सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
भारत के संवैधानिक विकास की प्रमुख घटनाएँ
1.0 प्रस्तावना
यूरोपीय शक्तियों के बीच के त्रिकोणीय संघर्ष (फ्रांसीसी, पुर्तगाली और ब्रिटिश) में अंततः ब्रिटिश विजेता के रूप में उभरे। इसके बाद भारत के प्रशासन को दिशानिर्देश देने के कई प्रयास किये गए। ऐसे कई प्रयासों से अधिनियमों और सुधारों की एक श्रृंखला की शुरुआत हुई, जिसका परिणाम था गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935)। मौजूदा संविधान के कई प्रावधान गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 से ही लिए गये हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी को इंग्लैंड में ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ के दिए गए एक चार्टर के तहत स्थापित किया गया था। मुख्य रूप से भारत में व्यापार के अवसरों की खोज में दिलचस्पी रखने वाले एक संगठन से शुरू कर, इसने धीरे-धीरे प्रदेशों का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया।
1.1 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट (विनियमन अधिनियम)
ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अधिक से अधिक प्रदेशों का अधिग्रहण शुरू कर दिया तब ब्रिटिश हुकूमत को लगा कि कंपनी के मामलों को नियंत्रित किया जाना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप रेगुलेटिंग एक्ट ऑफ 1773 को अधिनियमित किया गया।
प्रमुख विशेषताएंः
- कलकत्ता प्रेसीडेंसी में एक गवर्नर जनरल और संयुक्त रूप से अपने अधिकार का प्रयोग करने वाले चार सदस्यों की एक परिषद से बनी एक सरकार को स्थापित किया गया था।
- बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकारें कलकत्ता में स्थापित सरकार के आधीन हो गईं।
- इसने ब्रिटिश क्राउन को बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर क्षेत्राधिकार रखने वाले सर्वोच्च न्यायालय को बंगाल में स्थापित करने में सक्षम किया।
गवर्नर जनरल और परिषद के विधायी अधिकार कुछ सीमाओं के आधीन थेः
- उनके द्वारा बनाये गए नियम और विनियम इंग्लैंड के कानूनों के प्रतिकूल नहीं हो सकते थे,
- उन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा पंजीकरण की आवश्यकता थी, जिसे वीटो करने के शक्ति दी गई थी,
- ब्रिटिश सरकार से उनके विरूद्व एक अपील हो सकती थी, और
- गवर्नर जनरल और परिषद सभी तरह के नियमों को इंग्लैंड को अग्रेषित करने के कर्तव्य के अधीन थे और राजा परिषद परिषदस्थ राजा (किंग-इन-काउंसिल) इन समय अस्वीकृत करने के लिए सक्षम था।
1.2 चार्टर अधिनियम, 1833
सरकार के विधायी कार्यों को पृथक करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा 1833 का चार्टर अधिनियम अधिनियमित किया गया। इसने भारत के स्थापित संवैधानिक ढ़ॉंचे में काफी बदलाव किए। भारत में संवैधानिक शक्ति मात्र परिषद के गवर्नर जनरल (गवर्नर-जनरल-इन-कॉउंसिल) में ही निहित थी। परिषद का गठन चार सदस्यों से मिलकर किया जाना था, जिनमें से एक न्यायिक सदस्य होना था, जो केवल विधायी कार्यों के संचालन के समय परिषद की बैठकों में अधिकारपूर्वक भाग ले सकता था। इस प्रकार परिषद के कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। कार्यकारी कार्यों के संचालन के समय केवल गवर्नर जनरल और तीन सदस्य ही शामिल किये जाने थे, परंतु विधायी कार्यों के संचालन के समय गवर्नर जनरल और चार सदस्य शामिल होते थे। इस अधिनियम ने भविष्य के केंद्रीय विधानमंडल की नींव रखी जिसे साम्राज्यीय विधान परिषद (इंपीरियल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल) भी कहा जाता है।
1.3 चार्टर अधिनियम, 1853
विधायी तंत्र को मजबूत बनाने के लिए 1853 के चार्टर अधिनियम को अधिनियमित किया गया। इस अधिनियम ने विधायी तंत्र को विस्तारित किया। नए अधिनियम के तहत गवर्नर जनरल की परिषद में विधायी कार्य करते समय छह नए सदस्य बढ़ाये गए। इन छह नए सदस्यों में से चार सदस्य मद्रास, मुंबई, बंगाल और उत्तर पश्चिमी प्रदेशों का प्रत्येक का एक प्रतिनिधि, और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक अन्य न्यायाधीश शामिल किये जाने थे। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च सेनापति को भी असाधारण सदस्यता प्रदान की गई थी। इस प्रकार विधान परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़कर बारह हो गई।
1.4 1858 का अधिनियम
1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत में कंपनी की सरकार के अधिकार अपने हाथ में ले लिए। भारत शासन अधिनियम, 1858 अधिनियमित किया गया, जिसके कारण प्रशासनिक और संवैधानिक व्यवस्था में काफी परिवर्तन आया।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएंः
- निदेशक मंडल और नियंत्रण बोर्ड को समाप्त किया गया और उनके अधिकार महारानी के सचिवों में से एक (ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक मंत्री) को सौंपे गए,
- उन्हें भारत के राज्य के सचिव के रूप में नामित किया गया, और भारत में सभी शासकीय मामलों को संचालित, निर्देशित और नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया,
- भारत के राज्य के सचिव की सहायता भारत की एक परिषद द्वारा की जानी थी,
- गवर्नर जनरल और प्रेसीडेंसी के राज्यपालों की नियुक्ति ब्रिटिश शासन द्वारा, और उनकी परिषदों के सदस्यों की नियुक्ति राज्य परिषद के सचिव द्वारा की जानी थी,
- लेटिनेंट गवर्नरों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा महारानी के अनुमोदन के तहत की जानी थी, और अनुबंधित सिविल सेवा में नियुक्ति सिविल सेवा आयोग की सहायता से खुली प्रतियोगिता के माध्यम से की जानी थी।
1.5 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम
1861 में ब्रिटिश शासन ने विधान परिषदों का विस्तार करने का निर्णय लिया। यह कार्य 1861 के भारतीय परिषद अधिनियम के माध्यम से किया गया। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थेः
- विधायी प्रयोजनों के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में दो वर्ष के लिए नामांकित किये जाने वाले 6-12 सदस्यों को शामिल करके इसका विस्तार किया गया,
- कुछ उपायों को शुरू करने के लिए गवर्नर जनरल की पूर्वानुमति आवश्यक थी,
- भारत में विधायिका द्वारा पारित प्रत्येक अधिनियम राज्य की परिषद के सचिव के माध्यम से महारानी के अनुमोदन के अधीन था,
- आपातकालीन स्थिति में गवर्नर जनरल को वीटो का उपयोग करने और अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया गया था,
- कार्यकारी प्रयोजनों के लिए गवर्नर जनरल की परिषद की सदस्य संख्या में एक सदस्य को शामिल करके इसे पांच किया गया।
1.6 भारतीय परिषद अधिनियम, 1892
1885 में कांग्रेस के गठन के बाद भारतीयों ने धीरे-धीरे ब्रिटिश शासन से अधिकाधिक स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दी। इसके परिणामस्वरूप अनेक छोटे-छोटे सुधार किये गए। विधान परिषदों के विस्तार और उन्हें और अधिक मजबूत बनाने के लिए 1892 में एक और अधिनियम पारित किया गया।
इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार थींः
- 8-20 नए सदस्यों को शामिल करके केंद्रीय और प्रांतीय परिषदों की शक्ति का विस्तार किया गया,
- इन अतिरिक्त सदस्यों में पांच में से दो के अनुपात में गैर अधिकारी सदस्य होने थे,
- वार्षिक वित्तीय पत्रक पर चर्चा और प्रश्न पूछने के लिए नियम बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल को प्रदान किया गया बशर्ते इसके लिए राज्य परिषद के सचिव की अनुमति प्राप्त की गई हो।
1.7 भारतीय परिषद अधिनियम, 1909
1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस नरमपंथियों और चरमपंथियों में विभाजित हो गई। दूसरी ओर, क्रांतिकारी विदेशी शासन के अंत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आतंकी गतिविधियों का सहारा ले रहे थे। इस असंतोष को शांत करने के लिए 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम अधिनियमित किया गया।
इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार थींः
(ए) दोनों स्तरों पर विधान परिषदों का विस्तार किया गया।
(बी) केंद्रीय विधान परिषद में शासकीय सदस्यों के बहुमत को बनाये रखा गया।
(सी) इस अधिनियम ने प्रांतीय विधानमंडलों में गैर-शासकीय बहुमत का प्रावधान किया। परंतु फिर भी शासकीय और मनोनीत गैर-शासकीय सदस्यों की संयुक्त संख्या निर्वाचित गैर-शासकीय सदस्यों से कहीं अधिक हो गई।
(डी) इस अधिनियम ने विधान परिषदों के कार्यों का काफी विस्तार किया। इस अधिनियम ने -
- बजट के अनुमोदित होने से पूर्व सदस्यों को बजट पर चर्चा करने और उसपर प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया
- सदस्यों को स्थानीय निकायों, अतिरिक्त अनुदान और नए करों के लिए ऋण से संबंधित विषयों पर प्रस्ताव प्रस्तुत करने, पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति प्रदान की और
- सार्वजनिक हित के मामलों पर चर्चा करने, प्रस्तावों को अपनाने या उनपर मत विभाजन की मांग करने के अधिकार सदस्यों को प्रदान किये, परंतु सदन द्वारा अपनाये गए प्रस्ताव सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं थे।
(ई) पृथक और भेदभावपूर्ण निर्वाचक मंडल की शुरुआत इस अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता थी। प्रतिनिधियों के परिषदों में निर्वाचित होने के लिए निर्वाचकों को वर्ग, समुदाय और हितों के आधार पर विभाजित किया गया था। प्रांतीय परिषदों के लिए मतदाताओं में तीन श्रेणियों का प्रावधान किया गया था, अर्थात, सामान्य, विशेष और वर्ग (जैसे भूस्वामी और वाणिज्य मंडल) केंद्रीय परिषद के लिए एक और श्रेणी, अर्थात मुसलमानों को इसमें जोडा गया।
आय, संपत्ति और शिक्षा के आधार पर मतदाताओं की योग्यता विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न थी।
1.8 1919 का भारत शासन अधिनियम
प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों द्वारा भारत का सहभाग भारतीयों को अधिक अधिकार देने की शर्त पर प्राप्त किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत शासन अधिनियम, 1919 अधिनियमित किया गया।
इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार थींः
(ए) अधिनियम के मुख्य उद्देश्य थेः (1) भारतीय प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों की भागीदारी को बढ़ाने का प्रावधान करना, (2) ब्रिटिश भारत में साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में एक उत्तरदायी शासन की प्रगतिशील अनुभूति के उद्देश्य से स्वशासी संस्थाओं का विकास करना, (3) इस लक्ष्य की ओर क्रमिक प्रगति के समय और स्वरुप का निर्णय ब्रिटिश संसद द्वारा किया जाना था, और (4) तदनुसार, उद्देशिका द्वारा एक विकेंद्रीकृत एकात्मक सरकार का सुझाव दिया।
(बी) कार्यों का वितरणः इस अधिनियम ने सरकार के कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित कियाः केंद्रीय और प्रांतीय। प्रांतीय विषयों को आगे हस्तांतरित और सुरक्षित विषयों में विभाजित किया गया। हस्तांतरित विषयों में विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों द्वारा राज्यपालों को सहायता प्रदान की जानी थी, जबकि आरक्षित विषयों में राज्यपालों को उन पार्षदों द्वारा सलाह प्रदान की जानी थी जो विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं थे। इस प्रकार, प्रांतों में द्विशासन के रूप में सरकार का एक नया रूप प्रस्तुत किया गया। द्विशासन सरकारों का अर्थ है दोहरी शासन व्यवस्था, जैसे जवाबदेह और गैर-जवाबदेह।
(सी) सदस्यों की श्रेणियांः अधिनियम में सदस्यों की तीन श्रेणियों का प्रावधान किया गया थाः निर्वाचित, नामित शासकीय और नामित गैर-शासकीय। पहली श्रेणी में लगभग 70 प्रतिशत सदस्य थे, दूसरी में 10 प्रतिशत और तीसरी श्रेणी में 20 प्रतिशत सदस्य थे। बहुमत निर्वाचित सदस्यों का ही था।
(डी) निर्वाचन क्षेत्र और मताधिकारः अधिनियम में सीमित मताधिकार और सांप्रदायिक मतदाताओं का प्रावधान किया गया था।
मतदान की योग्यता प्रांतवार और उसी प्रांत के भीतर शहरी क्षेत्रों और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भिन्न-भिन्न थी। निर्वाचन क्षेत्रों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया थाःसामान्य निर्वाचन क्षेत्र और विशेष निर्वाचन क्षेत्र। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, आंग्ल-भारतीय, सिक्ख आदि के लिए सीमांकन किया गया था।
विशेष निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान भूधारकों, विश्वविद्यालयों, व्यापार मंड़लों इत्यादि को प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया था।
(ई) केंद्रीय विधानमंडल की सदस्य संख्याः अधिनियम ने केंद्र में द्विसदनीय विधायिका प्रस्तुत की, जिसमें राज्य परिषद और केंद्रीय विधानसभा शामिल थी। पहले सदन में 60 सदस्य होने थे, जिनमें से 33 निर्वाचित सदस्य और 27 नामित सदस्य होने थे। दूसरे सदन में 145 सदस्य शामिल किये जाने थे, जिनमें से 104 निर्वाचित सदस्य और 41 सदस्य नामांकित किये जाने थे।
(एफ) केंद्रीय विधानमंडल के अधिकारः केंद्रीय विधानमंडल को केंद्रीय सूची में प्रगणित विषयों में से किसी भी किसी भी विषय में कानून पर विचार करने, उन्हें पारित करने या उन्हें अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया था। परंतु केंद्रीय विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर अंतिम निर्णय का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया था। उनके पास किसी भी विधेयक या उसके किसी भाग पर इस तर्क पर विचार विमर्श को रोकने का अधिकार था कि यह देश की शांति व्यवस्था के लिए अनिष्टकर या हानिकारक था। वे विधानमंडल में किसी भी प्रश्न को पूछे जाने को अस्वीकृत कर सकते थे। वे किसी भी विधेयक पर अपनी सहमति स्थगित कर सकते थे, जिसके बिना संबंधित विधेयक अधिनियम नहीं बन सकता था। उन्हें किसी भी मामले में स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत करने या बहस रोकने का अधिकार प्राप्त था। उन्हें ऐसा कोई भी कानून पारित करने का अधिकार प्राप्त था जो उनकी दृष्टि से साम्राज्य की सुरक्षा और शांति के लिए आवश्यक था, फिर चाहे विधानमंडल ने उसे पारित करने से इंकार ही क्यों न कर दिया हो। केंद्रीय विधानमंडल की वित्तीय शक्तियां भी काफी सीमित थीं। बजट को मतदेय और गैर-मतदेय नामक दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाना था मतदेय मदों में कुल व्यय का केवल एक तिहाई भाग शामिल था। इस क्षेत्र में भी, यदि गवर्नर जनरल की राय में उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए आवश्यक हो, तो उन्हें ऐसे किसी भी अनुदान को फिर से बहाल करने अधिकार था, जो विधानमंडल द्वारा या तो कम किया गया है या पूर्ण रूप से अस्वीकृत किया गया है।
(जी) प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकारः प्रांतीय विधायिकाओं की सदस्य संख्या प्रत्येक प्रांत के अनुसार भिन्न-भिन्न थी। प्रांतीय विधान परिषदों को प्रांतीय विषयों पर कानून बनाने के अधिकार प्राप्त थे। हालांकि यह अधिनियम कानून बनाने की व्यापक शक्तियों के साथ प्रांतों के राज्यपालों को अधिक अधिकार संपन्न बनाता था। वे किसी भी स्तर पर किसी विधेयक पर चर्चा को इस आधार पर रोक सकते थे कि यह प्रांत की शांति की दृष्टि से अनिष्टकर था। उन्हें किसी भी विधेयक को पुनर्विचार के लिए सदन को वापस करने का अधिकार था या वे विधेयक को गवर्नर जनरल के विचार के लिए सुरक्षित भी कर सकते थे, जो इसे ब्रिटिश शासन की राय के लिए सुरक्षित रख सकते थे। राज्यपाल को विधान परिषद द्वारा पारित किसी भी विधेयक को प्रत्यादेश (वीटो) करने का भी अधिकार था। यदि विधान परिषद सुरक्षित विषयों से संबंधित किसी विधेयक को प्रस्तुत करने से इंकार करती थी या उसे पारित करने में असफल होती थी तो राज्यपाल अपनी प्रमाणीकरण की शक्ति द्वारा उसे इस आधार पर पारित कर सकते थे कि यह उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन की दृष्टि से आवश्यक था। इस अधिनियम ने प्रांतीय विधान परिषदों को प्रांतों की वित्तीय व्यवस्था में कुछ हद तक नियंत्रण के अधिकार प्रदान किये थे परंतु उनकी वित्तीय शक्तियां अत्यधिक संकुचित और राज्यपाल की विशेष शक्तियों से घिरी हुई थीं। बजट को दो भागों में विभाजित किया गया था। गैर मतदेय मद, जिनपर सदन में केवल सकती थी, जो कुल बजट के लगभग 70 प्रतिशत थे। बजट के शेष 30 प्रतिशत में अनुदान की मांगें शामिल होती थीं जिन्हें सदन द्वारा खारिज़ किया जा सकता था, परंतु राज्यपाल द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक प्रमाणित होने पर इन्हें बहाल करने का अधिकार राज्यपाल के पास बनाये रखा गया था। आपातकालीन स्थिति में राज्यपाल को किसी भी मद पर किसी भी व्यय को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार प्राप्त था।
(एच) कार्यकारी परिषदः यह राज्य के सचिव के प्रति उत्तरदायी थी न कि केंद्रीय विधानमंडल के प्रति। गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद सदस्य संख्या पर लगाई गई अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया था। प्रमुख सेनापति के अतिरिक्त गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद के छह सदस्यों में से तीन भारतीय सदस्य होना आवश्यक था। भारतीय उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता को न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्त करने के लिए पात्रता प्रदान की गई थी।
(आई) भारत के राज्य सचिवः केंद्रीय और प्रांतीय प्रशासन से भारत के राज्य सचिव का नियंत्रण कम कर दिया गया था।
1.9 1935 का भारत शासन अधिनियम
साइमन कमीशन, गांधी-इर्विन समझौते, पूना समझौते और गोल मेज सम्मेलनों के भारतीय विरोध ने भारत शासन अधिनियम, 1935 पृष्ठभूमि तैयार की। यह भारत के प्रशासन के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा निर्मित सर्वाधिक व्यापक और विस्तृत विधान था। जैसा पहले उल्लेख किया गया है, भारत के वर्तमान संविधान में इस अधिनियम की अनेक विशेषताओं को शामिल किया गया है।
इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार थींः
(ए) यह एक व्यापक और विस्तृत दस्तावेज था। इसमें 321 अनुच्छेद और 10 अनुसूचियां शामिल थीं। इसमें न केवल केंद्रीय तंत्र बल्कि इसकी इकाइयों का भी विस्तार से वर्णन किया गया था।
(बी) इस अधिनियम ने बार भारत में राजनीति के एक संघीय स्वरुप की शुरुआत की। महासंघ की इकाइयां दो श्रेणियों में विभाजित की गई थींः (ब्रिटिश) भारतीय प्रांत, और शाही रियासतें (इन्हें देशी राज्यों के रूप में भी जाना जाता था)।
(सी) इस अधिनियम ने सरकार के कार्यों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया था। संघीय सूची में 59 विषय शामिल किये गए थे, प्रांतीय सूची में 54 विषय, जबकि समवर्ती सूची में 36 विषय समाहित थे। संघीय और प्रांतीय सरकारों का क्रमशः संघीय और प्रांतीय सूचियों में समाहित विषयों पर अनन्य अधिकारक्षेत्र था, जबकि समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर संघीय और प्रांतीय, दोनों सरकारें कानून बना सकती थीं। यहां ध्यान देने लायक दिलचस्प बात यह है कि देशी राज्यों में संघीय विधानमंडल का क्षेत्राधिकार संघीय सूची में शामिल सभी विषयों में विस्तारित नहीं था। इस अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक राज्य के शासक को परिग्रहण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करना आवश्यक था, जिसमें इस बात का उल्लेख होता था कि संबंधित शासक संघीय सरकार को अंपने अधिकार समर्पित करने के लिए किस हद तक सहमत थे।
(डी) इस अधिनियम के अनुसार ऐसा महासंघ तभी अस्तित्व में आ सकता था जब उतनी शाही रियासतें (जिन्हें महासंघ में शामिल होने या नहीं होने का विकल्प दिया गया था) इसमें शामिल होना स्वीकार करेंगी जो संघीय विधायिका के उच्च सदन में राज्य की कुल सीटों के आधे के लिए पात्र थीं साथ ही जिनकी जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या की आधी थी।
(ई) प्रस्तावित संघीय राजनीति व्यवस्था में केंद्र में एक द्विसदनी विधायिका रखी जानी थी। उच्च सदन को राज्य परिषद कहा जाना था। इसमें 260 सदस्य होने थे, जिनमें से 156 सदस्य प्रांतों और 104 सदस्य देशी राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए थे। प्रांतों के इन 156 प्रतिनिधियों में से 150 सदस्य सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचित किये जाने थे। हिंदुओं, मुस्लिमों और सिक्खों के लिए निर्धारित स्थानों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से भरा जाना था, जबकि अंग्रेजों, आंग्ल-भारतीय समुदाय और भारतीय ईसाईयों के लिए आरक्षित स्थानों को प्रांतीय विधानसभाओं में अपने समुदाय के सदस्यों से मिलकर बने निर्वाचक मंडल द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन से भरा जाना था। शेष छह सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा नामांकित किये जाने थे। यह जानना दिलचस्प होगा कि एक राज्य के लिए आवंटित स्थानों की संख्या उस राज्य की जनसंख्या पर नहीं बल्कि राज्य के सापेक्ष अनुक्रम और महत्त्व पर निर्भर थी। राज्य परिषद एक स्थायी सदन था। इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक तीन वर्षों में निवृत्त होने थे। निचले सदन को संघीय सभा कहा जाना था। इसकी सदस्य संख्या 375 रखी गई थी, जिनमें से 250 सदस्य प्रांतों का और 125 सदस्य शाही रियासतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए थे। रियासतों के प्रतिनिधि उनके शासकों द्वारा नामांकित किये जाने थे, जबकि प्रांतों का प्रतिनिधित्व सांप्रदायिक आधार पर प्रांतीय विधान परिषदों द्वारा अप्रक्ष्य निर्वाचन द्वारा किया जाना था। यहां यह जानकारी दिलचस्प है कि रियासतों को आवंटित स्थान उनकी जनसंख्या से कहीं अधिक थे। इसी प्रकार, प्रांतों में विभिन्न समुदायों के लिए आवंटित स्थान भी उनकी जनसंख्या से कहीं अधिक थे। विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का था, परंतु इसके पूर्व भी इसे भंग किया जा सकता था।
(एफ) संघीय विधायिका संघीय और समवर्ती सूचियों में शामिल किये गए सभी विषयों पर कानून बना सकती थी। आपातकालीन स्थिति में, या दो या इससे अधिक राज्यों द्वारा ऐसा करने का अनुरोध करने पर संघीय विधायिका को प्रांतीय सूची में शामिल विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया था। हालांकि शाही रियासतों में इसके अधिकार उतने ही थे जितने का परिग्रहण समझौते में उल्लेख किया गया था। कोई भी विधेयक तब तक कानून का स्वरुप प्राप्त नहीं कर सकता था जब तक कि इसे दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं किया गया हो, साथ ही उसे गवर्नर जनरल की स्वी.ति प्राप्त नहीं हो गई हो। दोनों सदनों में मतभेद की स्थिति में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन का भी प्रावधान किया गया था। गवर्नर जनरल को संघीय विधायिका द्वारा पारित किसी भी विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार था। हालांकि दोनों सदन प्रश्न प्रस्तुत करके या स्थगन प्रस्ताव या अन्य प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यकारी पर कुछ हद तक नियंत्रण करते थे, परंतु केवल संघीय सभा ही मंत्रियों के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव को पारित कर सकती थी। दोनों सदनों की वित्तीय शक्तियां लगभग समान थीं, अंतर केवल इतना था कि धन विधेयक केवल संघीय सभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते थे। परंतु इस अधिनियम ने संघीय विधायिका को अत्यंत सीमित वित्तीय अधिकार प्रदान किये थे। अधिनियम ने बजट को दो भागों में विभाजित किया था। बजट के पहले भाग में 80 प्रतिशत ऐसा व्यय शामिल था जो संघीय विधायिका के अधिकारक्षेत्र से बाहर था। शेष 20 प्रतिशत के लिए विधायिका की मंजूरी आवश्यक थी, परंतु यहां भी विधायिका द्वारा पारित कटौतियों या अस्वीकृतियों को बहाल करने का अधिकार गवर्नर जनरल के पास था।
(जी) इस अधिनियम ने संघीय स्तर पर द्विशासन की शुरुआत की। संघीय विषयों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था रू आरक्षित और स्थानांतरित। विदेश मंत्रालय, चर्च संबंधी मामले और जनजातीय क्षेत्र आरक्षित विषयों की सूची में शामिल थे। इन मामलों में गवर्नर जनरल को विवेकाधीन शक्तियां प्राप्त थीं, अर्थात, वे स्वयं उनके द्वारा नियुक्त किये गए पार्षदों की सलाह पर काम करते थे। यहां तक कि इन मामलों में उन्हें मंत्री परिषद से परामर्श करने की भी आवश्यकता नहीं थी। जो विषय उपरोक्त सूची में शामिल नहीं थे उन्हें हस्तांतरित विषयों में शामिल किया गया था। ये विषय संघीय विधायिका के मंत्रियों के प्रभार में होते थे। परंतु कुछ मामलों में गवर्नर जनरल को व्यक्तिगत निर्णय से संबंधित शक्तियां प्राप्त थीं। इन अधिकारों के क्रियान्वयन में उन्हें मंत्री परिषद से परामर्श करना आवश्यक था, परंतु वे उनकी सलाह मानने के लिएबाध्य नहीं थे।
(एच) अधिनियम में एक मुख्य न्यायाधीश और अधिकतम छह अन्य न्यायाधीशों से गठित एक संघीय न्यायालय का भी प्रावधान था। इनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जानी थी और उन्हें 65 वर्ष की आयु प्राप्त होने पर सेवा निवृत्त होना था। परंतु दुर्व्यवहार या शारीरिक या मानसिक दुर्बलता के आरोप में इंग्लैंड के सम्राट द्वारा प्रिवि कॉउंसिल की न्यायिक समिति की सिफारिश पर पहले भी हटाया जा सकता था। न्यायालय को मौलिक, अपीलीय और सलाहकारी क्षेत्राधिकार थे। यह एक रिकॉर्ड का न्यायालय भी था। परंतु यह न्यायालय सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय नहीं था। इस न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध इंग्लैंड की प्रिवी कॉउंसिल में अपील दायर की जा सकती थी।
(आई) इस अधिनियम ने भारत शासन अधिनियम, 1919 द्वारा शुरू किये गए दुहरे शासन को समाप्त किया और प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत की। तदनुसार, राज्यपालों को व्यक्तिगत निर्णय के अपने विवेकाधीन अधिकारों या अधिकारों के प्रयोग की स्थिति को छोड़कर आमतौर पर प्रांतीय विधायिका के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों की परिषद की सलाह पर कार्य करना होता था। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि अधिनियम में राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों का विस्तृत विवरण नहीं दिया गया था। यह निर्णय राज्यपालों को अपने स्वयं के विवेक के आधार पर करना था कि उनकी विवेकाधीन शक्तियां क्या होंगी। इस प्रकार राज्यपाल अपने अधिकारों का दुरूपयोग और प्रांतीय स्वायत्तता को एक मजाक बना सकते थे।
(जे)अधिनियम में छह प्रांतों में द्विसदनी और पांच प्रांतों में एक सदनी विधानमंडलों का प्रावधान किया गया था। निचले सदन को विधानसभा और उच्च सदन को विधान परिषद कहा जाना था। उच्च सदन और निचले सदन की सदस्य संख्या प्रांतवार भिन्न-भिन्न थी। इस अधिनियम ने विधानसभाओं से नामित सदस्यों की श्रेणियों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया, परंतु विधान परिषदों में कुछ नामित सदस्यों को रखा जाना जारी रखा। अधिनियम ने दोनों सदनों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन का सुझाव दिया। विभिन्न समुदायों के लिए स्थानों का आवंटन पूना समझौते द्वारा और यथा संशोधित रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा दिए गए कुप्रसिद्ध सांप्रदायिक अधिनिर्णय पर आधारित था। इस योजना का बुनियादी सिद्धांत यह था कि किसी समुदाय के लिए आरक्षित स्थानों पर उस समुदाय के प्रत्याशियों द्वारा ही चुनाव लड़ा जा सकता था, और उनका निर्वाचन केवल उस समुदाय के सदस्यों द्वारा ही किया जाना था।
(के)प्रांतीय विधायिकाओं को न केवल प्रांतीय सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने के अधिकार प्राप्त थे बल्कि समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर भी कानून बनाने के अधिकार प्राप्त थे। परंतु प्रांतीय कानून समवर्ती विषय पर निर्मित संघीय कानून के विरुद्ध नहीं हो सकता था। किसी टकराव की स्थिति में संघीय कानून ही प्रबल था। प्रांतीय विधायिकाओं की विधायी शक्तियों की कुछ सीमाएं थीं। कुछ मामलों में किसी विधेयक को विधानसभा में प्रस्तुत करने से पूर्व गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। इस श्रेणी में ब्रिटिश संसद के अधिनियम से संबंधित विधेयक या गवर्नर जनरल या राज्यपाल से संबंधित या राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को प्रभावित करने वाले विधेयक आते थे। दोनों सदन प्रश्न, पूरक प्रश्न पूछकर या स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत करके प्रांत के कार्यकारी पर कुछ नियंत्रण स्थापित कर सकते थे, परंतु विधायिकाओं का नियंत्रण इस दृष्टि से काफी अधिक था कि वे मंत्री परिषद के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित कर सकती थीं। विधायिकाओं को कुछ सीमित वित्तीय शक्तियां भी प्रदान की गई थीं। प्रांतों के बजट को मतदेय और गैर-मतदेय मदों में विभाजित किया गया था। मतदेय मद कुल व्यय के 30 प्रतिशत थे जबकि गैर-मतदेय मद बजट के 70 प्रतिशत होते थे। यहां तक कि मतदेय श्रेणी में भी राज्यपाल विधायिका द्वारा पारित किसी कमी या कटौती को उस स्थिति में फिर से बहाल कर सकते थे जब इसे प्रांत के कुशल प्रशासन की दृष्टि से आवश्यक माना जाता था। उपरोक्त के अतिरिक्त भी, इस अधिनियम में भारत परिषद के उन्मूलन, भारत से बर्मा का पृथक्करण, संघीय रेलवे के निर्माण, एक महाधिवक्ता और वित्तीय सलाहकार की नियुक्ति के प्रावधान किये गए थे।
2.0 उपसंहार
द्वितीय विश्व युद्ध के समापन से भारत में ऐसी अनेक घटनाओं को अनुभव किया गया जिनके परिणामस्वरूप अंततः भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। इनमें भारत छोड़ो आंदोलन, आजाद हिंद फौज के मुकदमे और शाही भारतीय नौसेना द्वारा किया गया विद्रोह मुख्यतः शामिल थीं। 1945 में इंग्लैंड में हुए शासन परिवर्तन ने भी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत को गति प्रदान की।
इस संदर्भ में क्रिप्स मिशन, कैबिनेट मिशन योजना, माउंटबेटन योजना और 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना प्रासंगिक और आवश्यक है।
COMMENTS