिद्रित कार्ड़ और कागज की टेप पर आधारित हुआ करती थीं। उत्पाद मुद्रित अभिलेख के रूप में बाहर आते थे। इस युग की दो उल्लेखनीय मशीनें थीं यूनीवैक और इनिएक मशीनें - यूनीवैक सबसे पहला वाणिज्यिक संगणक है जिसे एक व्यापार - अमेरिकी जनगणना ब्यूरो - द्वारा 1951 में क्रय किया गया था।
1956 - 1963ः दूसरी पीढ़ी - ट्रांसिस्टर्स (Integrated Circuits)
ट्रांसिस्टर्स द्वारा निर्वात नलिकाओं के प्रतिस्थापन के साथ ही संगणकों की दूसरी पीढ़ी का उद्गम हुआ। हालांकि ट्रांसिस्टर्स का पहली बार आविष्कार 1947 में ही हो चुका था, फिर भी 1950 के दशक के अंत तक संगणकों में इनका उपयोग बडे़ पैमाने पर नहीं किया जाता था। संगणकों को क्षति होने योग्य ऊष्मा के अधीन रखने के बावजूद वे निर्वात नलिकाओं पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण सुधार के रूप में थे। हालांकि वे निर्वात नलिकाओं की तुलना में काफी श्रेष्ठ थे, जिनके कारण संगणक अधिक तेज, सस्ते और विद्युत उपयोग की दृष्टि से कम भारी हो गए। अभी भी निविष्टियों के लिए वे छिद्रित कार्ड और मुद्रित अभिलेखों पर ही निर्भर थे।
भाषा अप्रकट द्विवर्ण भाषा से प्रतीकात्मक (‘‘कोडांतरण‘‘) भाषाओं में विकसित हुई। इसका अर्थ यह था कि प्रोग्रामर शब्दों में निर्देश निर्मित कर सकते थे। इसी समय के आसपास उच्च स्तरीय प्रोग्रामिंग भाषाएं विकसित की जा रही थीं (कोबोल और फोरट्रॉन के प्रारंभिक संस्करण)। ट्रांजिस्टर चलित मशीनें ऐसे पहले संगणक थे जो निर्देशों को अपनी स्मरणशक्ति में संग्रहित करते थे - चुंबकीय पीपों से चुंबकीय मर्म ‘‘प्रौद्योगिकी’’ में परिवर्तित होते हुए। इन मशीनों के प्रारंभिक संस्करण परमाणु ऊर्जा उद्योग के लिए विकसित किये गए थे।
1964 - 1971ः तीसरी पीढ़ी - एकीकृत परिपथ
इस चरण तक अब ट्रांसिस्टर्स का लघुकरण किया जा रहा था, और इन्हें सिलिकॉन खपचियों (चिप्स) पर रखा जा रहा था (जिन्हें अर्धचालक कहा जाता था)। इसके कारण इन मशीनों की गति और कार्यक्षमता मेंअत्यधिक वृद्धि हुई। ये पहले ऐसे संगणक थे जहां उपयोगकर्ता कुंजी पटल और मॉनिटर का उपयोग करते हुए बातचीत करते थे, जो एक प्रचालन तंत्र के साथ जुडे़ होते थे, इस दृष्टि से यह पूर्व के छिद्रित कार्ड और मुद्रित अभिलेखों पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण अग्रेषण था। इसके कारण इन मशीनों को एक केंद्रीय प्रोग्राम का उपयोग करते हुए एकसाथ अनेक अनुप्रयोग करने की क्षमता प्राप्त हुई, जो स्मरणशक्ति की निगरानी करने का कार्य करता था।
इन उन्नयनों के परिणामस्वरूप, जिन्होंने एक बार फिर से इन मशीनों को सस्ती और छोटी बना दिया, 1960 के दशक के दौरान उपयोगकर्ताओं का एक नया व्यापक बाजार उभरा।
1972 - 2010ः चौथी पीढ़ी - माइक्रोप्रोसेसर
इस क्रांति को एक शब्द में अभिव्यक्त किया जा सकता हैः इंटेल, इस चिप निर्माता ने इंटेल 4004 चिप का विकास 1971 में किया, जिसनें संगणक के सभी घटकों (केंद्रीय प्रक्रमन एकक (सीपीयू), स्मरणशक्ति, निविष्टि/उत्पाद नियंत्रण) को एक अकेली चिप पर ला दिया। 1940 के दशक के दौरान जो एक कमरे की जगह घेरता था वह अब एक मुट्ठी में समा सकता है। इंटेल चिप में हजारों एकीकृत परिपथ होते हैं। वर्ष 1981 ने पहला ऐसा संगणक देखा (आईबीएम) जो विशेष रूप से घरेलू उपयोग के लिए रचित था, और वर्ष 1984 ने एप्पल द्वारा शुरू किया गया मैकिनटोश देखा। माइक्रोप्रोसेसर संगणकों की परिधि से पार जाकर बडे़ पैमाने पर अन्य दैनिक उत्पादों में भी उपयोग किये जाने लगे।
इन संगणकों की बढ़ी हुई शक्ति का अर्थ था कि उन्हें आपस में जोड़ा भी जा सकता था और इस प्रकार एक संजाल (नेटवर्क) बनाया जा सकता था। जिसने अंततः इंटरनेट के विकास, जन्म और तेजी से विकास का रूप लिया। इस दौर की अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं थीं ग्राफी प्रयोक्ता अंतराफलक (जीयूआई), माउस और अभी हाल के आश्चर्यजनक रूप से प्रभावशाली लैपटॉप क्षमता और हस्त उपकरण।
2010 से आगेः पांचवी पीढ़ी - कृत्रिम आसूचना (Artificial Intelligence)
कृत्रिम आसूचना के साथ संगणक उपकरण अभी भी विकास की अवस्था में हैं, परंतु कुछ प्रौद्योगिकियां उभरना शुरू हुई हैं और स्वर पहचान जैसे उपकरणों के रूप में उपयोग में लाई जा रही हैं। कृत्रिम आसूचना सामानांतर प्रक्रमण और अतिचालक के उपयोग से संभव हुई एक वास्तविकता है। भविष्य की ओर झुकते हुए संगणकों में फिर से परिमाण संगणना, सूक्ष्मतम और नैनो प्रौद्योगिकी के माध्यम से मूलभूत परिवर्तन होगा। पांचवी पीढ़ी का सार होगा इन प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना और अंततः ऐसी मशीनों का निर्माण करना जो प्राकृतिक भाषाओँ पर प्रक्रिया कर सकें और उनपर प्रतिक्रिया प्रदान कर सकें, और इनमें स्वयं सीखने और स्वयं को संगठित करने की क्षमता होगी।
3.0 भारत में संगणकों का विकास
हालांकि विश्व संगणकों से 1940 के दशक के उत्तरार्ध से ही परिचित हो गया था, भारत ने अपना पहला संगणक 10 लाख रुपये के एक शाही मूल्य पर 1956 में क्रय किया। इसे एचईसी 2एम कहा जाता था और इसकी स्थापना कलकत्ता के भारतीय सांख्यिकीय संस्थान में की गई थी। यह एक अंक चर्वण मशीन से अधिक कुछ नहीं था और आकार में यह अति विशाल था। इस भीमकाय मशीन का आकार लंबाई में 10 फुट, चौड़ाई में ७ फुट और ऊँचाई में 6 फुट था। यह संगणक योजना आयोग की वार्षिक और पंचवार्षिक योजनाओं के निर्माण और भारतीय परमाणु कार्यक्रम अति गोपनीय परियोजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। साथ ही इसने भारत की संगणक पेशेवरों की पहली पीढ़ी के निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह संगणक आज के संगणकों की तुलना में सामान्य समस्याओं के समाधान निकालने में भी कम से कम दस हजार गुना धीमा था। परंतु इसने भारत में संगणकों के विकास की नींव रखी।
एचईसी 2एम ने सांख्यिकीय आंकड़ों के अभिसंस्करण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का सुदृढ़ आधार निर्माण करते हैं। भारत का मौसम की भविष्यवाणी मॉडल भी, जो मौसम विज्ञान संबंधी आंकडों के सांख्यिकी विश्लेषण पर आधारित है, भी इसी के आधार पर विकसित किया गया था। सबसे महत्वपूर्ण दृष्टि से, इसी मशीन का उपयोग अगली पीढ़ी के संगणकों की रचना के लिए किया गया था, जिनमें भारत के पहले स्वदेशी संगणक ‘‘टीआईएफआरएसी‘‘ (या टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान स्वचालित संगणक) का 1962 में किया गया निर्माण भी शामिल था।
उस समय से आज तक भारत संगणकों के क्षेत्र में काफी आगे निकल गया है। आज भारत के लगभग प्रत्येक कार्यालय की मेज पर व्यक्तिगत संगणक (पीसी) है, और सरकार की संगणक नीतियां उनका हार्दिक प्रयास दर्शाती हैं कि वह देश के प्रत्येक गांव में इसे पहुंचाने के प्रति .त संकल्प है। भारत जैसे देश के लिए जो भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत विशाल है, और सांस्.तिक और भाषाई दृष्टि से अत्यंत विविध है, संगणक प्रौद्योगिकी समग्र विकास की दृष्टि से एक अत्यंत उपयोगी साधन साबित हुई है। सरकारी और गैर स्तर पर भारतीय समाज के लाभ के लिए इस प्रौद्योगिकी के उपयोग के सफल प्रयास किये जा रहे हैं।
3.1 भारत का पहला महाशक्तिशाली संगणक (Supercomputer)
महाशक्तिशाली संगणकों का उपयोग उच्च गणना सघन कार्यों के लिए किया जाता है जैसे परिमाण भौतिकशास्त्र, मौसम की भविष्यवाणी, जलवायु अनुसंधान, आण्विक प्रतिरूपण (रासायनिक यौगिक पदार्थों, जीव विज्ञानी बृहदणुओं, बहुलकों और मणिभों की संरचनाओं और गुणों की गणना), भौतिक उत्तेजना (जैसे वात सुरंगों में वायुयानों की उत्तेजना, परमाणु हथियारों के प्रस्फोटनों की उत्तेजना और परमाणु विलयन में अनुसंधान)।
भारत का पहला महाशक्तिशाली संगणक था परम 8000। परम का अर्थ था समानांतर मशीन। इस संगणक का विकास सरकार द्वारा परिचालित प्रगत संगणन विकास केंद्र (सी-डीएसी) द्वारा 1991 में किया गया था। परम 8000 का योग्यता निर्धारण 1 गीगालॉप (प्रति सेकंड़ बिलियन प्लवमान बिंदु संचालन) था। परम के निर्माण में उपयोग की गई सभी चिपें और अन्य घटक खुले घरेलू बाजार से खरीदे गए थे। परम महाशक्तिशाली संगणक के अनुप्रयोग हैं लंबी दूरी की मौसम संबंधी भविष्यवाणी, संवेदन, औषधि रचना और आण्विक प्रतिरूपण।
3.2 भारत के वर्तमान महाशक्तिशाली संगणक
आज भारत निश्चित रूप से पश्चिमी देशों को महाशक्तिशाली संगणकों के क्षेत्र कड़ी टक्कर दे रहा है। भारत को सबसे शक्तिशाली महाशक्तिशाली संगणकों की सूची वाले देशों में विश्व में चौथे क्रमांक पर रखा गया है। इस क्षेत्र में केवल अमेरिका, चीन और जर्मनी ही भारत से आगे हैं।
अभिकलनात्मक जटिलता (कम्प्यूटेशनल) अनुसंधान प्रयोगशाला (सीआरएल) में स्थित महाशक्तिशाली संगणक सुविधा को विश्व का चौथा सबसे तेज एशिया का सबसे तेज महाशक्तिशाली संगणक माना जाता है। एक (अंक एक का संस्कृत नाम) नामक पुणे की सीआरएल सुविधा में निर्मित यह महाशक्तिशाली संगणक उच्च निष्पादन संगणन समाधान निर्माण करने के भारत के प्रयासों में एक मील का पत्थर माना जाता है। महाशक्तिशाली संगणकों के क्षेत्र में (इसका निष्पादन मापदंड न्यूनतम 1.71 टी लॉप है) भारत अपनी 15 ऐसी मशीनों पर गर्व है, जिनमें से पांच प्रणालियां प्रगट संगणन विकास केंद्र (सी डीएसी) से हैं, जो इसके देश के प्रमुख उच्च निष्पादन संगणन केंद्र के दर्जे को साबित करता है।
किसी भी देश के रक्षा, मौसम विज्ञान, सुदूर संवेदन, सांख्यिकीय विश्लेषण जैसे क्षेत्रों के विकास के लिए इस प्रकार की संगणन सुविधाएं होना अनिवार्य है। यह सुविधा विशाल संगणन आवश्यकताओं के लिए एक केंद्रीकृत सुविधा प्रदान करती है। देश की रक्षा के लिए आवश्यक सामरिक विश्लेषण महाशक्तिशाली संगणकों की सहायता के बिना संभव नहीं है। संगणक मौसम वैज्ञानिकों के लिए संगणक अत्यंत उपयोगी हैं क्योंकि वे भविष्य मौसम पद्धतियों का अनुमान लगा सकते हैं। संगणक मौसम केंद्रों, उपग्रहों और मौसम गुब्बारों से सभी सूचनाएं और जानकारियां एकत्रित करते हैं और उन्हें मौसम मानचित्रों में परिवर्तित कर देते हैं। सुदूर संवेदनों से प्राप्त मानचित्र के चित्र विश्लेषण के लिए अति उच्च संगणन क्षमता की आवश्यकता होती है। महाशक्तिशाली संगणक नीति निर्माताओं और सांख्यिकीविदों के लिए भी उपयोगी होते हैं जो अपने अति विशाल आंकड़ों का विश्लेषण अपनी आवश्यकता के अनुरूप करवा सकते हैं।
3.3 ई-शासन और राष्ट्रीय ई-शासन योजना
ई-शासन इलेक्ट्रॉनिक शासन का संक्षिप्त नाम है, जिसे ई-गव, डिजिटल शासन, ऑनलाइन शासन या परिवर्तनवादी शासन भी कहा जाता है। यह सरकार और नागरिकों के बीच एक आरामदायक, पारदर्शी और सस्ता संवाद स्थापित करता है। आज संगणन प्रौद्योगिकी को कुशल शासन में और मानव संसाधन विकास में आर्थिक गतिविधि को उत्प्रेरित करने वाले प्रभावशाली साधन के रूप में मान्यता प्राप्त है। जैसे-जैसे डिजिटल अर्थव्यवस्था के युग का विकास होता जायेगा, वैसे-वैसे सुशासन की अवधारणा का महत्त्व बढ़ता जायेगा। ऐसा अनुमान है कि इस संदर्भ में इलेक्ट्रॉनिक शासन का परिणाम बढ़ी हुई पारदर्शिता, सूचना और जानकारी का तेजी से प्रसार, अधिक उच्च प्रशासनिक कार्यकुशलता और विभिन्न क्षेत्रों में सुधारित सार्वजनिक सेवाओं में होगा, जिनमें परिवहन, शिक्षा, बिजली, स्वास्थ्य, पानी, सुरक्षा और राज्य प्रशासन और नगरपालिका सेवाएं जैसे क्षेत्र शामिल हैं।
भारत सरकार की राष्ट्रीय ई-शासन योजना का प्रयास इसकी नींव रखने का, और देश में ई-शासन के दीर्घकालीन विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करने का है। यह योजना सही शासन और संस्थागत तंत्र निर्माण करने का, केंद्रीय अधोसंरचना और नीतियां स्थापित करने का और केंद्र, राज्य और एकीकृत सेवा स्तर पर बड़ी संख्या में मिशन विधा परियोजनाएं क्रियान्वित करने का प्रयास करती है, ताकि शासन के लिए एक नागरिक केंद्रित और व्यापार केंद्रित वातावरण निर्मित किया जा सके।
राष्ट्रीय ई-शासन योजना के तहत ऑनलाइन सेवाओं में आयकर, पासपोर्ट/वीजा, कंपनी मामले, केंद्रीय उत्पादन शुल्क, पेंशन, भू-अभिलेख, सड़क परिवहन, संपत्ति पंजीकरण, कृषि, नगरपालिकाएं, ग्राम पंचायतें (ग्रामीण), पुलिस, रोजगार कार्यालय, ई-न्यायालय इत्यादि सेवाएं शामिल हैं। यह सभी मिलकर सरकार और नागरिकों के बीच संवाद को अधिक बेहतर बनाएगा, साथ ही यह भ्रष्टाचार और लालफीताशाही जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन भी करेगा।
3.4 बहुभाषीय सॉफ्टवेयर का विकास (Development of multilingual software)
भारत भाषा के आधार पर विभिन्न राज्यों में विभक्त है। हालांकि भारत सरकार आधिकारिक रूप से अंग्रेजी और हिंदी में कार्य करती है, फिर भी प्रशासन की भाषा राज्य के अनुसार बदलती है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 अनुसूचित भाषाओँ की सूची शामिल है। ब्रिटिश शासन के कारण अंग्रेजी सभी राज्यों समझी जा सकती है अतः यह सभी राज्यों के बीच संचार के एक आम सूत्र के रूप में कार्य करती है। अतः जब भारत में संगणकों की शुरुआत हुई, तो संगणकों के लिए भी अंग्रेजी एक संचार भाषा बन गई। परंतु सामान्य जनता की अंग्रेजी समझने की अक्षमता, आमजनता तक पहुंचने में एक बड़ी बाधा बन गई।
इस महान मशीन को भारतीय भाषाओँ के अनुकूल बनाने के लिए प्रयास आवश्यक था। इसे प्राप्त करने की दृष्टि से सरकारी स्तर पर और निजी क्षेत्र के स्तर पर भी अनेक प्रयास किये गए। इन संगठनों ने डिजिटल संगणन के मानचित्र पर भारतीय भाषाओं को रखने के प्रयास किये। इससे भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी के एक नए क्षेत्र का विकास होता चला गया। नई सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर प्रौद्योगिकियों ने इस क्षेत्र को समृद्ध बनाया।
सी डैक ने एक जीआईएसटी प्रौद्योगिकी विकसित की जिसे अनेक नवप्रवर्तनीय उत्पादों और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी विकसित करने का श्रेय प्राप्त है, जिन्होंने संगणन में क्रन्तिकारी परिवर्तन किये हैं और जीआईएसटी को भारतीय भाषाओँ के साथ संगणन का पर्यायवाची बना दिया है। इसके अनुसंधान के क्षेत्र काफी प्रभावशाली हैं और इनमें संगणन के संपूर्ण विस्तार शामिल हैंः प्राकृतिक भाषा प्रक्रमण उपकरण (जैसे अक्षर विन्यास और व्याकरण बिसात, प्राकृतिक पूछताछ), खोज प्लग इन, शब्दार्थ विज्ञान वेब, विडिओ प्रौद्योगिकियां, लिपि प्रौद्योगिकी, विशेषज्ञ लेखन प्रणालियां, छवि-प्रक्रमण (प्रकाशिक संप्रतीक अभिज्ञान और हस्तलिखित संप्रतीक अभिज्ञान), वाक् प्रक्रमण, अंतः स्थापित और गतिशील संगणन इत्यादि जैसे कुछ विस्तार शामिल हैं ।
आज जीआईएसटी प्रौद्योगिकी विभिन्न संगठनों की महत्वपूर्ण गतिविधियों के मिशन का अभिन्न अंग बनी हुई है। संगणन के सामाजिक कार्य को ध्यान में रखते हुए जीआईएसटी प्रौद्योगिकी राष्ट्रीय पहलों को भी शक्ति प्रदान करती है, जो ई-शासन, शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, बैंकिंग एवं संचार इत्यादि के क्षेत्र में विशेष रूप से आमजनता के लिए बनी हुई हैं।
3.5 गूगल का लिप्यंतरण का प्रयास (Google's transliteration effort)
भारतीय भाषाओं को समान मंच प्रदान करने वाले सॉफ्टवेयर विकास में नवीनतम योगदानकर्ता है सॉफ्टवेयर अग्रणी गूगल। लिप्यंतरण उपयोगकर्ताओं को एक रोमन कुंजीपटल का उपयोग करते हुए एक समर्थित भाषा में इबारत प्रविष्ट करने की सुविधा प्रदान करने की पद्धति है। उपयोगकर्ता लैटिन लिपि का उपयोग करते हुए शब्द के स्वर के अनुसार उसका टंकलेखन कर सकते हैं और लिप्यंतरण लिखावट शब्द को उसकी स्थानीय लिपि में परिवर्तित कर देगा। अभी हाल तक यह सेवा केवल ऑनलाइन ही प्रदान की जा रही थी - अर्थात लिप्यंतरण के लिए आपको एक इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक था। अब गूगल ने एक नया लिप्यंतरण सॉफ्टवेयर शुरू किया है - ‘‘गूगल लिप्यंतरण आईएमई‘‘, जो ऑफलाइन लिप्यंतरण की सुविधा भी प्रदान करता है।
आज यह विभिन्न 14 भारतीय भाषाओँ के लिए उपलब्ध है - अरबी, बंगाली, फारसी, ग्रीक, गुजराती, हिंदी, कन्नड, मलयालम, मराठी, नेपाली, पंजाबी, तमिल, तेलुगु और उर्दू।
3.6 शिक्षा
विश्व मानकों की दृष्टि से साक्षरता के क्षेत्र में भारत काफी पीछे है। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से किये जा रहे निरंतर प्रयासों के बावजूद साक्षरता दर स्वीकार्य स्तर तक नहीं पहुंच पाई है। इस तथ्य के लिए अनेक कारक जिम्मेदार हैं। संसाधनों की कमी के अतिरिक्त विशाल जनसंख्या और इस जनसंख्या तक पहुंच पाने के लिए आवश्यक गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों का अभाव, इसके दो महत्वपूर्ण कारक हैं। ऐसी समस्याओं के समाधान की दृष्टि से संगणन प्रौद्योगिकी काफी सहायक साबित होती है।
3.7 के-यानः सुगठित माध्यम केंद्र (मीडिया सेंटर)
नई पीढ़ी की प्रौद्योगिकियां अभिनव माध्यम उत्पादों के निर्माण की अनुमति प्रदान करती हैं, जो व्यापक स्तर पर समाज की सेवा कर सकती हैं। ऐसे उत्पाद मजबूत होने चाहियें और इनमें सरल और सार्वभौम अंतराफलक उपलब्ध होने चाहियें। आईडीसी के प्रोफेसर कीर्ति त्रिवेदी ने के-यान विकसित किया है, जो समाज के उपयोग के लिए ऐसा ही एक सुगठित माध्यम उत्पाद है। इसमें बहुमध्यम और इंटरनेट अनुकूलित व्यक्तिगत संगणक, बडे़ प्रारूप के टेलीविजन, डीवीडी/वीसीडी/सीडी प्लेयर, सीडी लेखक, वीडियो-दूर सम्मेलन उपकरण, एलसीडी डेटा प्रक्षेपक और एक ऑडियो प्रणाली के कार्य सम्मिश्रित हैं, जो साझा प्रदर्शन और दर्शकों द्वारा सहभागिता को सुविधाजनक बनाते हैं। मार्च 2004 में शुरू किये गए के-यान का प्रदर्शन अनेक मुख्य मंत्रियों और केंद्र और राज्यों के वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष किया जा चुका है। के-यान उपयोग की दृष्टि से अत्यंत आसान है, इसमें बहुभाषा की सुविधा उपलब्ध है, और इसके कारण अन्य माध्यम हार्डवेयर में निवेश की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। एक एकल इकाई एक संपूर्ण कक्षा की शिक्षा आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, और संगणकीकरण की लागत में भारी कमी करती है। विभिन्न कार्यों का एकीकरण न केवल विद्यार्थियों को संगणक के उपयोग के बारे में शिक्षा प्रदान करता है, बल्कि अन्य विषयों और शिल्पों को सीखने के भी अवसर प्रदान करता है। यह उत्पाद अन्य समूह शिक्षा अभियानों या स्वास्थ्य सेवा, परिवार नियोजन, कृषि पद्धतियों और नागरिक जागरूकता अभियानों जैसे प्रसार कार्यक्रमों की दृष्टि से भी काफी उपयोगी है।
के-यान अतिरिक्त सौर ऊर्जा आधारित वहनीय विद्युत आपूर्ति से भी सुसज्जित है, जो इसे ऐसे क्षेत्रों में भी उपयोग के सक्षम बनाता है जहां बिजली उपलब्ध नहीं है। एक वाहन पर लगा हुआ यह उपकरण सुदूर क्षेत्रों के लिए एक चलित संचार केंद्र के रूप में भी कार्य कर सकता है। एक इंटरनेट कनेक्शन और वेब कैमरे के साथ यह उपकरण किसी भी स्थान से कम लागत के वेब दूर सम्मेलन की सुविधा भी प्रदान करेगा, जो इसे आपदा प्रबंधन और परियोजना प्रगति की निगरानी की दृष्टि से भी काफी उपयोगी बना देता है वेब दूर सम्मेलन की विशेषता ई-शासन की सृष्टि से भी काफी उपयोगी होगी क्योंकि यह प्रशासन और विभिन्न अभिकरणों के बीच सीधे संवाद को सुविधाजनक बनाएगा। के-यान ने उत्साहजनक प्रतिक्रिया निर्मित की है और यह एक मुख्य वाणिज्यिक सफलता की ओर अग्रसर है।
3.8 अंतर्राष्ट्रीय संगणन परिदृश्य में भारतीय
अंतर्राष्ट्रीय संगणन परिदृश्य को अनेक भारतीयों और भारतीय मूल के लोगों ने भी समृद्ध किया है। हेवलेट पैकर्ड के पूर्व महाप्रबंधक राजीव गुप्ता, विश्व के क्रमांक 1 के वेब आधारित ईमेल कार्यक्रम, हॉटमेल के संस्थापक और निर्माता, सबीर भाटिया, एटी एंड टी-बेल लैब्स के पूर्व अध्यक्ष (एटी एंड टी-बेल लैब्स सी, सी प्लस प्लस, यूनिक्स जैसी प्रोग्राम भाषाओँ का निर्माता है) अरुण नेत्रावली, विंडोज 2000 के नए एमटीडी (माइक्रोसॉफ्ट परीक्षण निदेशक), जो इसकी सभी प्रारंभिक समस्याओं को सुलझाने के लिए थे, संजय तेजव्रिका, पेंटियम चिप के निर्माता विनोद धाम इस बात को साबित करने के लिए उल्लेख किये गए कुछ ही नाम हैं। ऐसा कहा जाता है कि माइक्रोसॉफ्ट के 34 प्रतिशत कर्मचारी भारतीय हैं, आईबीएम के 28 प्रतिशत कर्मचारी भारतीय हैं, और 17 प्रतिशत इंटेल वैज्ञानिक भारतीय हैं। यह स्पष्ट रूप से अंतर्राष्ट्रीय संगणन में भारतीयों के वर्चस्व को दर्शाता है।
4.0 भारत में की गई सरकारी पहलें
4.1 इलेक्ट्रॉनिक आयोग
जनवरी 1966 में प्रधानमंत्री श्री शास्त्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। इलेक्ट्रॉनिक्स समिति की रिपोर्ट 1966 में सार्वजनिक हुई, जिसके बाद संगणकों पर इसके कार्यकारी समूह की एक रिपोर्ट 1968 में आई, जो टीआईएफआर के आर नरसिंहन के नेतृत्व में तैयार की गई थी। इसमें अगले दस वर्षों के लिए भारत की इलेक्ट्रॉनिक्स और संगणन योजनाओं की रूपरेखा प्रदान की गई थी, और सिफारिश की गई थी कि न केवल संगणकों की बल्कि इसके घटकों और उप प्रणालियों की रचना और विकास भी स्वदेशी स्तर पर ही किया जाए। 1 जून 1967 को सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक और संगणन प्रणालियों, उपकरणों और घटकों के उत्पादन के लिए हैदराबाद में भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) की स्थापना की। फिर भी तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए भारत को सरकारी, शैक्षणिक और अनुसंधान प्रतिष्ठानों के लिए आधुनिक संगणन प्रौद्योगिकियों की अत्यंत आवश्यकता थी। अतः इन आवश्यकताओं के अंतर को भरने के लिए प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित किया गया था।
हालांकि के लिए एक नकारात्मक अनुभव साबित हुआ। इंटरनेशनल कम्प्यूटर्स लिमिटेड (आईसीएल), यूके, और आईबीएम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत को अप्रचलित या नवीकरण किये गए उपकरण किराये पर दिए, जो प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत पश्चिमी देशों में चरणबद्ध रूप से बाहर किये जा रहे थे। उदाहरणार्थ, आईबीएम ने अप्रचलित आईबीएम 1401 संगणक बेचे, जो पश्चिमी देशों से चरणबद्ध रूप से इसलिए बहिष्कृत किये जा रहे थे क्योंकि उस दौरान तीसरी पीढ़ी की आईबीएम 360 श्रेणी का आगमन हो गया था। (सुब्रमण्यम, 1992) भारतीय वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं ने इन असमानताओं पर ध्यान दिया, और आत्मनिर्भरता की मांग करने वाली आवाज दृढ़ हुई। 1968 में इलेक्ट्रॉनिक्स समिति ने इलेक्ट्रॉनिक्स पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया और यह सम्मेलन समिति के अध्यक्ष डॉ विक्रम साराभाई द्वारा उद्घोषित इस दृढ़ संकल्प के साथ समाप्त हुआ की संगणक प्रौद्योगिकी के सभी पहलुओं का स्वदेशीकरण जाए और इनमें आत्मनिर्भरता प्राप्त की जाए। हालांकि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के.वी. राजारमन जैसे वैज्ञानिकों ने इस लक्ष्य की व्यवहार्यता पर संदेह व्यक्त किया, परंतु इन अवधारणाओं को नजरअंदाज कर दिया गया और आयातों को हतोत्साहित किया गया।
4.2 1980 के दशक का दौर
सरकार की नीति पर दो अन्य घटनाओं का भी दूरगामी प्रभाव पड़ा। 1982 में दिल्ली में एशियाई खेलों का आयोजन किया जाना था, और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी को इन खेलों के आयोजन की संपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उन्हें प्रौद्योगिकी का व्यावहारिक ज्ञान था, चूंकि वे स्वयं भी एक शौकीन इलेक्ट्रॉनिक में दिलचस्पी रखने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने तय किया कि खेलों की समय-सारणी, प्रतियोगिता के अभिलेख, परिणामों की घोषणा और समस्त अन्य लिपिक संबंधी कार्यों को तैयार करने के लिए संगणकों का उपयोग किया जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर तैयार किये गए डीसीएम संगणकों का आयोजन के विभिन्न स्थलों पर विद्युत चक्र के अंतिम सिरे (टर्मिनल्स) के रूप में उपयोग किया गया जिन्हें हेवलेट पैकार्ड सर्वर के साथ जोड़ा गया। यह संपूर्ण सॉफ्टवेयर प्रणाली भारत सरकार के राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (एनआईसी) के अभियंताओं द्वारा छह महीने की अल्पावधि में विकसित की गई थी। इन खेलों का संगणकीकरण अप्रत्याशित रूप से सफल साबित हुआ। इसके कारण एनआईसी के महानिदेशक एन शेषगिरी की राजीव गांधी के साथ निकटता बढ़ी।
1984 में राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने। एशियाई खेलों के आयोजन के दौरान निजी उद्यमियों के साथ अपनी चर्चाओं के दौरान उन्होंने अनगिनत नियमों और विनियमों के कारण संगणकों के विनिर्णम में आने वाली कठिनाइयों के बारे में सुना था। एन शेषगिरी, जो उनके अनौपचारिक सलाहकार थे, भी संगणकों के विनिर्माण और विपणन में निजी उद्यमियों को आने वाली कठिनाइयों के विषय में जानते थे। इस प्रकार संगणकों के विनिर्माण के लिए नीतियों के और अधिक उदारीकरण के लिए समय परिपक्व था। अतः 1984 में छोटे संगणकों के लिए एक उदार नीति की घोषणा की गई।
सीएमसी ने आईबीएम 4342 मेनफ्रेम का इंडोनेट नामक संजाल स्थापित किया था। यह संजाल सॉफ्टवेयर निर्यात करने वालों को एक रियायती प्रशुल्क पर उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई थी। इन नीतिगत परिवर्तनों के अतिरिक्त दूर संचार के क्षेत्र में भी सुधार किये गए थे। सार्वजनिक स्विच्ड संजाल और विदेशी दूर संचार लिंक्स सरकार का एकाधिकार थे और इनका परिचालन सरकारी विभागों द्वारा किया जाता था जिनके कर्मचारियों को सरकारी सेवकों का दर्जा प्राप्त था। एक शासकीय विभाग के रूप में इसका बजट सरकारी बजट का ही एक भाग था जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में निवेश अत्यंत अल्प था और इसकी सेवाएं अत्यंत खराब थीं। 1982 में लैंडलाइन का टेलीफोन कनेक्शन प्राप्त करने के लिए दो वर्ष का इंतजार करना पड़ता था। जबकि बाकी विश्व महँगी दूर संचार सेवाएं प्रदान करने में आगे बढ़ रहा था, वहीं भारत में अधोसंरचना प्राचीन काल की ही बनी हुई थी।
4.3 महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड, विदेश संचार निगम लिमिटेड, और सी-डॉट
राजीव गांधी के नेतृत्व में दो नीतिगत निर्णय लिए गए थे। पहला था सार्वजनिक स्विच्ड टेलीफोन संजाल को निगमित करना। मुंबई और दिल्ली में टेलीफोन सेवाएं परिचालित करने के लिए महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड नामक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी की स्थापना की गई। इसे परिचालनात्मक स्वायत्तता प्रदान की गई। विदेशी दूर संचार सेवाओं में सुधार के लिए विदेश संचार निगम लिमिटेड नामक एक अन्य कंपनी की स्थापना 1986 में की गई। 1984 में सत्यनारायण (सैम) पित्रोदा के नेतृत्व में एक अनुसंधान समूह की स्थापना की गई जिनकी सहायता एम वी पिटके (जिन्होंने पूर्व में चर्चा किये गए आरेन समूह का नेतृत्व किया था) और जी.बी. मीमांसी (दूर संचार विभाग के एक अधिकारी) कर रहे थे। इसे टेलीमैटिक्स विकास केंद्र (सी डॉट) कहा गया। सी डॉट का मुख्य लक्ष्य था छोटी क्षमता वाले डिजिटल केंद्रों की रचना करना जो ग्रामीण भारत में उपयोग के लिए अनुकूल हों जहां विद्युत आपूर्ति उपलब्धता अत्यंत कम थी और जहां चरम मौसम स्थितियां (गर्मी के मौसम में तापमान 45 अंश सेल्सियस, और सर्दी के मौसम में यह 5 अंश सेल्सियस रहता है) विद्यमान थीं। सी डॉट ने उच्च प्रेरित अभियंताओं के एक समूह की भर्ती की और 3 वर्ष के रिकॉर्ड समय में एक विषम स्विच और एक डिजिटल केंद्र विकसित किया। सी डॉट के स्विचेस का व्यापक स्तर पर उपयोग किया गया और उनका निष्पादन काफी अच्छा था।
भारत के ग्रामीण दूर संचार क्षेत्र में एक अन्य महत्वपूर्ण क्रांति थी सार्वजनिक टेलीफोन बूथ का विकास जिसमें टेलीफोन कॉल के बिलिंग के लिए माइक्रोप्रोसेसर आधारित प्रणाली का उपयोग किया गया था। इन्हें पब्लिक कॉल ऑफिस (पीसीओ) कहा जाता था। इन पीसीओ से लोग स्थानीय, दूर के और अंतर्राष्ट्रीय कॉल भी कर सकते थे, और कॉल का शुल्क वहां उपस्थित कर्मचारी को प्रदान करते थे। टेलीफोन से संलग्न माइक्रोप्रोसेसर कॉल पूरा होने पर तुरंत उसके शुल्क को मुद्रित करता था जिसके कारण प्रशुल्क संग्रहण भी पूरी तरह से पारदर्शी था। इस प्रकार के पीसीओ स्थापित करने की लागत काफी कम थी, जिसके कारण बड़ी संख्या में उद्यमी इस व्यापार में प्रविष्ट हुए। ये निजी स्वामित्व वाले पीसीओ भारत भर में छोटे कस्बों में, गांवों में, और महामार्गों पर देशव्यापी बन गए, जिसके परिणामस्वरूप देश में एक दूर संचार क्रांति हुई। अगले पांच वर्षों के अंदर भारत का कोना-कोना दूर संचार से जुड़ गया। सूक्ष्म संगणकों की शक्ति सभी को दिखाई दे रही थी।
5.0 शैक्षणिक कार्यक्रम
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर, जिसने भारत में संगणक विज्ञान में पहला स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किया था, 1978 में संगणक विज्ञान में पूर्वस्नातक कार्यक्रम शुरू करने के मामले में एक बार फिर से अग्रणी रहा। इस प्रकार का कार्यक्रम शुरू करने वाला वह देश का पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में प्रवेश काफी प्रतियोगी स्तर का होता है, और देश भर से 1 लाख से अधिक विद्यार्थियों ने 1500 स्थानों के लिए (1978 में) प्रवेश परीक्षा में भाग लिया, और परीक्षा में उनके क्रम के अनुसार विद्यार्थियों को उनकी इच्छा के अनुसार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और कार्यक्रम का चयन करने का विकल्प दिया गया। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर ने अत्यंत अनिच्छा से केवल 20 विद्यार्थियों को संगणक विज्ञान (सीएससी) कार्यक्रम में प्रवेश प्रदान किया क्योंकि उन्हें लगता था कि सीएससी कार्यक्रम ‘‘मुख्यधारा‘‘ का अभियांत्रिकी कार्यक्रम नहीं था। हालांकि विद्यार्थियों के बीच सीएससी कार्यक्रम इतना लोकप्रिय था कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में सीएससी पाठ्यक्रम में प्रवेश दिए गए अंतिम विद्यार्थी का प्रवेश परीक्षा में अखिल भारतीय क्रमांक 40वां था! अन्य भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के लिए एक आश्चर्य का विषय था, और उन सभी ने संगणक विज्ञान में बी टेक कार्यक्रम शुरू किये। शीघ्र ही सभी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में संगणक विज्ञान एवं अभियांत्रिकी विभाग स्थापित किये गए जो संगणक विज्ञान एवं अभियांत्रिकी विषय में बी टेक और एम टेक पदवियाँ प्रदान करने लगे।
1980 में इलेक्ट्रॉनिक्स आयोग ने उभरते हुए संगणक उद्योग के लिए मानव संसाधनों की कमी की समस्या का पूर्वानुमान लगाया। समाधान सुझाने के लिए संगणक मानव संसाधन विकास पर एक समूह का गठन किया गया। समूह ने सिफारिश की कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और अन्य अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में संगणक विज्ञान कार्यक्रमों का विस्तार किया जाना चाहिए।
समूह का एक अन्य अभिनव प्रस्ताव था संगणक अनुप्रयोग में स्नातकोत्तर पदवी कार्यक्रम (मास्टर ऑफ कंप्यूटर एप्लिकेशन्स) नामक पाठ्यक्रम की शुरुआत करना। भारतीय शिक्षण व्यवस्था में हाई स्कूल से स्नातक होने के बाद बड़ी संख्या में विद्यार्थी विज्ञान में स्नातक की पदवी (बी एससी) के लिए नामांकन भरते हैं, जिसमें भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और गणित या जीव विज्ञान मुख्य विषय होते हैं, या वाणिज्य संकाय में स्नातक की पदवी (बी. कॉम) पाठ्यक्रम में नामांकन भरते हैं जहां उनके मुख्य विषय वाणिज्य, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी होते हैं। ये पदवियां सामान्य होती हैं, जो विद्यार्थी को किसी ऐसे विशेष पेशे के लिए तैयार नहीं करतीं जिनके लिए विशेष कौशल और योग्यता की आवश्यकता होती है। समूह को लगा कि भारत को व्यापार/प्रबंधन सूचना प्रणालियों के विकास के लिए बड़ी संख्या में व्यक्तियों की आवश्यकता थी जिनका उपयोग देश में और विदेशों में भी विभिन्न संगठनों में किया जा सके। इसके लिए तंत्र विश्लेषकों की आवश्यकता थी जिनके पास कुछ हद तक शैक्षणिक योग्यता और सॉटवेयर विकास के क्षेत्र में विशेषज्ञता हो।
6.0 अन्य पहलें
सॉफ्टवेयर के निर्यात को प्रोत्साहन प्रदान करनाः 1981 में इलेक्ट्रॉनिक्स आयोग ने संगणकों के आयात की अनुमति द्वारा सॉफ्टवेयर के निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए श्री सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की। समिति ने वास्तविक निर्यातकों के लिए संगणकों के आयात के उदारीकरण की सिफारिश की।
पड़ोसी देशों को संगणकीकरण में सहायता प्रदान करनाः सीएमसी ने संगणक प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा एवं अनुसंधान (परियोजना इंटरैक्ट) नामक कार्यक्रम के लिए यूएनडीपी से 2.75 मिलियन डॉलर की धनराशि प्राप्त की। इसकी सहायता से सॉफ्टवेयर विकास और संगणक रखरखाव के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों का निर्माण करके संगणक प्रौद्योगिकी का पड़ोसी विकासशील देशों में प्रसार किया गया।
संगणक सहायता प्राप्त डिजाइन (सीएडी) में कार्यक्रमः 1984 में डीओई ने यूएनडीपी से 1.5 मिलियन डॉलर का अनुदान प्राप्त किया, और इस धनराशि में से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई, भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर और जादवपुर विश्वविद्यालन में सीएडी केंद्र स्थापित करने के लिए 340 मिलियन रुपयों का योगदान प्रदान किया। इन केन्द्रों ने सीएडी के विभिन्न क्षेत्रों में सॉफ्टवेयर और मानव संसाधनों का विकास किया। भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर के केंद्र ने इलेक्ट्रॉनिक्स में सीएडी उपकरणों के विकास में विशेषज्ञता प्राप्त की। इस भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर के सीएडी केंद्र ने नीदरलैंड्स के डेल्ट विश्वविद्यालय के साथ सहयोग किया और नेलसिस प्राप्त किया, जो बहुमात्रा एकीकृत परिपथ डिजाइन के लिए एक उपकरण है। अनेक वैज्ञानिकों ने विदेशों में जाकर डिजाइन और सीएडी उपकरणों के उपयोग में प्रशिक्षण प्राप्त किया और बाद में उन्होंने अपने स्वयं के उपकरण विकसित किये और अल्पावधि के पाठ्यक्रम प्रदान करके और प्रशिक्षित मानव संसाधन प्रदान करके उद्योग की सहायता की (1980 के दशक के दौरान अमेरिका ने भारत की शैक्षणिक संस्थाओं के लिए भी इलेक्ट्रॉनिक्स में सीएडी उपकरणों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था)।
संगणक समर्थित प्रबंधन कार्यक्रमः 1984 में डीओई ने यूएनडीपी के साथ मिलकर अहमदाबाद, बैंगलोर और कोलकाता के तीन भारतीय प्रबंध संस्थानों और भारतीय प्रशासनिक स्टाफ महाविद्यालय, हैदराबाद में संगणक समर्थित प्रबंधन नामक एक कार्यक्रम का वित्तपोषण किया। इस परियोजना के दो लक्ष्य थे। एक उद्देश्य था संगठनों की कार्यकुशलता में सुधार करने के लिए प्रबंधन में संगणक के अनुप्रयोगों में अनुसंधान की पहल करना। इसका दूसरा उद्देश्य था संगठनों की कार्यप्रणाली में सुधार करने के लिए संगणकों के उपयोग में इन संस्थानों के विद्यार्थियों और पेशेवर प्रबंधकों को प्रशिक्षित करना। इसके लिए कुल 1.25 मिलियन डॉलर और 35 मिलियन रुपये का अनुदान प्रदान किया गया। प्रत्येक संस्थान को एक वीएएक्स 2/750 संगणक और इष्टतमीकरण में बड़ी संख्या में सॉफ्टवेयर पैकेज भी प्रदान किये गए। यह परियोजना प्रबंधन प्रक्रियाओं में सुधार के लिए प्रबंधकों को तंत्र विश्लेषण में शिक्षित करने और उपयुक्त सॉटवेयर के उपयोग में प्रशिक्षित करने की दृष्टि से काफी उपयोगी थी।
अपतटीय सॉफ्टवेयर विकास को प्रोत्साहित करनाः 1985 में डीओई ने टेक्सास इंस्ट्रुमेंट्स (टीआई) को अपने अमेरिका के डलास केंद्र के साथ एक समर्पित उपग्रह दूरसंचार लिंक स्थापित करने की अनुमति प्रदान करने के लिए दूर संचार विभाग के साथ बातचीत शुरू की। टीआई के बैंगलोर केंद्र ने सॉफ्टवेयर उपकरण विकसित किये और उन्हें एक समर्पित उपग्रह दूरसंचार लिंक के माध्यम से अपने डलास केंद्र को भेजा। यह दूरसंचार विभाग के दूरसंचार क्षेत्र के एकाधिकार को समाप्त करने की दिशा में पहला कदम था, और बाद में ‘‘अपतटीय‘‘ सॉफ्टवेयर विकास केन्द्रों और डीओई के सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यानों के विकास में इसके काफी दूरगामी परिणाम हुए।
शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमः 1985 में डीओई ने एस संपत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जिसने नए स्थापित होने वाले महाविद्यालयों में संगणक विज्ञान में शिक्षकों के प्रशिक्षण का सुझाव दिया।
ज्ञान आधारित संगणक प्रणाली विकास कार्यक्रमः 1985 में डीओई ने यूएनडीपी से 5.2 मिलियन डॉलर का वित्तपोषण प्राप्त किया, और इस धनराशि में से 140 मिलियन रुपये की धनराशि का ज्ञान आधारित संगणक प्रणाली (केबीसीएस) विकास नामक कार्यक्रम की शुरुआत के लिए निवेश किया। इसमें सहभागी होने वाले संस्थान थे भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास, आईएसआई, कलकत्ता, टीआईएफआर, मुंबई और एनसीएसटी, मुंबई। इस कार्यक्रम के कारण सामानांतर संगणकों, चिकित्सा में विशेषज्ञ प्रणालियों, भारतीय भाषाओँ के लिपि अभिज्ञान और वाक् अभिज्ञान में अनुसंधान सहित नरम संगणन और ज्ञान प्रतिनिधित्व की रचना संभव हो सकी। इन संस्थानों के वैज्ञानिकों को बड़ी संख्या में अमेरिका और इंग्लैंड के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में कार्य करने के लिए विदेशों में भेजा गया। इस कार्यक्रम के कारण सहभागी संस्थानों की अनुसंधान अधोसंरचना में भी व्यापक सुधार हुआ।
बैंकों में संगणकों के उपयोग को प्रोत्साहित करनाः भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा आर रंगराजन की अध्यक्षता में गठित समिति ने सिफारिश की कि सभी बैंकों में ईडीपी प्रकोष्ठ स्थापित किये जाने चाहियें और पिछले कार्यालय के सभी कार्य संगणकों का उपयोग करके किये जाने चाहियें। समिति ने यह भी सिफारिश की कि बैंकों में यूनिक्स का मानक परिचालन प्रणाली के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। बैंकों की संगणक आवश्यकताएं अत्यंत विशाल थीं और इसके कारण निजी संगणक विनिर्माण करने वाली कंपनियों को यूनिक्स का उपयोग करने वाले लघु संगणकों के विकास के लिए प्रेरणा मिली। बैंकों द्वारा संगणकों के उपयोग में वृद्धि श्रम संगठनों के लिए खतरे की घंटी थी अतः उन्होंने 1984 को ‘‘संगणकीकरण विरोधी वर्ष‘‘ के रूप में मनाया। यह अवधारणा 1986 में तब बदल गई जब सीएमसी ने भारतीय रेलवे के लिए यात्री आरक्षण प्रणाली का क्रियान्वयन किया।
राष्ट्रीय महाशक्तिशाली संगणक शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र की स्थापनाः भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 1984 में भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर को राष्ट्रीय महाशक्तिशाली संगणक शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र (एसईआरसी) की स्थापना के लिए 500 मिलियन रुपये का अनुदान प्रदान किया। एसईआरसी के लिए उपयुक्त संगणकों के चयन के लिए एक राष्ट्रीय समिति गठित की गई। समिति ने अमेरिका की दो और जापान की एक कंपनी का दौरा किया और मुख्य महाशक्तिशाली संगणक के रूप में क्रे वायएमपी, अनेक अग्रांत संगणकों और बड़ी संख्या में उच्च अंत कार्यस्थलों का सुझाव दिया।
क्रे को इसके लिए आदेश दिया गया और कंपनी ने 1989 तक भारतीय विज्ञान संस्थान में क्रे वायएमपी स्थापित करने के अनुबंध पर हस्ताक्षर किये। क्रे को संस्थान को संगणक निर्यात करने की अनुज्ञप्ति प्राप्त करने का विश्वास था। अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी के नेतृत्व में एक दल ने संस्थान का दौरा किया और संगणक के उपयोग के लिए अनेक शर्तों पर चर्चा हुई और उनपर आपसी सहमति बनी।
महाशक्तिशाली संगणक शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र को सरकार की ओर से समर्थन और सहायता जारी रही और 2010 तक उसके पास आईबीएम ब्लू जीन महाशक्तिशाली संगणक, तीन उच्च निष्पादन संगणक समूह और एक सुधारित परिसर संजाल प्राप्त हो चुके थे (2010 तक अमेरिका ने भारत को महाशक्तिशाली संगणक प्रदान करने पर लगाया गया नियंत्रण भी शिथिल कर दिया था)।
प्रगतिशील संगणन विकास केंद्र की स्थापनाः सी.एन.आर. राव की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री की विज्ञान सलाहकार समिति ने उच्च निष्पादन संगणकों की रचना और उन्हें गढ़ने की पद्धितियों पर सुझाव देने के लिए 1986 में सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। यह समिति भारत को अमेरिका और जापान से महाशक्तिशाली संगणक खरीदने में आ रही कठिनाईयों के कारण स्थापित की गई थी। समिति ने एक गीगालॉप या उससे ऊपर की गति वाले सामानांतर संगणकों के निर्माण के लिए एक मिशन मोड परियोजना का सुझाव दिया। इसके परिणामस्वरूप डीओई ने उच्च निष्पादन सामानांतर संगणकों के निर्माण के लिए 300 मिलियन रुपये के प्रारंभिक निवेश के साथ 1988 में पुणे में प्रगतिशील संगणन विकास केंद्र की स्थापना की।
यह परियोजना सफलतापूर्वक 1991 में पूर्ण की गई, सी डैक ने और अधिक शक्तिशाली सामानांतर संगणकों का भी निर्माण किया और 2007 में परम पदमा नामक एक मशीन का निर्माण किया जिसे विश्व के 500 सबसे तेज गति वाले संगणकों में 171 वां स्थान दिया गया। सामानांतर संगणन में अपने प्रयासों के अतिरिक्त सी डैक का एक अन्य उल्लेखनीय योगदान था जीआईएसटी (ग्राफिक्स एवं खुफिया आधारित लिपि प्रौद्योगिकी) नामक एक एकीकृत परिपथ चिप का विकास, जिसे किसी व्यक्तिगत संगणक के साथ के बोर्ड पर स्थापित किया जा सकता था। इस बोर्ड ने व्यक्तिगत संगणकों के साथ अधिकांश भारतीय भाषाओं की लिपियों के उपयोग को सुविधाजनक बनाया। जीआईएसटी ने सूचना आदान-प्रदान के लिए एक मानक भारतीय लिपि कूट का उपयोग किया। विभिन्न भारतीय लिपियों के लिए एक समान कुंजीपटल अभिन्यास की भी रचना।
सामानांतर संगणक परिरूप परियोजनाएंः सी डैक द्वारा किये गए प्रयासों के अतिरिक्त 1985 और 1992 के बीच सामानांतर संगणकों के परिरूपण में गतिविधियों की एक बाढ़ सी आ गई। अनेक संस्थाओं ने भी अनुसंधान परियोजनाओं के रूप में और अपने आतंरिक उपयोग के लिए सामानांतर संगणकों का परिरूपण किया। इनमें से उल्लेखनीय थे लोसॉल्वर, बैंगलोर की राष्ट्रीय वैमानिक प्रयोगशाला द्वारा द्रव गतिकी समस्याओं के समाधान के लिए तैयार की गई एक मशीन, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, हैदराबाद द्वारा तैयार किया गया पेस और मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र द्वारा तैयार किया गया अनुपम। केबीसीएस परियोजनाओं के भाग के रूप में भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर द्वारा व्यक्तिगत संगणकों के मदरबोर्ड का उपयोग करते हुए विभिन्न न्यून लागत सामानांतर संगणक भी निर्मित किये गए। सामानांतर संगणन के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करते हुए भारतीय विज्ञान संस्थान के लगभग दस विद्यार्थियों ने डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। ऊपर वर्णन की गई सभी परियोजनाओं ने सामानांतर संगणकों के परिरूपण और प्रोग्रामिंग में दक्ष अभियंताओं के एक बडे समूह का निर्माण किया।
भारतीय रेलवे की टिकट आरक्षण प्रणाली का संगणकीकरणः भारतीय रेलवे के टिकिटों के आरक्षण के संगणकीकरण की एक प्रमुख परियोजना शुरुआत 1984 में हुई और इसे 1986 में पूर्ण किया गया। भारतीय रेल विश्व के सबसे बडे रेल संजालों में से एक है। 1984 में यह 600 दूर अंतर की ट्रेनों में सफर करने वाले लगभग 5 मिलियन यात्रियों को सेवा प्रदान करती थी, जिनमें लगभग 50,000 आरक्षण अनुरोध हुआ करते थे। आरक्षण प्राप्त करने के लिए यात्रियों को लंबी कतारों में खडे होकर इंतजार करना पड़ता था। रेलवे के टिकट लिपिक यात्री की ट्रैन के चयन के अनुसार निरंतर विभिन्न ट्रेन पुस्तकों को उलट-पुलट किया करते थे। आरक्षण का क्षेत्र संगणकीकरण की दृष्टि से परिपक्व हो गया था।
भारतीय सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यानों की स्थापनाः डीओई द्वारा शुरू की गई एक अन्य पहल थी सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यानों की स्थापना। सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यान इन उद्यानों में स्थापित सॉफ्टवेयर कंपनियों को भवनों, कार्यस्थलों और निरंतर अबाधित विद्युत आपूर्ति जैसी अधोसंरचना प्रदान करते हैं इसके अतिरिक्त सॉटवेयर प्रौद्योगिकी उद्यान उपग्रह संचार लिंक भी स्थापित करते हैं जो इन कंपनियों द्वारा उनके संबंधित परिसरों में स्थित प्रवेश टर्मिनल्स से उनके विदेशी ग्राहकों के संगणकों पर सॉफ्टवेयर विकसित करने के लिए उपयोग किये जा सकते हैं। चूंकि सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यानों में कंपनी स्थापित करने के लिए आवश्यक निवेश कम था अतः इस पहल ने अनेक छोटे उद्यमियों को भी सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात व्यापार में आने के लिए सुविधा प्रदान की। पहला सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यान 1990 में बैंगलोर में स्थापित किया गया था। बाद में अनेक शहरों में सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यानों की स्थापना की गई और इसे डीओई द्वारा नियंत्रित भारतीय सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी उद्यान के रूप में निरूपित किया गया।
इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन का विकास एवं इनका उपयोगः 1982 में हुई एक अन्य महत्वपूर्ण घटना थी केरल में भारतीय संसद के लिए हुए उपचुनाव में माइक्रोप्रोसेसर आधारित इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन का उपयोग (शायद विश्व में पहली बार)। इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन (ईवीएम) का प्रारूप दो सार्वनजिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा किया गया थाः भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और ईसीआईएल, जिनका उपयोग निरक्षर मतदाताओं द्वारा भी आसानी से किया जा सकता है। ईवीएम के उपयोग के कारण चुनाव परिणाम मतदान के बाद दो दिनों के अंदर घोषित करना संभव हुआ (2004 के आमचुनावों से भारत में केवल ईवीएम का ही उपयोग किया जाता है। हाथ से भरे गए मतपत्रों का उपयोग समाप्त कर दिया गया है)।
तीन अत्यंत दृश्य परियोजनाओं में संगणकों की प्रभावकारिता, अर्थात ट्रैन टिकिटों का आरक्षण, सार्वजनिक कॉल केंद्र, और संगणकी.त इलेक्ट्रॉनिक मतदान, ने नीति निर्माताओं और सामान्य जनता की संगणकों के विषय में अवधारणा और भारत में इसकी प्रासंगिकता की अवधारणा को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है।
7.0 3ड़ी मुद्रण प्रौद्योगिकी (3ड़ी प्रिंटिंग)
विशेषज्ञों के अनुसार 3डी मुद्रण संभवतः उसी प्रकार का युग परिवर्तनकारी है जैसे अपने समय में भाप का इंजन या तार प्रणाली हुआ करते थे, और यह एक नई औद्योगिक क्रांति की शुरुआत कर सकता है।
3डी मुद्रण या संकलनी विनिर्माण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक डिजिटल फाइल से तीन आयामी ठोस वस्तुएं निर्मित की जा सकती हैं। 3डी मुद्रित वस्तु का निर्माण संकलनी प्रक्रियाओं का उपयोग करके प्राप्त किया गया है। एक संकलनी प्रक्रिया में वस्तु का निर्माण करते समय सामग्री की एक के बाद एक परतें तब तक रखी जाती हैं जब तक संपूर्ण वस्तु की आकृति निर्मित नहीं हो जाती। इस प्रत्येक परत को अंतिम वस्तु के एक पतले फांक किये हुए क्षैतिज अनुप्रस्थ काट के रूप में देखा जा सकता है। एक 3डी मॉडलिंग कार्यक्रम में मुद्रण के लिए निर्मित डिजिटल फाइल तैयार करने के लिए सॉटवेयर अंतिम मॉडल को सैकड़ों या हजारों क्षैतिज महीन परतों में फांकें कर देता है। जब इस तैयार की गई फाइल को 3डी मुद्रक में अपलोड किया जाता है, तो मुद्रक वस्तु का परत दर परत निर्माण करता है। 3डी मुद्रक इस प्रत्येक फांक को (या 2डी चित्र को) पढ़ता है। प्रत्येक परत को इस प्रकार मिश्रित करते हुए वस्तु का निर्माण करता है कि परतें रखने का चिन्ह कहीं भी नजर नहीं आता, और इस प्रकार इसका परिणाम अंततः एक तीन आयामी वस्तु के रूप में होता है। इसे प्राप्त करने के लिए जो सबसे सामान्य प्रौद्योगिकियां उपयोग की जाती हैं वे हैं स्टीरियोलिथोग्राफी (एसएलए), चयनित लेसर निसाद (एसएलएस) और अग्नित्र निक्षेपण मॉडलिंग (एफडीएम)।
उत्पादों की जहां आवश्यकता है ठीक उसी स्थान पर उत्पादों का निर्माण करने के संभावित पारिस्थितिकी प्रभाव के अतिरिक्त 3 डी मुद्रण संभवतः वस्तुओं के छोटे पैमाने पर निर्माण को सस्ता बना सकता है, बजाय इसके कि बड़ी संख्या में वस्तुएं निर्मित की जाएं, जिनमें से अनेक वस्तुएं बेकार हो जाती हैं।
3डी मुद्रण प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग डिजाइन दृश्य, प्रतिकृतिकरण/सीएडी, वास्तुकला के लिए धातु ढुलाई, शिक्षा, भू-स्थानिक, स्वास्थ्य सेवा और मनोरंजन/खुदरा जैसे अनेक क्षेत्रों में किये जा सकते हैं। इसके अन्य अनुप्रयोगों में जीवाश्मिकी में जीवाश्मों का पुनर्निर्माण, प्राचीन शिल्प विज्ञान में प्राचीन और बहुमूल्य शिल्पकृतियों की प्रतिकृति, न्यायालयिक विकृति-विज्ञान में हड्डियों या शरीर के अंगों का पुनर्निर्माण, और अपराध स्थल अन्वेषण से आवश्यक से प्राप्त किये गए बुरी तरह से क्षतिग्रस्त साक्ष्यों का पुनर्निर्माण शामिल हैं। जैसे-जैसे यह प्रौद्योगिकी सस्ती होती जा रही है, और यह जैसे-जैसे अधिकाधिक लोगों के सामर्थ्य की पहुँच में आती जा रही है वैसे-वैसे इस प्रौद्योगिकी का उपयोग अब शीघ्र प्रतिकृतिकरण और शीघ्र विनिर्माण के लिए किया जाने लगा है।
रंगीन और विभाज्य सामग्रियों में उत्पादन करने की क्षमता वाले 3डी मुद्रक अब उपलब्ध हैं। प्रौद्योगिकी में हो रहे निरंतर सुधार से कार्यात्मक उत्पादों का 3डी मुद्रण भी संभव हो जायेगा। इसका ऊर्जा उपयोग, अपशिष्ट न्यूनीकरण, विशिष्ट रूप से निर्मिति, उत्पाद उपलब्धता, औषधि, कला, निर्माण और विज्ञानों में व्यापक प्रसार होगा। अतः कहा जाता है कि 3डी मुद्रण में विनिर्माण विश्व को पूर्ण रूप से परिवर्तित करने की क्षमता है।
8.0 सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 द्वारा किये गए परिवर्तन
भारत सरकार ने 2000 में एक सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम अधिनियमित किया। बाद में इस अधिनियम में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम द्वारा कुछ संशोधन किये गए। महत्वपूर्ण संशोधन निम्नानुसार थेः
सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम, 2008 की प्रमुख विशेषताएं
- अधिनियम को अधिक प्रौद्योगिकी निष्पक्ष बनाने के लिए ‘‘डिजिटल हस्ताक्षर‘‘ शब्द को ‘‘इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर‘‘ शब्द द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है।
- ‘‘संचार उपकरण‘‘ को परिभाषित करने के लिए एक नए अनुच्छेद को प्रविष्ट किया गया है, जिसमें संचार उपकरण का अर्थ है सेल फोन, व्यक्तिगत डिजिटल सहायता या दोनों का मिश्रण या संचार के लिए, किसी इबारत वीडियो, श्रव्य या छवि को भेजने या प्रेषित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला कोई भी उपकरण।
- साइबर कैफे को परिभाषित करने के लिए एक नए अनुच्छेद को प्रविष्ट किया गया है, जिसके अनुसार साइबर कैफे की परिभाषा के तहत ऐसी कोई भी सुविधा, जहां किसी व्यक्ति द्वारा व्यवसाय के रूप में जनता के अन्य सदस्यों को इंटरनेट की पहुंच प्रदान की जाती है।
- मध्यस्थ के लिए एक नई परिभाषा समाविष्ट की गई है।
- एक नया अनुच्छेद 10ए इस प्रभाव से समाविष्ट किया गया है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से पूर्ण किये गए अनुबंधों को केवल इस आधार पर अप्रवर्तनीय नहीं माना जायेगा कि इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप या साधनों का उपयोग किया गया था।
- 2000 के अधिनियम के अनुच्छेद 43 के तहत संगणक, संगणक प्रणाली इत्यादि को हुई क्षति के लिए निर्धारित एक करोड रुपये की क्षतिपूर्ति को हटा दिया गया है और अनुच्छेद के प्रासंगिक भागों को निम्न शब्दों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है ‘‘वह इस प्रकार प्रभावित हुए व्यक्ति को क्षतिपूर्ति के रूप में हर्जाना देने के लिए उत्तरदायी होगा‘‘।
- किसी संगणक संसाधन में, जो किसी निगम निकाय के स्वामित्व का है, उसके द्वारा नियंत्रित होता है या परिचालित होता है, किसी निगम निकाय द्वारा प्राप्त, या सौंपे गए संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा या सूचना के संरक्षण लिए एक नया अनुच्छेद 43 ए प्रविष्ट किया गया है। यदि ऐसा निगम निकाय यथोचित सुरक्षा पद्धतियों प्रक्रियाओं के क्रियान्वयन या रखरखाव में लापरवाह रहा जिसके कारण किसी व्यक्ति को अनुचित लाभ या अनुचित हानि होती है तो वह निगम निकाय प्रभावित व्यक्ति को हर्जाने के रूप में क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए उत्तरदाई होगा।
- अनुच्छेद 66 में अनुच्छेद 66 ए से अनुच्छेद 66 एफ जोडे गए हैं जिनमें अश्लील इलेक्ट्रॉनिक सन्देश भेजने, पहचान की चोरी, संगणक संसाधन का उपयोग करके किसी दूसरे व्यक्ति का अभिनय करके धोखा देना, निजता का उल्लंघन और साइबर आतंकवाद जैसे अपराधों के लिए सजा का निर्धारण किया गया है। मार्च 2015 में, उच्चतम न्यायालय ने धारा 66 । को यह कहते हुए खारिज़ कर दिया कि उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन होता है, अतः वह असंवैधानिक है।
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के अनुच्छेद 67 को संशोधित करके इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से अश्लील सामग्री का प्रकाशन और प्रेषण करने के लिए निर्धारित सजा की अवधि को पांच वर्ष से कम करके तीन वर्ष किया गया है, साथ ही जुर्माने की राशि को एक लाख रुपये से बढ़ाकर पांच लाख रुपये किया। अनुच्छेद 67 ए से अनुच्छेद 67 सी को भी प्रविष्ट किया गया है। जबकि अनुच्छेद 67 ए और 67 बी का संबंध यौनसम्बन्धी प्रकट कृत्यों और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से अश्लील बाल साहित्य के प्रकाशन या प्रेषण से संबंधित अपराधों के दंडात्मक प्रावधानों से है, वहीं अनुच्छेद 67 सी का संबंध मध्यस्थ के उस उत्तरदायित्व से है जिसके तहत उसे केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित सूचना या जानकारी को उसके द्वारा निर्धारित समय तक और निर्धारित स्वरुप में संरक्षित रखना है या बनाये रखना है।
- देश में आतंकवाद के बढते खतरे को देखते हुए नए संशोधनों में एक संशोधित अनुच्छेद 69 शामिल है जो सरकार को अधिकार प्रदान करता है कि वह किसी भी संगणक संसाधन की किसी भी सूचना या जानकारी के अवरोधन, या विकोडन की निगरानी के निर्देश प्रदान कर सकती है। साथ ही दो नए अनुच्छेद 69 ए और 69 बी सरकार को यह अधिकार प्रदान करते हैं कि वह किसी भी संगणक संसाधन के माध्यम से प्रसारित सूचना या जानकारी को जनता तक पहुँचने से अवरुद्ध करने के निर्देश प्रदान कर सकती है और साइबर सुरक्षा की दृष्टि से किसी भी संगणक संसाधन के यातायात डेटा की निगरानी करने या उसे संग्रहित करने के लिए अधि.त कर सकती है।
- अधिनियम का अनुच्छेद 79 जो मध्यस्थों को छूट प्रदान करता था उसे इस प्रभाव से संशोधित किया गया है कि कोई मध्यस्थ किसी तृतीय पक्षीय सूचना डेटा या संचार लिंक के लिए उत्तरदाई नहीं होगा जो उसके द्वारा संग्रहित किया गया है या उसके द्वारा आयोजित किया गया है, यदि
- मध्यस्थ का कार्य केवल एक संचार प्रणाली तक पहुंच प्रदान करने तक सीमित है जिसपर प्रसारित की गई सूचना किसी तीसरे पक्ष द्वारा उपलब्ध की गई है, अस्थाई रूप से संग्रहित की गई है या आयोजित की गई है;
- मध्यस्थ प्रसारण को शुरू नहीं करता या प्रसारण के प्राप्तकर्ता का चयन नहीं करता और प्रसारण में निहित सूचना का चयन करता है या उसे संशोधित करता है;
- मध्यस्थ अपने कर्तव्य करते समय उचित सावधानी बरतता है। हालांकि अनुच्छेद 79 किसी ऐसे मध्यस्थ पर लागू नहीं होगा यदि मध्यस्थ ने या तो धमकी देकर या किसी आश्वासन के कारण किसी गैरकानूनी कृत्य को करने का संपूर्ण गायन प्राप्त होने के बाद भी षड्यंत्र किया है या सहयोग किया है या सहायता दी है या प्रेरित किया है कि उसके द्वारा आयोजित लिंक का उपयोग किसी गैर कानूनी कृत्य के लिए किया जा रहा है, और यदि मध्यस्थ लिंक को तत्काल हटाने या समाप्त करने में असफल रहता है।
12. अनुच्छेद 81 के साथ एक प्रतिबंध जोड़ा गया है जो कहता है कि इस अधिनियम के प्रावधानों का अधिभावी प्रभाव होगा। यह प्रतिबंध कहता है कि अधिनियम में शामिल कुछ भी व्यक्ति को कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अधिकारों का उपयोग करने से प्रतिबंधित करता है।
9.0 ड़िजिटल इंड़िया कार्यक्रम
मोदी सरकार ने अपने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम ‘ड़िजिटल इंड़िया’ की शुरूआत वर्ष 2015 में की। उसका विशाल और महत्वाकांक्षी विस्तार भारत में लेन-देन और शासन में परिवर्तन का आधार बनने का वादा करता है।
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