सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
काल चक्र एवं प्रारंभिक सभ्यताएं भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
पृथ्वी की आयु लगभग 4000 मिलियन वर्ष है (अर्थात 400 करोड़ वर्ष)। इसकी परत के विकास के चार चरण सामने आते हैं।
चौथे चरण को चतुर्भागात्मक कहा जाता है जो प्लीस्टोसीन (निवर्तमान) और होलोसीन (हिमविहीन युग) में विभाजित किया गया है; पहले चरण का अस्तित्व 10,00,000 से 10,000 वर्षों पूर्व तक था और दूसरा चरण लगभग 10,000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ। यह माना जाता है कि धरती पर मनुष्य प्रजाति के जीवन की शुरूआत प्रारंभिक हिमयुग से हुई, जब बैल, हाथी और घोड़े का भी जन्म हुआ। किंतु अब यह प्रतीत होता है कि यह घटना लगभग 26 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में घटित हुई होगी।
प्रारंभिक मानवों के जीवाश्म भारत में नहीं पाये गये हैं। प्रारम्भिक मानव की उपस्थिति का एक संकेत पत्थर के औजारों से प्राप्त होता है जो द्वितीय हिमाच्छादन में जमा किये हुए माने जा सकते हैं, जो लगभग 2,50,000 ई.पू. पुराने माने जाते हैं। हालांकि बोरी (महाराष्ट्र) से हाल में प्राप्त कलाकृतियों से ज्ञात होता है कि प्रारंभिक मनुष्य का उदय 1.4 मिलियन वर्षां पूर्व हुआ था। वर्तमान में ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में सभ्यता का विकास अफ्रीका के पश्चात हुआ, यद्यपि उपमहाद्वीप की चट्टानी प्रौद्योगिकी का विकास भी उसी तरह हुआ था जैसा कि अफ्रीका में। भारत में प्रारंभिक मानव पत्थर से बने नुकीले हथियारों का उपयोग करते थे जो सिंधु, गंगा, यमुना नदी के जलोढ़ मैदानों को छोड़कर लगभग सारे भारत में पाये गये हैं। पत्थर से बने नुकीले हथियार और नुकीले कंकर शिकार और काटने के अतिरिक्त भी कई उद्देश्यों से उपयोग में लाये जाते थे। इस दौर में मनुष्य केवल शिकार पर जीता था और उसे अपने भोजन को संग्रहित करने का संघर्ष करना पड़ता था। उसके पास कृषि और भवन निर्माण का भी ज्ञान नहीं था। सामान्यत यह माना जाता है कि यह चरण 9000 ई.पू. तक जारी रहा।
2.0 पुरापाषाण युग
पुरापाषाणकालीन औजार, जो लगभग 1,00,000 ई.पू. पुराने हो सकते हैं, छोटा नागपुर के पठार में पाये गये हैं। ऐसे औजार जो 20,000-10,000 ई.पू. दौर के हैं, आंध्रप्रदेश के कुरनूल जिले में पाये गये हैं। इनके साथ हड्ड़ियों के औजार और जानवरों के अवशेष भी पाये गये हैं। उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलन घाटी में प्राप्त जानवरों के अवशेष बताते हैं कि उस युग में भी बकरी, भेड़ और मवेशियों का पालन किया जाता था। हालांकि, पुरापाषाणकाल में मनुष्य शिकार के माध्यम से ही भोजन इकट्ठा करता था। पुराण बताते हैं कि ऐसे मनुष्यों का भी दौर था जो कंद और मूल खाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे; इनमें से कुछ मनुष्य आज भी पहाड़ियों और गुफाओं मे रहकर प्राचीन तरीके से जीवन जी रहे हैं।
भारत में पुरापाषाणकालीन संस्कृति का विकास हिमयुग के प्रतिनूतन चरण (प्लीस्टोसीन) में हुआ। यद्यपि अफ्रीका में पाये गये पत्थर के औजारों और मानव अवशेषों को 26 मिलियन वर्ष पुराना माना जाता है, भारत में मानव विकास के प्रारंभिक चिन्ह, जैसा कि पत्थर के औजारों से संकेत मिलता है, मध्य पुरापाषाण काल से ज्यादा पुराने नहीं हैं। पुरापाषाण चरण में पृथ्वी के एक बड़े हिस्से को बर्फ की चादर ने ढंक लिया था, विशेषकर उच्च उन्नातांश और उनकी परिधियों को। किंतु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र, पहाड़ों को छोड़कर, बर्फ से मुक्त थे। दूसरी ओर, ये क्षेत्र भारी वर्षा के दौर से गुजरे।
2.1 पुरापाषाण काल के चरण
भारत में पुरापाषाण काल को तीन चरणों में विभाजित किया जाता है, जिसमें लोगों के द्वारा उपयोग किये गये पत्थरों के औजारों की प्रकृति और वातावरण की प्रकृति को आधार मानते हैं। पहले चरण को प्रारंभिक या निम्न पुरापाषाणयुग, दूसरे को मध्य पुरापाषाणयुग और तृतीय को उपरि पुरापाषाण कहा जाता है। जब तक बोरी से प्राप्त कलाकृतियों के बारे में पर्याप्त सूचनायें उपलब्ध नहीं होती हैं, तब तक उपलब्ध वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर, पहले चरण को 2,50,000 ई.पू. से 1,00,000 ई.पू. के बीच रखा जा सकता है; द्वितीय चरण को 1,00,000 ई.पू. से 40,000 ई.पू., और तृतीय चरण को 40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू के बीच विभाजित किया जा सकता है।
निम्न पुरापाषाण या प्रारंभिक प्राचीनतम पत्थर का युग, हिमयुग का अधिकांश हिस्सा घेरता है। इस दौर की प्रमुख विशेषताओं में हाथ से बनी कुल्हाड़ी, बड़े चाकू और छुरे का उपयोग है। भारत में पाई जाने वाली कुल्हाड़ी पश्चिमी एशिया, यूरोप और अफ्रीका में पाई जाने वाली कुल्हाड़ियों के लगभग समान है। पत्थर के औजारां को मुख्य रूप से कटाई करने के लिए, खोदने के लिए और जानवरों की चमड़ी निकालने के लिए उपयोग में लाया जाता था। प्रारंभिक प्राचीनतम पत्थर के युग के केन्द्र सोन नदी घाटी पंजाब में पाये जाते हैं जो अब पाकिस्तान में है। कुछ केन्द्र कश्मीर और थार मरूस्थल में पाए गये हैं। निम्न पुरापाषाणकालीन औजार, उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलम घाटी में पाये गये हैं। राजस्थान के डीडवाना मरूस्थलीय क्षेत्र में पाये गये औजारों, बेलम और नरिनाड़ा घाटियों में पाये गये, तथा भोपाल के निकट भीमबेटका की गुफाओं में प्राप्त अवशेष लगभग 1,00,000 ई.पू. के हैं। चट्टानों के नीचे बने आवास सम्भवतः वर्षा से बचने के लिए उपयोग किये जाते होंगे। हाथ से बनी कुल्हाड़ियों का संग्रहण द्वितीय हिमालय हिमाच्छादन के दौरान हुआ। इस कालखंड में वातावरण थोड़ा कम नम हो गया था।
मध्यपाषाणकालीन उघोग/श्रम मुख्यतः पत्थर की पपड़ी पर आधारित है। ये पपड़ी भारत के विभिन्न हिस्सों में पाये जाते हैं जिनमें क्षेत्रीय भिन्नतायें भी प्रतीत होती हैं। प्रमुख औजारों में धारदार, नुकीले, छेद करने वाले और पत्थर की पपड़ी से बने हथियार हैं। हमें कई जगह यह हथियार और औजार बड़ी मात्रा में मिलते हैं। मध्य पुरापाषाणकालीन चरण के भौगोलिक केन्द्र लगभग वहीं पाये जाते हैं जहाँ पर निम्न पुरापाषाणकालीन चरण के। यहाँ हमें कंकरों के बहुतायत में उपयोग की जानकारी मिलती है, जो तृतीय हिमालय हिमाच्छादन युग की समकालीन है। इस दौर की कलाकृतियाँ नर्मदा नदी के किनारों पर और तुगंभद्रा नदी के दक्षिण में भी पाई जाती हैं।
उपरी पुरापाषाण चरण तुलनात्मक रूप से कम नम था। यह हिमयुग के उस आखरी दौर के लगभग समानांतर था जो तुलनात्मक रूप से गर्म हो गया था। विश्व संदर्भ में यह यह चकमक पत्थर के उपयोग की शुरूआत का दौर था जब आधुनिक मानव होमो-सेपियन्स का उदय भी होने लगा था। भारत में, नुकीले और धारदार औजारों का उपयोग आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केन्द्रीय मध्य प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी बिहार और उससे लगे क्षेत्रों में होने लगा था। भोपाल से 45 कि.मी. दूर भीमबेटका में उच्च पुरापाषाणकाल की गुफाएँ पाई गई हैं। गुजरात में भी उच्च पुरापाषाणकाल के औजारों से मिलते-जुलते हथियार जो तुलनात्मक रूप से बड़े हैं, जैसे कि बड़े धारदार चाकू नुकीले भाले आदि पाये गये हैं।
इस प्रकार ऐसा लगता है कि पुरापाषाणकाल केन्द्र मुख्यतः पहाड़ी ढलानों और नदी घाटियों में पाये जाते हैं; वे सिंधु और गंगा के जलोढ़ मैदानों में उपस्थित नहीं हैं।
2.2 मध्यपाषाण काल : शिकारियों और चरवाहों का दौर
उच्च पुरापाषाणकाल का अंत लगभग 9000 ई.पू. हिमयुग की समाप्ति के साथ हो गया, और वातावरण गर्म और शुष्क हो गया। वातावरणीय परिवर्तनों के कारण वनस्पति में भी परिवर्तन होने लगे जिसके कारण मनुष्यां के लिए यह सम्भव होने लगा कि वे नये क्षेत्रों की ओर आगे बढं़े। तब के बाद से वातावरण में कोई बड़े परिवर्तन नहीं हुए हैं। 9000 ई.पू. से पाषाण युग संस्कृति में एक मध्यवर्ती परिवर्तन देखने को मिलता है जिसे मध्यपाषाण काल कहा जाता है। यह दौर पुरापाषाण काल और नवपाषाणकाल के बीच एक संक्रमणकालीन दौर के रूप में प्रकट होता है। मध्यपाषाणकलीन लोग शिकार, मछली पकड़ना और भोजन को एकत्रित करना सीख गये थे और बाद के चरणों में वे पशुपालन भी करने लगे थे। इनमें से पहले तीन व्यवसाय तो उत्तर पाषाणकलीन दौर से ही जारी थे, जबकि अंतिम व्यवसाय नवपाषाण संस्कृति से संबंधित है।
मध्यपाषाणकालीन दौर के औजारों की एक प्रमुख विशेषता उनका सूक्ष्म पाषाण होना था। मध्यपाषाणकालीन केन्द्र बड़ी संख्या में राजस्थान, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य और पूर्वी भारत तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में पाये जाते हैं। इनमें से राजस्थान में स्थित बागोर में उत्खनन बहुत अच्छे से किया गया है। यहाँ सूक्ष्म औजारों की उपस्थिति बड़ी संख्या में पाई गई है और यहां के निवासी शिकार तथा पशुपालन से अपना जीवन व्यापन करते थे। यह केन्द्र पाचवीं मिलेनियम ई.पू. से ही उपयोग में लाया जा रहा था। मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान में बागोर केन्द्र पशुपालन के प्रारम्भिक प्रमाण उपलब्ध कराते हैं; यह लगभग 5000 ई.पू के दौर के हो सकते हैं। सांभर झील से प्राप्त अवशेषों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजस्थान में कृषि लगभग 7000 से 6000 ई.पू. प्रारंभ हुई।
इस प्रकार अभी तक मध्यपाषाणकलीन युग का वैज्ञानिक रूप से समय निर्धारण केवल कुछ ही जगह हो पाया है। मध्यपाषाणकालीन संस्कृति 9000 ई.पू. से 4000 ई.पू. तक जारी रही। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसने नवपाषाण संस्कृति के उदय मार्ग को प्रशस्त किया।
2.3 प्रागैतिहासिक कला
उत्तरपाषाण काल और मध्यपाषाण काल के लोग चित्रकला जानते थे। प्रागैतिहासिक कला कई जगहों पर प्रकट होती है किंतु मध्य प्रदेश में भीमबेटका इसका एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। भोपाल से 45 कि.मी. दक्षिण में, विंध्य की पहाड़ियों में स्थित, इस स्थल पर 500 से ज्यादा चित्रित चट्टानें पाई जाती हैं जो लगभग 10 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैली हुई हैं। यह चट्टानी चित्रकला उत्तरपाषाणकालीन से मध्यपाषाणकलीन दौर तक की है और कहीं कहीं तो यह नवीन समय तक की हैं। किंतु अधिकांश चट्टानें मध्यपाषाणकालीन समय से संबंधित हैं। कई पक्षी, पशु और मनुष्यों के चित्र बनाये गये हैं। स्पष्ट तौर पर अधिकांश पशु और पक्षी जो चित्रों में प्रकट होते हैं वहीं हैं जिनका भोजन के लिए शिकार किया जाता था। ऐसे पक्षी जो अनाज खाकर जीते थे, प्रारम्भिक चित्रों में दिखाई नहीं देते हैं जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह शिकारियों का समाज था।
यह जानना रोचक है कि उत्तरी विंध्य की बेलन घाटी में तीनों चरण-पुरापाषाण मध्यपाषाण और नवपाषाण क्रम में पाये जाते हैं। ठीक यही सब कुछ नर्मदा घाटी के मध्य में भी होता है। किंतु नवपाषाणकालीन संस्कृति ने मध्यपाषाणकालीन संस्कृति की जगह ले ली, जो 1000 ई.पू. के लौह युग की शुरूआत तक जारी रही।
2.4 नवपाषाण काल : खाद्य उत्पादक
विश्व संदर्भ में नवपाषाण काल 9000 ई.पू. से प्रारंभ हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाली एकमात्र नवपाषाणकालीन बसावट 7000 ई.पू. के दौर की है जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के मेहगढ में स्थित है। 5000 ई.पू में, प्रारंभिक अवस्था में, इस स्थल के लोग किसी प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का उपयोग नहीं करते थे। विंध्य घाटी के उत्तरी ढलानों में भी कुछ नवपाषाणकालीन स्थल पाये जाते हैं जो 5000 ई.पू. के हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में पाई जाने वाली नवपाषाण कालीन बस्तियां 2500 ई.पू. से ज्यादा पुरानी नहीं हैं; दक्षिणी और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में भी यह स्थल 1000 ई.पू. तक के हो सकते हैं।
इस युग के लोग चमकदार पत्थरों से बने औजारों का उपयोग करते थे। वे मुख्य रूप से पत्थर से बनी कुल्हाड़ियों का उपयोग करते थे जो देश के पहाड़ी ढलानों वाले स्थलों में बड़ी संख्या में पाई गई हैं। लोगों द्वारा इस धारदार औजार का उपयोग कई तरह से किया जाता था, और प्राचीन पुराणों में परशुराम एक ऐसे नायक के रूप में उभरे जिनके हाथों में यह हथियार हुआ करता था। परशुराम (विष्णु के अवतार व शिव के भक्त थे।)
नवपाषाणकालीन निवासियों के द्वारा उपयोग में लाये जाने वाली कुल्हाड़ियों के प्रकार के आधार पर, हमें नवपाषाणकालीन सभ्यता के तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र देखने को मिलते हैं- उत्तर-पश्चिमी, उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी। उत्तर-पश्चिमी नवपाषाणकालीन औजारों का समूह आयताकार कुल्हाड़ियां, जिनकी धार अर्द्ध-गोलाकार होती थी, को प्रदर्शित करता है। उत्तरपूर्वी समूह चमकदार पत्थरों से बनी ऐसी कुल्हाड़ियाँ दर्शाता है जो आयताकार होने के साथ-साथ उसमें लम्बी छड़ भी होती थी। दक्षिणी समूह ऐसी कुल्हाड़ियों के लिए प्रसिद्ध है जो अण्डाकार होती थीं और जिनके किनारे नुकीले होते थे।
उत्तर पश्चिम में, कश्मीरी नवपाषाण संस्कृति इसकी सिरेमिक बर्तनों, पत्थरों और हड्डियों के विभिन्न प्रकार के औजारों तथा गुफानुमा निवासों के लिए प्रसिद्ध है, और इस दौर में सूक्ष्म पाषाण बिल्कुल नहीं पाये जाते। इसका एक महत्वपूर्ण स्थल बुर्जहोम है जिसका अर्थ होता है ‘जन्म स्थान‘ और यह श्रीनगर से 16 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में स्थित है। नवपाषाणकलीन लोग यहां एक झील के किनारे बने गड्ढ़ों मे रहते थे और वे शायद शिकार और मछली मारकर अपना जीवन व्यापन करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कृषि से परिचित थे। गुफ्कराल जिसका अर्थ होता है ‘कुम्हार की गुफा‘ के लोग, कृषि और पशुपालन दोनों ही व्यवसाय करते थे, यह स्थल श्रीनगर से 41 कि.मी. दक्षिण पश्चिम में है। कश्मीर में नवपाषाणकलीन लोग न केवल चमकीले पत्थरों से बने औजारों का उपयोग करते थे बल्कि यह जानना और भी रोचक होगा कि वे कई ऐसे औजारों और हथियारां का उपयोग करते थे जो हड्डियों से बने होते थे। पटना से 40 कि.मी. पश्चिम में गंगा के उत्तरी तट पर स्थित चिरंद एक मात्र ऐसा स्थल है जहाँ उल्लेखनीय मात्रा में हड्डियों से बनी चीजें पाई जाती है। हिरण के सींगों से बने यह औजार उन नवपाषाणकालीन स्थलों पर पाये जाते हैं जहाँ वर्षा 100 सें.मी. के आसपास होती है। यहाँ पर निवास इसलिए संम्भव हो सका क्योंकि यहाँ चार नदियाँ - गंगा, सोन, घाघरा, और गंडक मिलती है तथा खुली जगह उपलब्ध है। यह स्थल इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि यहां पत्थर के औजार कम मात्रा में पाये जाते हैं।
बुर्जहोम के लोग भद्दे, अपरिष्कृत धूसर बर्तनों का उपयोग करते थे। यह रोचक है कि बुर्जहोम में पालतु कुत्ते उनके मालिकों के साथ कब्र में दफनाये जाते थे। भारत के किसी और क्षेत्र में नवपाषाणकलीन लोगां के बीच यह परम्परा नहीं पाई जाती है। बुर्जहोम का प्रारंभिक समय 2400 ई.पू ज्ञात होता है किंतु चिरंद से प्राप्त हड्ड़ियां 1600 ई.पू. से ज्यादा पुरानी प्रतीत नहीं होती हैं, और सम्भ्वतः वे ताम्र-पत्थर दौर की होनी चाहिए।
नवपाषाणकालीन लोगों का दूसरा समूह दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में रहता था। वे सामान्यतः पहाड़ियों के शिखर पर या नदियों के किनारे पठारों पर रहते थे। वे पत्थर की कुल्हाड़ियां और पत्थर से बने धारदार चाकू का इस्तेमाल करते थे। पके हुए मिट्टी के बर्तन यह दर्शाते हैं कि वे बड़ी संख्या में मवेशी भी रखते थे। वे गाय, भैंस, भेढ़ और बकरियां पालते थे। वे पत्थर से बनी चक्की का उपयोग करते थे जो यह दर्शाता है कि वे खाद्य उत्पादन के बारे में जानते थे।
तीसरा क्षेत्र जहाँ नवपाषाणकालीन उपकरण पाये गये हैं वह है आसाम घाटी। नवपाषाणकालीन उपकरण भारत के उत्तरपूर्व सीमांत पर स्थित मेघालय की गारो घाटी में पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त हमें विंध्य घाटी के उत्तरी ढ़लानों में स्थित मिर्जापुर और अलाहाबाद जिलों में भी बड़ी मात्रा में नवपाषाणकालीन बस्तियों के अवशेष मिलते हैं। अलाहाबाद जिले में स्थित नवपाषाणकालीन स्थल चावल की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं जो 6 मिलेनियम ई.पू के हो सकते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण नवपाषाणकालीन स्थल जिनकी खुदाई हुई है, उनमें कर्नाटक के मस्की, ब्रहमगिरी, हल्लूर, कोदेकल, संगानाकल्लू, नरसीपुर और टेक्कला कोटा है। आंध्र प्रदेश में पिकलीहार और उतनुर महत्वपूर्ण नवपाषाण स्थल हैं, दक्षिण भारत में नवपाषाणकालीन दौर 2000 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक चला।
पिकलीहाल के नवपाषाणकालीन रहवासी पशुपालक थे। वे मवेशी भेड़, बकरियाँ आदि पालते थे। वे मौसमी शिविर लगाते थे, जिसमें वे मवेशियों का गोबर इकट्ठा करते थे। फिर पूरे मैदान पर आग लगा दी जाती थी जिससे की वह अगले मौसम के लिए सूखकर तैयार हो जाये। कर्नाटक में ब्रहमगिरी, हल्लूर, कोडेकल, पिकलीहाल, संगानाकल्लू, टी.नरसिंपुर, और टेक्कला कोटा, तथा तमिलनाडु में पायमपल्ली जैसे स्थलों की खुदाई में निवास स्थानों के साथ राख के ढेर भी मिले हैं।
नवपाषाणकालीन निवासी प्रारम्भिक कृषक समुदायों में से थे। वे पत्थर से बने कुदालों से मैदानों की खुदाई करते थे और उसके बाद सीमा रेखा बनाने के लिए मध्य आकार के पत्थर गाढ़ देते थे। वे चमकीले पत्थरों के अतिरिक्त सूक्ष्म पत्थर औजारों का भी उपयोग करते थे। वे गोलाकार या आयताकार मकानो में रहते थे जो मिट्टी के बने होते थे। यह माना जाता है कि गोलाकार मकानों मे रहने वाले ये आदिम मानव सामुदायिक सम्पत्ति की अवधारणा को मानते थे। नवपाषाणकालीन ये निवासी स्थायी निवासी के रूप में जीवन जीते थे। वे रागी और कुल्थी का उत्पादन कर लेते थे।
मेहगढ़ के नवपाषाणकालीन निवासी तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रगत थे। वे गेहूँ और कपास का उत्पादन करते थे और वे मिट्टी और ईट से बने घरों में रहते थे।
नवपाषाणकालीन दौर को कुछ निवासी बस्तियाँ अनाज की खेती और पशुपालन से परिचित हो गई थीं, उन्हें ऐसे बर्तनों की जरूरत होने लगी थी जिसमें वे अपने अनाज को एकत्रित कर सकें। इसके अतिरिक्त उन्हें खाना पकाने आदि के लिए मिट्टी के बर्तनों की आवश्यकता भी होने लगी। इसलिए इस दौर में सबसे पहले मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की शुरूआत दिखाई देती है। प्रारंभिक अवस्था में हाथ से बने हुए मिट्टी के बर्तन पाये गये हैं। नवपाषाणकालीन दौर के बाद के निवासी बर्तन बनाने के लिए पहियों का इस्तेमाल करने लगे थे। उनके मिट्टी के बर्तनों में काले, धूसर, पके हुए बर्तन दिखाई देते हैं।
उड़ीसा और छोटा नागपुर की पहाड़ियों में नवपाषाणकलीन कुल्हाड़ी, बसुला, छैनी, हथौड़ी आदि जैसे औजार पाये गये हैं। किंतु मध्यप्रदेश और दक्कन के उपरी हिस्सों में नवपाषाणकालीन बस्तियों की संख्या कम ही पाई गई है क्योंकि यहां उस प्रकार के पत्थर उपलब्ध नहीं थे, जिनकी पिसाई की जा सके और जिन्हें चमकीला बनाया जा सके।
9000 ई.पू.-3000 ई.पू. तक के कालखण्ड में पश्चिमी एशिया में उल्लेखनीय तकनीकी प्रगति हुई क्योंकि लोगों ने कृषि, सिलाई, बर्तन बनाना, घर निर्माण, पशुपालन आदि की कला सीख ली थी। किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण युग की शुरूआत 6 मिलेनियम ई.पू. ही हो सकी। इस काल खण्ड में कुछ महत्वपूर्ण फसलें जिसमें चावल, गेहूँ और जौ शामिल हैं, की खेती प्रारंभ हो गई थी और संसार के इस भाग में गाँव भी प्रकट होने लगे थे। ऐसा लगता है कि अब लोग सभ्यता की कगार पर खड़े थे।
पाषाणकालीन लोगों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वे केवल घाटी क्षेत्रों में ही बस्तियां बसा सकते थे क्योंकि उनके औजार और हथियार केवल पत्थर से बने होते थे। वे अपनी बस्तिया पहाड़ों की ढलानों, गुफाओं और नदी घाटियों में ही बसा सकते थे। इसके अतिरिक्त बहुत परिश्रम करने पर भी वे अपनी आवश्यकता से ज्यादा उत्पादन नहीं कर सकते थे।
COMMENTS